भगवद्गीता, इसमें गीता से पहले भगवत् शब्द क्यों जोडा गया, यह हमने देखा। क्यों कि गीता का प्रवर्त्तक श्री कृष्ण हैं जो पूर्ण रूप से भगवान हैं। उनके पास छः प्रकार के भग पूर्ण रूप से हैं - ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य।
कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् - कहते हैं व्यास जी।
अब गीता शब्द को देखते हैं
पहले हमने देखा गीता स्मृति भी कहलाती है, उपनिषद भी कहलाती है।
गीता का शाब्दिक अर्थ क्या है संस्कृत में?
गीयते स्म। आत्मविद्योपदेशात्मिका ब्रह्मतत्त्वोपदेशमयी कथा। गुरुशिष्यकल्पनया आत्मविद्योपदेशात्मके कथाविशेषे। गीता गुरु का उपदेश है शिष्य के प्रति, ब्रह्मतत्त्व का उपदेश, आत्मविद्या का उपदेश।
पर सारे दर्शन शास्त्र भी यही करते हैं तो गीता में, भगवद्गीता में क्या विशेष है?
यह सम्पूर्ण प्रपंच दो भागों मे विभक्त हैं, हमारे लिए, प्रपंच नामक अनुभूति दो भागों में विभक्त है - ब्रह्म और कर्म। ब्रह्म अर्थात् ज्ञान। इसलिए हमारे शरीर मे दो प्रकार के इन्द्रिय हैं - ज्ञानेन्द्रिय या कर्मेन्द्रिय। या तो हम जान सकते हैं या हम कर सकते हैं। इन दोनों के अलावा कुछ तीसरा है ही नहीं।
इसमें पहले ब्रह्म से संबन्धित दर्शनों को लीजिए। यह ब्रह्म भी तीन स्वरूप के हैं - अव्यय, अक्षर, और क्षर। वैशेषिक दर्शन में क्षर का निरूपण है, सांख्य दर्शन में अक्षर का निरूपण है, वेदांत दर्शन में अव्यय-गर्भित अक्षर का निरूपण है। पर गीता ने विशुद्ध अव्यय का निरूपण करके ब्रह्म के संपूर्ण निरूपण को संपन्न किया।
इसी प्रकार कर्म तत्त्व के भी तीन स्वरूप हैं - ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग। सांख्य दर्शन ज्ञान योग से संबन्धित है, योग दर्शन कर्म योग से संबन्धित है। शाण्डिल्य का दर्शन भक्ति योग से संबन्धित है। गीता में इन तीनों योगों से भी विलक्षण बुद्धि योग का निरूपण है जो ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य,और धर्म इन चार गुणों पर आधारित है।
बुद्धियोग विलक्षण इसलिए है कि इसमें ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग का समन्वय है। बुद्धि योग गीता से पहले अन्य किसी शास्त्र में प्रकट नहीं हुआ था।
यह स्मृति-गर्भित था।
तो भगवान ने ही गीता में सबसे पहले अव्यय का साक्षात् निरूपण किया और ज्ञान, कर्म और भक्ति योगों का समन्वय किया और बताया कि -
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥
यह मेरा मत है। प्रत्येक वस्तु में ये दोनों है - ज्ञान और कर्म। इन दोनों के तीन तीन स्वरूपों को मिलाकर ही कहते हैं - षाट्कौशिकमिदं सर्वम्।
गीता से पहले दार्शनिक दो पक्ष के बन गये थे। एक पक्ष कहता था - कर्म तुच्छ है ज्ञान पाओ। दूसरा पक्ष कहता था - ज्ञान की आवश्यकता नहीं है,
कर्म करते रहो। गीता ने इन दोनों पक्षों का समन्वय किया। अन्य शास्त्रों ने जब केवल सिद्धांत बतलाकर चुप हो गये, गीता हमे इन सिद्धातों को व्यवहार में कैसे लाना है यह भी हमें समझाती है। दैनिक जीवन में इनका प्रयोग कैसे करना है यह हमें सिखाती है।
भगवान इन दोनों के, अव्यय का निरूपण और योगों का समन्वय, इन दोनों में अग्रगामी हैं। इन दोनों के प्रवर्त्तक हैं। इन दोनों के सबसे पहले द्रष्टा हैं।
पर ध्यान में रखिए ये दोनों ही वेदसिद्ध हैं। वेद इनका प्रमाण हैं। मे मत कहकर भगवान ने किसी नये मत की स्थापना नहीं की। भगवान ने केवल जो निगूढ रह गया था उसका प्रवर्त्तक बनकर उसे हमारी भलाई के लिए हमारे सामने रखा।
भगवान ने दिखाया कि बुद्धि योग केवल ज्ञान योग नहीं हो सकता। बुद्धि योग ज्ञान योग और कर्म योग, दोनों का समन्वय है। अगर गीता नहीं होती तो केवल उपनिषदों से या ब्रह्मसूत्र से हम ब्रह्म के क्षेत्र में अव्यय तक नही पहुंच पाते या कर्म के क्षेत्र में योगों का समन्वय नहीं कर पाते।
प्रस्थान त्रयी में यही गीता की अद्वितीयता और स्थान हैं।
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