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समुद्र में करोडों वृक्षों का, जडी बूटियों का रस, मन्दर पर्वत के मणि, रत्न ये सब मिल्कर उसका मन्थन किया तो अमृत निकल आया। असुर अमृत के लिए लडने लगे। वे सारा अमृत ले जाना चाहते थे। ठीक इसका विपरीत हुआ। भगवान श्रीहरि मोहिनी क....
समुद्र में करोडों वृक्षों का, जडी बूटियों का रस, मन्दर पर्वत के मणि, रत्न ये सब मिल्कर उसका मन्थन किया तो अमृत निकल आया।
असुर अमृत के लिए लडने लगे।
वे सारा अमृत ले जाना चाहते थे।
ठीक इसका विपरीत हुआ।
भगवान श्रीहरि मोहिनी के रूप में अवतार लेकर आये तो सारे असुर मोहिनी के सौन्दर्य में वशीभूत हो गये।
उनका ध्यान अमृत में से हट गया।
मोहिनी अमृत कुंभ को अपने हाथों में लेकर परोसने लगी।
देवों को और असुरों को अलग अलग पंक्ति बनाकर बैठने बोली।
और देवों की ओर से परोसने लगी।
इस बीच एक असुर राहु छद्मवेष में देव बनकर उस तरफ जाकर बैठ गया।
मोहिनी ने उसे अमृत दिया, उसने मुंह में डाला तब तक सूर्य और चन्द्रमा ने उसे पहचान लिया।
वे चिल्लाकर बोले - वह देव नहीं है असुर है।
मोहिनी वेश धारी भगवान ने अमृत उसके गले से नीचे उतरने से पहले ही सुदर्शन चक्र से उसका गर्दन काट डाला।
उसका सिर आकाश में उडकर जोर जोर से गर्जन करने लगा।
धड एक पर्वत जैसे जमीन पर गिरकर हाथ पैर मारने लगा तो भूकंप हुआ।
तब तक असुरों को पता चल गया था कि मोहिनी उन्हें अमृत देने वाली नहीं है।
देवों और असुरों के बीच घोर युद्ध शुरू हो गया।
मकुटों के साथ असुरों के हजारों सिर गिरने लगे।
खून की नदियां बहने लगी।
दोनों पक्ष एक दूसरे के ऊपर भयानक हत्यार बरस रहे थे।
रण हुंकार हर तर्फ सुनाई दे रहा था।
उस समय भगवान के दो अवतार नर और नारायण रण भूमि में आये।
नर हाथ में धनुष लिये हुए थे।
नारायण सुदर्शन चक्र।
वह सुदर्शन चक्र सूर्य मंडल जैसे बडा था।
उसमें से आग की ज्वालाएं निकल रही थी।
सुदर्शन चक्र को कोई रोक नहीं सकता।
अच्छे लोगों के लिए सुदर्शन चक्र सुन्दर दिखता है।
बुरे लोगों के लिए वह मृत्यु के समान भयानक है।
संपूर्ण असुर कुल के विनाश के लिए एक सुदर्शन चक्र अकेले काफी है।
नारायण के हाथ भी हाथी की सूंड जैसे बडे थे।
उन्होंने असुरों के ऊपर सुदर्शन चक्र चलाया।
हर मार से हजारों असुर गिरे।
चक्र रण भूमि में असुरों को ढूंढकर घूमता रहा।
कभी कभी आकाश में उडकर असुरों को ढूंढता था।
यह इसलिए था कि कुच्छ असुर आकाश में उडकर पत्थर भाजी करने लगे।
बडे बडे पत्थर देवों के ऊपर फेंकने लगे।
उन्हें भी सुदर्शन चक्र वहीं खत्म कर देता था।
नर भी नीचे से अपने बाणों से उन पत्थरों को चूर चूर करता गया।
आखिर में जितने असुर बचे वे भागकर पाताल में जाकर छिपे।
देव युद्ध जीते।
उन्होंने मन्दर पर्वत को पूर्ववत स्थापित किया।
और अमृत कुंभ को लेकर स्वर्गलोक चले गये।
वहां उन्होंने उसे सुरक्षित रखने के लिए नर को ही सौंप दिया।
मन्थन के बीच समुद्र में से जो दिव्याश्व निकला, उच्चैश्रवस उसे कद्रू और विनता ने देखा।
कद्रू बोली: उसका रंग क्या है?
सफेद।
नहीं उसकी पूंछ काले रंग की है बोली कद्रू।
नहीं पूरा शरीर सफेद है।
चलो बाजी लगाते है।
जो जीतेगी उसकी दूसरी दासी बनेगी।
तब तक उच्चैश्रवस चला गया था।
कल जब वापस आएगा तो पता करते हैं।
दोनों अपने अपने घर चले गये।
कद्रू ने अपने पुत्रों को बुलाया और उनसे कहा: कल जब वह घोडा आएगा तो तुम लोग उसकी पूंछ पर बाल जैसे लटक जाना ताकि वह काली दिखें।
नहीं मां हम ऐसे छल कपट नही करेंगे।
किसी को धोखा नही देंगे।
कद्रू ने गुस्से में आकर अपने ही पुत्रों को शाप दे दिया: तुम लोग सब जनमेजय द्वारा किये जाने वाले सर्प यज्ञ में आग में जलकर मरोगे।
ब्रह्मा जी ने भी इस शाप को सुना।
उन्होंने कद्रू के पति कश्यप जी को बुलाकर कहा: उससे नाराज मत होना।
उसने सबका हित ही किया है।
नाग अब बढकर करोडॊं में हो चुके हैं।
उन में से बहुत सारे दुष्ट और क्रूर हैं।
उनका जहर भी काफी भयंकर है।
बिना कारण ही लोगों को डसते फिरते हैं।
उनकी संख्या को कम करना जरूरी है।
उस में यह शाप काम आएगा।
कद्रू से नाराज मत होना।
ब्रह्मा जी ने कश्यप को विष चिकित्सा की विद्या भी सिखाया।
इस बीच कर्कोटक जैसे कुछ नाग, मां के शाप के डर से उच्चैश्रवस की पूंछ पर जाकर लटक गये।
और वह काले रंग की दिखने लगी।
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