अथ मित्रभेदः प्रारम्भः
अथातः प्रारभ्यते मित्रभेदो नाम प्रथमं तन्त्रम् । यस्यायमादिमः
श्लोक:-
वर्षमानो महान्स्नेहः सिंहगोवृषयोवने ।
पिशुनेनातिलुब्धेन जम्बुकेन विनाशितः ॥ १ ॥
तद्यथाऽनुश्रूयते - अस्ति दाक्षिणात्ये जनपदे महिलारोप्यं नाम नग- रम् । तत्र धर्मोपार्जितभूरिविभवो वर्धमानको नाम वणिक्पुत्रो बभूव । तस्य कदाचिद्रात्रो शय्यारूढस्य चिन्ता समुत्पन्ना - तत्प्रभूतेऽपि वित्तेऽर्थोपायाश्चिन्तनीयाः कर्तव्याश्चेति । यत उक्तं च-
नीतिशास्त्र का ग्रन्थ बालकों को ज्ञानप्राप्ति के लिए संसार में प्रसिद्ध हुआ । अधिक क्या ?
जो इस नीतिशास्त्र का नित्य अध्ययन करता है अथवा सुनता है वह देव- राज इन्द्र से भी कभी पराजित नहीं होता ॥ १० ॥
इस प्रकार पञ्चतन्त्र भाषाटीकान्तगंत कथामुख समाप्त ।
अब यहाँ से मित्रभेद नाम का प्रथम तन्त्र प्रारम्भ किया जाता है जिसका यह सर्वप्रथम श्लोक है--
थन में एक सिंह और बैल के बीच जो अधिक स्नेह बढ़ा हुआ था, उसे चुगलखोर और अत्यधिक लालची गीदड़ ने नष्ट कर दिया ॥ १ ॥
इस प्रकार सुना जाता है कि दक्षिण देश में महिलारोप्य नाम का एक नगर था । वहाँ धर्मपूर्वक अत्यधिक धन उपार्जन करनेवाला वर्द्धमान नामं का एक बनिये का पुत्र था। एक समय रात्रि में शय्या पर सोते हुए उसे चिन्ता उत्पन्न हुई--धन का आधिक्य हो जाने पर भी धनप्राप्ति का उपाय सोचना और करना ही चाहिये । क्योंकि कहा भी है- यत्नेन
न हि तद्विद्यते किंचिद्यदर्थेन न सिद्धयति । मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत् ॥ २ ॥ यस्यार्यास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः । यस्पार्थाः स पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः ॥ ३ ॥ न सा विद्या न तद्दानं न तच्छिल्पं न सा कला । न तत्स्थैर्यं हि धनिनां याचकैर्यन्न गीयतते ॥ ४ ॥ इह लोके हि धनिनां परोऽपि स्वजनायते । स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते ॥ ५ ॥ अर्थेभ्योऽपि हि वृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्य इतस्ततः । प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इवापगाः ॥ ६ ॥ पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्योऽपि गम्यते । वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च ॥ ७ ॥
संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो धन के इसलिए बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिये कि केवल धन का करे ॥ २ ॥
द्वारा सिद्ध न होती हो,
यत्न के साथ उपार्जन
जिसके पास धन है उसी के मित्र होते हैं ! जिसके पास धन है उसी के बन्धु होते हैं। जिसके पास घन रहता है वहो इस संसार में पुरुष है और जिसके पास धन है वही पण्डित ( सदसद्विवेकशील ) समझा जाता है ॥ ३ ॥
न कोई ऐसी वह विद्या है, न वह दान है, न वह कारीगरी है, न वह कला है, न वह स्थिरता है, जिसे धनिकों में याचकगण न कहते हों (अर्थात् विद्या आदि समस्त गुण धनिकों में ही कहे जाते हैं ) ॥ ४ ॥
इस संसार में अनात्मीय लोग भी धनियों के आत्मोय ( सम्बन्धी ) हो जाते हैं, किन्तु दरिद्र पुरुष के अपने कुटुम्बी मी सर्वदा दुर्जन के समान व्यवहारं करने लगते हैं ॥ ५ ॥
जिस प्रकार पर्वतों से ही सब नदियाँ निकल कर समस्त कार्य पूर्ण करती हैं, उसी प्रकार इधर-उधर से इकट्ठा कर बढ़ाये हुए धन से ही समस्त लौकिक क्रियाओं की प्रवृत्ति होती है ॥ ६ ॥
यह धन का ही प्रभाव है जो कि अपूज्य भी पूजित होता है, न जाने `अशनादिन्द्रियाणीव स्युः कार्याण्यखिलान्यपि ।
एतस्मात्कारणाद्वित्तं
सर्वसाधनमुच्यते ॥ ८ ॥
अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते । त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः ॥ ९॥ गतवयसामपि पुंसां येषामर्था भवन्ति ते तरुणाः ।
अर्थे तु ये हीना वृद्धास्ते यौवनेऽपि स्युः ॥ १० ॥ स चार्थः पुरुषाणां षडभिरुपायैर्भवति - भिक्षया, नृपसेवया, कृषि- कर्मणा, विद्योपार्जनेन, व्यवहारेण, वणिवकर्मणा वा । सर्वेषामपि तेषां वाणिज्येना तिरस्कृतोऽर्थलाभः स्यात् । उक्तं च यतः -
कृता भिक्षाऽनेकै वितरति नृपो नोचितमहो
कृषिः क्लिष्टा विद्या गुरुविनयवृत्त्याऽतिविषमा । कुसीदाद्दारिद्रघं परकरगतग्रन्थिशमना-
न मन्ये वाणिज्यात्किमपि परमं वर्तनमिह ॥ ११ ॥
योग्य के यहां भी जाया जाता है और प्रणाम न करने के योग्य भी व्यक्ति लोगों से प्रणम्य हो जाता है ॥ ७ ॥
जिस प्रकार भोजन करने से समस्त इन्द्रियों सबल होती हैं, उसी प्रकार समस्त कार्य धन से ही सम्पन्न होते हैं, इसलिए घन सर्वसाधन कहलाता है ॥८॥
धन की अभिलाषा से प्राणी श्मशान ( मुर्दा जलाने का स्थान ) का भी सेवन करता है, और वही प्राणी अपने उत्पन्न करनेवाले निर्धन पिता को भी छोड़ कर दूर चला जाता है ।। ९ ।।
वृद्ध पुरुषों में भी जिनके पास धन है वे तरुण हैं। किन्तु जो धनहीन हैं वे युवावस्था में भी वृद्ध हो जाते हैं ।। १० ।।
वह धन मनुष्यों को छः उपायों से मिलता है-- (१) मिक्षा (२) राजजीय सेवा (नौकरी) (३) खेती के कार्य (४) विद्योपार्जन (५) व्यवहार ( लेनदेन ) और ( ६ ) वाणिज्य ( धनियों के कर्म, व्यापार ) द्वारा । इन सब में वाणिज्य द्वारा अपमानरहित धनलाभ होता है। क्योंकि कहा भी है- अनेक पुरुषों के घरों से भिक्षा प्राप्त की जाती है। भी उचित वृत्ति नहीं देता, ओरों की तो बात ही क्या पूर्ण है, विद्या गुरु की विनयवृत्ति द्वारा बड़ी विषम है,
सेवा करने पर राजा
कृषिकर्म क्लेश से परि- व्याज से भी दरिद्रता

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