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परीक्षित का शासन

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हमने अब तक देखा है कि कैसे नागों की माता कद्रू ने अपने पुत्रों को श्राप दिया कि वे जनमेजय के सर्प-यज्ञ में जलकर मर जाएंगे।
और आस्तिक का जन्म के बारे में भी जो बीच में ही सर्प-यज्ञ को रोक देगा और नाग-वंश के विनाश से बचाएअगा।
इससे पहले हमने यह भी देखा कि कैसे ऋषि उत्तंक ने जनमेजय को सर्प-यज्ञ करने के लिए उकसाया था।​
​उत्तंक ने केवल उकसाया।
​लेकिन जनमेजय पूरे नाग-वंश का नाश क्यों करना चाहते थे?
​यह एक बदला था।
​तक्षक द्वारा अपने पिता की हत्या का बदला।​
​जनमेजय के पिता थे परीक्षित।
​अभिमन्यु का पुत्र।
​परीक्षित बडे धर्मात्मा थे।
वे जानते थे कि धर्म क्या है।
​उस समय का धर्म वर्णाश्रम-धर्म था।​
​समाज का चार वर्णों में विभाजन गुण और कर्म पर आधारित था।
​बुद्धिजीवी मार्गदर्शन करेंगे और पढ़ाएंगे।​
​शारीरिक रूप से जो मजबूत हैं वे समाज की रक्षा करेंगे।
​एक और वर्ग धन पैदा करेगा।​
और बहुसंख्यक लोग सभी कार्यों का निष्पादन करेंगे।
​आप एक कॉर्पोरेट, एक कंपनी को ही लीजिए।
आपको वहां भी यही दिखाई देगा।
​पहला बुद्धिजीवी: वैज्ञानिक, इंजीनियर जो वित्त का प्रबंधन करते हैं, योजना बनाते हैं; शायद 5 या 10 लोग।​
​दूसरा : जो उस कंपनी को सुरक्षित रखते हैं इंटरनेट के स्तर पर भी उसकी की रक्षा करते हैं; शायद 50 या 100 लोग।
​तीसरा: जो बाहर जाकर उत्पाद को बेचते हैं, आमदनी उत्पन्न करते हैं; शायद 50 या 100 लोग।​
बहुसंख्यक कर्मचारी 2000 या 2500 लोग उत्पादन, लोडिंग-अनलोडिंग, लौजिस्टिक्स, मंटनेन्स इन सब कार्यों में लगे रहते हैं।
जिसे आप चातुर्वर्ण्य कहते हैं (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र) वह इसके समान था।
​अब, यदि इस कंपनी को सफलतापूर्वक कार्य करना है तो इस विन्यास को बनाए रखना होगा।​
​कर्मचारियों की तरक्की होती है।
कोई टेक्नीशियन से इंजिनीयर बनता है।
​लोगों को काम पर रखा जाता है, काम से निकाला जाता है।​
​लेकिन विन्यास बना हुआ रहता है।​
​यही राजा का भी कर्तव्य है।
​राजा के पास समाज के स्वरूप को बनाए रखने के लिए ज्ञान और क्षमता होनी चाहिए।​
समाज के स्वरूप को बनाए रखना राजा का धर्म है।​
परीक्षित धर्मात्मा थे।​
वे जानते थे कि धर्म क्या है और यह भी जानते थे कि इसे कैसे कायम रखना है।
​जैसे आज हमारे पास विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका हैं।
​विधायिका कानून बनाती है।
कार्यपालिका उन कानूनों को लागू करती है।
​न्यायपालिका न्याय सुनिश्चित करती है।​
उस समय कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों ही राजाओं द्वारा नियंत्रित होता था।​
​नियम के ग्रन्थ पीढ़ियों से चली आ रही हैं, स्मृति और नीति-शास्त्र के रूप में, समय-समय पर इनका पुनर्लेखन और संशोधन भी होता था।
​परीक्षित ने राजा के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाया।​
​राजा परीक्षित की एक विशेषता यह थी कि उनका किसी से वैर नहीं था।
और कोई उन्हें नापसंद भी नहीं करता था।​
​उनके शासन में सभी संतुष्ट थे।​
​उन्होंने विधवाओं, अनाथों और दिव्यांगों के कल्याण का विशेष ध्यान रखा।​
​धनुर्वेद में उनके गुरु थे कृपाचार्य ।
उनका नाम परीक्षित क्यों रखा गया?
परिक्षीणेषु कुरुषु सोत्तरायामजीजनत् ।
​जब उन्होंने जन्म लिया, कुरु-वंश अपने सबसे निचले स्तर पर था, वह परिक्षीण था, कमजोर था।​
राजा परीक्षित के केवल छः शत्रु थे: काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य ​और उन्होंने उन सभी के ऊपर विजय पाया।
उनका मन उनके वश में था।
​महाभारत उनकी इतनी प्रशंसा कर रहा है क्योंकि हम उनके बारे में गलत न सोच बैठें।
​हम उन्हें एक घमंडी राजा के रूप में सोचते हैं, जिसने एक मरे हुए सांप को एक ऋषि के गले में डाल दिया था।​
​नहीं।
वे सबके लिए प्रिय थे।​
​वे एक अच्छे प्रशासक थे।
बहुत बुद्धिमान थे ।
वे 60 वर्ष की आयु तक जीवित रहे।
अब आगे हम देखेंगे कि उनकी मृत्यु किस कारण से हुई।

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