अष्टछाप वल्लभ संप्रदाय (पुष्टिमार्ग) के आठ समकालीन भक्त कवि थे।
ये गोवर्धन पर्वत पर स्थित श्रीनाथ जी के मंदिर में रहकर पद रचना, सेवा और कीर्तन करते थे।
इनके नाम हैं - सूरदास, परमानन्ददास, कुम्भनदास, कृष्णदास, नन्ददास, चतुर्भुजदास, गोविन्दस्वामी और छीतदास।
गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने इन आठों कवियों पर प्रशंसा और आशीर्वाद की छाप लगाई।
तब से ये अष्टछाप के नाम स्व प्रसिद्ध हो गये।
ये सारे सर्वश्रेष्ठ कवि, भक्त और संगीतज्ञ थे।
विक्रमी संवत् १६१५ में जब विट्ठलनाथ जी ने पहली बार ५६ भोग का उत्सव किया था तब सारे अष्टछाप जीवित थे।
मुसलमान शासक भारत में इसलाम का प्रचार कर रहे थे।
हिन्दू धर्म का मूल स्रोत वेद है।
वैदिक मार्ग में तीन काण्ड हैं - कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड, और उपासनाकाण्ड।
बौद्ध धर्म कर्मकाण्ड के विरुद्ध था और भारत में बौद्ध धर्म बहुत ही लोकप्रिय हो गया था।
अपनी दिग्विजय यात्रा द्वारा शंकराचार्य जी ने वैदिक धर्म का पुनरुत्थान किया।
उन्होंने ज्ञानकाण्ड को मुख्यता दिया।
उपासना दो प्रकार की हैं - निर्गुणोपासना और सगुणोपासना।
ईसा की चौथी शताब्दी से लेकर भारत में वैष्णव और भागवत धर्म का प्रचार हुआ है।
व्रज देश में ईसा की प्रथम शताब्दी के समय बौद्ध धर्म ही प्रचलित था।
बाद में रामानुजाचार्य, निम्बार्काचार्य, विणुस्वामी और मध्वाचार्य द्वारा व्रज देश में वैष्णव धर्म का प्रचार हुआ।
१४वी और १६वी शताब्दी के बीच रामानन्दी संप्रदाय, गौडीय संप्रदाय, पुष्टिमार्ग, राधावल्लभीय संप्रदाय और हरिदासी संप्रदाय लोकप्रिय बन गये।
१६वी शताब्दी में वल्लभाचार्य ने श्री विष्णुस्वामी के सिद्धांतों के आधार पर पुष्टिमार्ग की स्थापना की।
यह शुद्धाद्वैत और प्रेम-भक्ति क मार्ग है।
वल्लभाचार्य के गोलोकवास के बाद पहले उनके ज्येष्ठ पुत्र गोपीनाथ जी और उसके बाद द्वितीय पुत्र विट्ठलनाथ जी पुष्टिमार्ग के आचार्य बने।
इनके बाद के आचार्यों में गोकुलनाथ जी, हरिराय जी महाप्रभु और पुरुषोत्तमलाल जी प्रसिद्ध थे।
सूरदास जी का जन्म व्रज के पास सीही गांव में हुआ था।
उनकी जन्म तिथि विक्रमी संवत् १५३५ - वैसाखी सुदी पञ्चमी मानी जाती है।
१८ साल तक वे वहीं रहे।
एक बार उन्होंने वहां के एक जमींदार की खोई हुई गायों का पता अपनी दिव्य दृष्टि से बता दिया था।
उस जमींदार ने सूरदास जी को रहने के लिए घर बनाकर दे दिया।
वहां उनके शिष्य भी हो गये।
उनको वैराग्य आया; गांव छोडकर आगरा और मथुरा के बीच गऊघट आकर रहने लगे।
वल्लभ संप्रदाय में जुडने तक वे गऊघट में रहे और उसके गोवर्धन पहुंचकर श्रीनाथ जी की सेवा में लगे रहे।
सूरदास जी मानते थे कि भगवान से नाता जोडकर उन्होंने सब जाति पांति छोड दी है।
सूरदास जी अन्धे थे।
