किसी जमाने में उदयवर्मा नागपुर का सामन्त राजा था। 

उसे मन्त्र शास्त्र पर बहुत मोह था। 

वह दिन रात भिन्न-भिन्न भाषाओं में मन्त्र शास्त्र पर लिखी गई पुस्तकें पढ़ता रहता ताकि वह एक बड़ा मान्त्रिक बन सके। 

उदयवर्मा का भाई शूरवर्मा था। 

राजा हमेशा अध्ययन में व्यस्त रहता था इसलिए शूरवर्मा ही सारा राज्य कार्य देखता था और राजा से सम्बन्धित औपचारिक विधियों को करवाता था।

थोड़े दिनों बाद शूरवर्मा के मन में लालच पैदा हुआ। 

इसलिए उसने अपने भाई और उसकी तीन वर्ष की लड़की, चन्द्रसेना को मारकर, गद्दी पर स्वयं बैठना चाहा। 

इस षड़यन्त्र में चालुक्य राजा ने शूरवर्मा की मदद की। 

परन्तु उदयवर्मा को मार देना उतना आसान काम नहीं था। 

नागपुर की प्रजा को उस पर बहुत अभिमान था। 

अगर उनको यह मालूम हो गया कि गद्दी हथियाने के लिये शूरवर्मा ने अपने भाई को मरवा दिया है, तो वह उसको जिन्दा न छोड़ेगी।

इसलिए अपने एक नौकर, धीरसिंह को बुलाकर शूरवर्मा ने कहा - 'तुम मेरे भाई और उनकी लड़की को बीच समुद्र में छोड़ आओ। उन्हें एक ऐसी नौका में ले जाओ जिस में न पतवार हो न पाल ही।'

शूरवर्मा का ख्याल था कि ऐसा करने से, उसका भाई, और उसकी पुत्री या तो तूफ़ान में मर जाएँगे, नहीं तो भूखे प्राण छोड़ देंगे। 

परन्तु धीरसिंह अच्छे हृदय का था। 

इसलिए धीरसिंह ने जब उदयवर्मा और उसकी लड़की को समुद्र में छोड़ा, तो वह नौका में कई दिनों की रसद, और उसके मन्त्र- शास्त्र के ग्रन्थ भी छोड़ता गया।

धीरसिंह की दया से, उदयवर्मा और उसकी लड़की बेमौत न मरे, परन्तु कुछ दिनों बाद वे एक निर्जन द्वीप में पहुँचे।

वह एक विचित्र द्वीप था। 

कभी उस द्वीप में एक जादूगरनी राक्षसी रहा करती थी। 

उसने अपनी मन्त्र शक्ति के कारण कई भूतों और पिशाचों को अपने वश में कर रखा था और वह उनसे नौकरी करवाया करती थी। 

जिन भूतों ने उसकी बात न मानी उनको उसने उस द्वीप के पेड़ों से बंधवा दिया था। 

उदयवर्मा के उस द्वीप में पहुँचने के कुछ दिन पहिले ही वह राक्षसी मर गई थी।

उसका लड़का, मन्द एक अरक्षित पक्षी के रूप में, उस द्वीप में फिरा करता था।

उदयवर्मा ने द्वीप में पैर रखते ही अपनी मन्त्रशक्ति से बन्धे हुये भूतों को विमुक्त कर दिया। 

उन भूतों का सरदार, इल्वेलु, उसी द्वीप में रहकर, उदयवर्मा की हर तरह से मदद करने लगा। 

कुछ दिनों बाद, उदयवर्मा को मन्द मिला।

वह लंगूर से भी अधिक बदसूरत था और बहुत आलसी था।

उदयवर्मा ने उसको अपने साथ रखा और उसको बातचीत करना सिखाया। 

उसने एक गुफा में अपना बसेरा किया। 

उस गुफा में ही उन्होंने अपनी सुविधा के लिए कई कमरे बनवाये। 

उदयवर्मा के लिए लकड़ियाँ वगैरह, बटोर कर लाना मन्द का काम था। 

क्योंकि वह बड़ा आलसी था इसलिए उसे डरा धमकाकर उससे काम लेना, इल्वेलु का काम था।

मन्द को सताने में इल्वेलु बड़ा मजा लेता था। 

इल्वेलु भूत होने के कारण सिवाय उदयवर्मा के किसी और को न दिखाई देता था। 

जब कभी मन्द काम में ढीलापन दिखाता तो उसको बिना दीखे वह उसे चूँटी काटता था। 

नहीं तो कीचड़ में धकेलता था। 

नहीं तो सेई का रूप धारण कर, उस पर कूदकर, उसे डराता। 

इस तरह कई वर्ष बीत गये। 

चन्द्रसेना बड़ी हो गई। 

अब उसका सौन्दर्य वर्णनातीत था। 

मगर क्या फायदा? 