इसके बावजूद यह प्रसिद्ध था कि सूरदास जी गोकुल में नवनीतप्रिय जी के शृंगार के ज्यों का त्यों का वर्णन कर्ते थे।
एक बार इसकी परीक्षा लेने के लिए भगवान को कोई वस्त्र नहीं पहनाकर केवल मोती पहने दिये गये।
दर्शन के समय सूरदास जी को शृंगार का वर्णन करने बोला गया।
उन्होंने गाया -
देखे री हरि नंगम नंगा।
जलसुत भूषन अंग बिराजत, बसन हीन छबि उठत तरंगा।।
अंग अंग प्रति अमित माधुरी, निरखि लजित रति कोटि अनंगा।
किलकत दधिसुत मुख ले मन भरि, सूर हँसत ब्रज जुवतिन संगा।।
वल्लभ संप्रदाय में आने से पहले ही सूरदास जी संगीत और कविता-रचना में निपुण थे।
वे दास भाव से भगवान की उपासना करते थे।
वल्लभाचार्य ही सूरदास जी के दीक्षागुरु थे।
एक बार वल्लभाचार्य अडेल से व्रज जाते समय गऊघाट में ठहरे हे।
तब सूरदास से उनका मिलन हुआ।
आचार्य ने सूरदास से भगवान का वर्णन करने को कहा।
सूरदास ने “हरि, हौं सब पतितनि को नायक…” यह पद सुनाया।
वल्लभाचार्य ने कहा - तू सूर होकर भगवान के सामने ऐसा घिघियाता क्यों है?
आचार्य ने सूरदास जी को अपना शिष्य बनाया और गोकुल ले जाकर उन्हें अपनी श्रीमद्भागवत की सुबोधिनी टीका सिखाया।
सूरदास जी इसके आधार पर हजारों पद लिखा।
सूरदास जी बडे त्यागी और विरक्त भक्त थे।
उन्होंने जो ज्ञानोपदेश किया है, उन्हें अपने जीवन में भी कार्यान्वित किया है।
वे अपने सत्संग से लोगों को शान्तिपूर्ण और परोपकारी बनाते थे।
सूरदास जी अपने देहावसान का समय पहले से ही जान गये थे।
वे गोवर्धन से भगवान के परम रासस्थलि जाकर वहां श्रीनाथ जी के ध्वजा के सम्मुख युगल स्वरूप का ध्यान करते हुए लेट गये।
चतुर्भुजदास जी ने सूरदास जी से कहा - आपने भगवान के बारे में लाखों पद लिखे पर आचार्य के बारे में एक भी नहीं लिखा।
सूरदास जी ने कहा - वे सारे आचार्य के ही यशोगान हैं।
आचार्य और भगवान में कोई अन्तर नहीं है।
परमानन्ददास जी का जन्म कन्नौज जिला फरुखाबाद में हुआ था।
उनकी जन्म तिथि विक्रमी संवत् १५५० मार्गशीर्ष सुदी सप्तमी को है।
उनके माता-पिता पहले निर्धन थे।
परमानन्ददास जी के जन्म के दिन ही उन्हें किसी से बहुत सारा धन प्राप्त हुआ।
एक बार अकाल के समय उनका सारा धन लुटा गया।
दुखी माता-पिता से परमानन्द जी ने कहा - आप लोग घर में बैठकर भजन करो; घर चलाने के लिए मैं कमाकर लाता हूं।
लेकिन माता-पिता कमाने के लिए देश छोडकर चले गये।
परमानन्ददास जी कीर्तन करनेवालों के साथ जुड गये और स्वामी कहलाने लगे।
वल्लभ संप्रदाय में आने से पहले ही वे एक कवि और गायक के रूप में विख्यात हो चुके थे।
एक बार मकर स्नान के लिए परमानन्ददास जी प्रयागराज गये।
वल्लभाचार्य प्रयाग के पास अडेल में रहते थे।
परमानन्ददास जी वल्लभाचार्य से मिलने गये।
तब तक परमानन्ददास जी विरह के पद ही गाते थे।
आचार्य जी ने नन्दनदास जी से पद गाने को कहा।