सिवाय उसके पिता के वहाँ उसको कोई देखनेवाला मनुष्य न था। 

पिता ने स्वयं उसको वह सब विद्या सिखाई, जिसका सीखना उसके लिए आवश्यक था।

इस समय में, उदयवर्मा भी बहुत बड़ा मान्त्रिक हो गया।

इल्वेलु की सहायता से उसने पंचभूतों पर काफी अधिकार पा लिया था। 

एक दिन उसने समुद्र में बहुत बड़ा तूफ़ान पैदा किया। 

उस तूफ़ान में पिता और पुत्री ने एक जहाज़ को धक्का खाते आते हुए देखा। 

यह जानकर कि उस  तूफ़ान को उसके पिता ने ही पैदा किया था, चन्द्रसेना ने पूछा – 'क्यों पिताजी, क्या उस जहाज के लोगों को पानी में डुबो दोगे !' 

उदयवर्मा ने चन्द्रसेना को अपनी सारी कहानी सुनाकर कहा-' बेटी, उस जहाज में तुम्हारे चाचा, चालुक्य राजा जयपाल, उसका लड़का जयकेतु, हमें समुद्र में छोड़कर जानेवाला धीरसिंह आदि हैं। उनको यहाँ बुलवाने के लिए ही मैं ने यह तूफान पैदा किया है। डरो मत उनमें से कोई भी न मरेगा। उनके जहाज़ को भी किसी प्रकार की हानि न होगी।' 

फिर इल्वेलु ने आकर उदयवर्मा से कहा – 'महाराज, जैसे आपने कहा था, वैसे मैं ने कर दिया है। जहाज़ का हर व्यक्ति, अपने अपने रास्ते द्वीप में पहुँच गया है। सब यही सोच रहे हैं कि सिवाय उसके हर कोई डूब गया है। जहाज बन्दरगाह में सुरक्षित है। परन्तु वह किसी को दिखाई नहीं देगा, इस तरह हमने उसे रख दिया है।'

उदयवर्मा ने कहा - 'अभी थोड़ा काम और बाकी है। उसके होते ही, मैं तुम्हें पूरी आजादी दे दूँगा। पहिले जयकेतु के पास जाकर उसे यहाँ लाओ।'

इल्वेलु जयकेतु के समीप गया। 

चालुक्य राजा का लड़का जयकेतु शोकातुर हो, एक जगह बैठा सोच रहा था कि उसके सब लोग समुद्र में डूब गये थे, और यह अकेला उस निर्जन वन में आ लगा था, उस समय उसको एक गीत सुनाई दिया। 

यह गीत इल्वेलु ही गा रहा था। 

जयकेतु ने गीत सुनकर पीछे मुड़कर देखा। 

उसे कोई मनुष्य नहीं दिखाई दिया। 

इसलिए वह उठकर उस तरफ़ चल पड़ा जिस तरफ से गीत सुनाई दे रहा था और चन्द्रसेना को देखकर हैरान रह गया। 

उसने सोचा वह स्त्री नहीं, कोई अप्सरा थी।

'हे इस द्वीप की परिपालिनी देवी, मुझ पर कृपा करो' - जयकेतु ने कहा।

'मैं देवी नहीं हूँ। मामूली स्त्री हूँ' - यह कहकर चन्द्रसेना ने अपनी कहानी सुनाई। 

मगर उदयवर्मा ने बीच में आकर गुस्सा दिखाते हुए पूछा- 'कौन हो तुम! कोई भेदिया मालूम होते हो! मेरे साथ आओ। तुम्हें अपने पास रख कर तुम से हर काम करवाऊँगा।' 

'पहिले मुझे हराओ फिर मुझे गुलाम बनाना।' 

जयकेतु, अपनी तलवार निकाल कर उस पर कूदा, इतने में उदयवर्मा ने जादू का डंडा घुमाया और जयकेतु का उठा हाथ उठा ही रह गया।

'पिताजी, आप इस युवक पर क्यों यों गुस्सा करते हैं? उसने कुछ नहीं किया है। कुछ करेगा भी नहीं। इसके लिए मैं जिम्मेवार हूँ' - चन्द्रसेना ने अपने पिता से कहा। 

'लड़के का नाक नक्शा, रंग, रूप देखकर लगता है, भ्रम में पड़ गई हो। इस संसार में इससे भी बहुत सुन्दर बहुत से लोग हैं। तुम ये बातें नहीं जानते। जाने दो!' 