वे विरह के पद गाने लगे।
आचार्य जी बाललीला गाने को बोले।
नन्दनदास जी बोले - मुझे बाललीला के बारे में पता नहीं है।
आचार्य जी ने उनको शिष्य के रूप में लेकर संपूर्ण भागवत सिखाया।
नन्दनदास जी ने पहले अडेल में ही रहकर नवनीतप्रिय जी की सेवा की और बाद में व्रज देश चले गये।
नन्दनदास जी त्यागी और उदार थे।
उन्होंने विवाह नहीं किया।
कुम्भनदास जी का जन्म गोवर्धन के पास जमुनावती गांव में हुआ।
उनके सात पुत्र थे।
इनमें से पांच को उन्होंने अलग कर दिया क्योंकि उन्हें अध्यात्म में रुचि नहीं थी।
वल्लभाचार्य के सिद्धान्तों को अपने जीवन में कार्यान्वित करके कुम्भनदास जी ने अपने आप उच्चकोटि का भक्त बनाया।
विक्रमी समवत १५४९ में गोवर्धन में श्रीनाथ जी के प्राकट्य की वार्ता आने पर वल्लभाचार्य गोवर्धन के पास आन्योर गांव में आकर ठहरे थे।
उस समय आचार्य जी ने कुम्भनदास जी को पत्नी समेत अपने शरण मेंं लेकर उन्हें श्रीनाथ जी के कीर्तन की सेवा में लगा दिया।
जब श्रीनाथ जी छोटे मन्दिर में विराजते थे उस समय गोवर्धन पर एक लुटेरे का आक्रमण हुआ था।
कुम्भनदास जी और अन्य भक्त श्रीनाथ जी को लेकर कई दिनों तक जंगल में छुप गये थे।
कुम्भनदास जी सदा पैदल ही चलते थे।
वे सरल, सत्यवादी और संतुष्ट थे।
गोलोकवास के समय कुम्भनदास जी सङ्कर्षण कुण्ड के पास जाकर बैठे और निकुञ्जलीला का पद गाते हुए देह छोड दिये।
इनका जन्म अहमदावाद के पास चिलोतरा गांव में विक्रमी संवत् १५५२ में हुआ।
कृष्णदास जी ने तेरह वर्ष की आयु में चोरी के आरोप में अपने पिता के विरुद्ध गवाही दी थी और इस कारण से घर से निकाल दिये गये।
वे उसके बाद तीर्थयात्रा करने लगे।
श्रीनाथ जी के मंदिर पहुंचने पर वल्लभाचार्य ने इन्हें अपने शरण में ले लिया।
इन्होंने विवाह नहीं किया।
ये श्रीनाथ जी मंदिर के अधिकारी थे।
पहले कृष्णदास जी मंदिर का संचालन ही करते थे।
बाद में उनमें कवित्व आ गया और उन्होंने पद बनाना और कीर्तन गाना शुरू कर दिया।
ये गोकुल के पास रामपुर गांव के निवासी थे।
ये तुलसीदास जी के भाई (सगे या चचेरे) थे।
नन्ददास जी के दीक्षा गुरु गोस्वामी विट्ठलनाथ जी थे।
पहले वे रामानन्द संप्रदाय से जुडे हुए थे।
एक बार नन्ददास जी एक मंडली के साथ काशी से रणछोड जी के दर्शन के लिए द्वारका निकले।
मथुरा के आगे वे अकेले ही निकल पडे।
रास्ता भूलकर वे कुरुक्षेत्र के पास सीहनन्द गांव पहुंच गये।
वहां की एक स्त्री पर अनुरक्त होकर वे हर दिन भीख मांगने के बहाने उनके घर जाने लगे।
उनका परिवार जब गोकुल यात्रा में निकला तो नन्ददास जी उनके पीछे पीछे चल दिये।
वहां के नाववाले ने उन्हें पार करने से मना कर दिया।
उस समय उन्हें अपनी लौकिक आसक्ति का बोध हुआ।
वहीं बैठकर उन्होंने यमुना जी की स्तुति लिखी।
नन्ददास जी के बारे में पता चलने पर विट्ठलनाथ जी ने उन्हेंं अपने पास बुला लिया।
नन्ददास जी दृढ संकल्पवाले व्यक्ति थे; साथ ही साथ उनके जीवन में चपलता भी दिखाई देती है।
किन्तु पुष्टिमार्ग में आने के बाद वे संपूर्ण रूप से कृष्ण भक्ति और सेवा में लग गये।
इनका जन्म विक्रमी संवत् १५९७ में जमुनावती गांव में हुआ था।
ये कुम्भनदास जी के पुत्र थे।
अपनी प्रथम पत्नी का देहांत होने पर इन्होंने एक विधवा से विवाह किया।
पद रचना और संगीत इन्होंने अपने पिताजी से सीखा।
बाल्यकाल से ही ये पुष्टिमार्ग में जुड गये।
श्रीनाथ जी का मन्दिर छोडकर वे बहुत कम जाते थे।
गोविन्दस्वामी जी का जन्म भरतपुर के पास आंतरी गांव में हुआ।
ये अधिकतर समय गोवर्धन में ही रहते थे।
इनका परिवार भी था पर ये विरक्त थे।
एक बार उनकी बेटि उनसे मिलने गोवर्धन आयी।
साथ रहने पर भी गोविन्दस्वामी ने अपनी बेटी से बात नही की।
पूछे जाने पर उन्होंने कहा - मन एक ही है; श्रीनाथ जी पर लगाऊं कि बेटी पर?
साधुओं के सत्संग से भक्ति में इनकी रुचि लगी।
वल्लभ संप्रदाय में आने से पहले वे कविता रचना और संगीत सिखाते थे।
गोविन्दस्वामी जी महावन में रहने लगे और उनका मन विट्ठलनाथ जी की ओर आकृष्ट हो गया।
एक बार विट्ठलनाथ जी को यमुना तट पर संध्या वन्दन करते हुए देखकर गोविन्दस्वामी ने उनसे भक्ति में कर्मकाण्ड की प्रसक्ति के बारे में पूछा।
उन्होंने कहा - भक्ति यदि फूल है तो कर्मकाण्ड उसकी रक्षा करनेवाले कांटे हैं।
इसके बाद विट्ठलनाथ जी ने उन्हें अपने शरण में ले लिया।
एक बार आंतरी गांव से कुछ लोग गोविन्दस्वामी जी को ढूंढकर आये थे।
उन्हें गोविन्दस्वामी जी ने बताया - गोविन्दस्वामी मर चुके हैं; अब मैं गिविन्ददास हूं।
गोविन्दस्वामी जी की भक्ति सखा - भाव की थी।
संगीत में वे इतने निपुण थे की तानसेन इनसे सीखने आता था।
इनका जन्म मथुरा में हुआ था।
वल्लभ संप्रदाय में आने से पहले ही वे कवि और संगीतकार थे।
एक बार छीतस्वामी जी और उनके कुछ मित्र विट्ठलनाथ जी की परीक्षा लेने गोकुल आये।
विट्ठलनाथ जी को देखकर परीक्षा लेने के बजाय छीतस्वामी जी उनसे शरणागति की प्रार्थना करने लगे।
छीतस्वामी का विट्ठलनाथ जी से इतना लगाव था कि विट्ठलनाथ जी के गोकुलवास के तुरन्त बाद छीतस्वामी जी का भी गोकुलवास हो गया।
त्रेतायुग में एक बार महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती ने अपनी शक्तियों को एक स्थान पर लाया और उससे एक दिव्य दीप्ति उत्पन्न हुई। उस दीप्ति को धर्म की रक्षा करने के लिए दक्षिण भारत में रत्नाकर के घर जन्म लेने कहा गया। यही है वैष्णो देवी जो बाद में तपस्या करने त्रिकूट पर्वत चली गयी और वहां से भक्तों की रक्षा करती है।
आरती कीजै हनुमान लला की, गोस्वामी तुलसीदास जी की रचना है।
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