'इससे अधिक सुन्दर लोग हो सकते हैं, होंगे, पर मेरा उनसे क्या वास्ता ?' - चन्द्रसेना ने कहा।

असली बात तो यह थी कि प्रथम दर्शन में ही चन्द्रसेना को जयकेतु पर प्रेम हो गया था। 

होश सम्भालने के बाद उसने जो दूसरा आदमी देखा था, वह जयकेतु ही था। 

उसको देखने से पहिले चन्द्रसेना का ख्याल था कि सब लोग उसके पिता की तरह ही होते होंगे।

कठोर मुँह, बड़ी बड़ी दाढ़ी, आदि। 

इसलिए उसको जयकेतु ही कामदेव-सा दिखाई दिया।

जयकेतु ने कई सुन्दरियों को देखा था पर वह चन्द्रसेना को देखते ही उसपर मुग्ध हो गया। 

उतनी सुन्दर लड़की को उसने कहीं भी, कभी भी न देखा था। 

उदयवर्मा भी यही चाहता था कि वे दोनों एक दूसरे से प्रेम करें। 

परन्तु उसके प्रेम की परीक्षा करने के लिए अपनी मन्त्रशक्ति से उसको वश में करके, लकड़ो को इकट्ठा करने का कठिन काम दिया।

वह राजकुमार था, लाड़ प्यार से पाला पोसा गया था। 

इसलिए उसे यह काम बहुत भारी लगा। 

वह जल्दी जल्दी लकड़ इकट्ठे न कर सका।

 इतने में चन्द्रसेना ने उसके पास आकर कहा - 'ज्यादह तकलीफ न उठाओ, आराम से करो।'

'यह काम तो जल्दी जल्दी करने से भी खतम होता नहीं लगता, फिर धीमे धीमे काम करने से कैसे खतम होगा !' - जयकेतु ने कहा। 

'तुम थोड़ी देर आराम करो, मैं तुम्हारे बदले लकड़ इकट्ठे कर दूंगी' - चन्द्रसेना ने कहा।

चन्द्रसेना के आने से काम बिगड़ गया। 

दोनों बैठकर गप्पें मारने लगे। 

जयकेतु ने पहिले उसका नाम पूछा। 

यद्यपि पिता ने उसे रोका था तो भी उसने उसको अपना नाम बता दिया। 

फिर जयकेतु ने उससे कहा- 'मैं चालुक्य राजा का लड़का हूँ। पट्टाभिषेक होते ही मैं तुझे अपनी रानी बना लूँगा। मैने तुमसे अधिक सुन्दर स्त्री संसार में कहीं नहीं देखी है। '

'मैं सिवाय, तुम्हें और पिताजी के किसी को नहीं जानती हूँ। फिर भी मैं शादी, नहीं तुम्हारे सिवाय किसी और से करूँगी' - चन्द्रसेना ने कहा। 

इन दोनों का सम्भाषण, उदयवर्मा ने सुना। 

सुनकर वह खुश हुआ। 

उसने उनके सामने आकर कहा - ' मैं ने तुम्हारी बातें सुन ली हैं। डरो मत, मुझे विश्वास हो गया है कि तुम दोनों को आपस में एक दूसरे पर प्रेम है। इसलिये मैं तुम्हारे विवाह पर आपत्ति नहीं करूँगा।' 

वह यह कहकर चला गया। 

फिर उसने इल्वेलु को बुलाकर पूछा - 'मेरा भाई और जयपाल कहाँ हैं?'

'हुजूर, मैं ने अपनी माया से उनको खूब डरा दिया है। द्वीप में भटक भटक कर जब वे एक जगह बैठे और भूख से तड़पने लगे तो मैंने ऐसी माया की कि उनको सामने भोजन दिखाई देने लगा, पर जब उन्होंने खाने की कोशिश की तो वह गायब हो गया। मैं ने एक बड़े पक्षी के रूप में प्रत्यक्ष होकर कहा तुम पापी हो। बिचारे उदयवर्मा और उसकी नादान लड़की को समुद्र में फिंकवानेवाले दुष्टो!' - मेरे यह चिल्लाते ही दोनों जोर जोर से रोने लगे। वे पछतावा करने लगे। अब उनको और दण्ड देना ठीक नहीं है' इल्वेलु ने कहा।

उदयवर्मा ने हँसकर कहा - 'तुम जैसे हृदय हीन पिशाच को ही अगर उनपर दया आ गई तो क्या मैं हृदयवाला मनुष्य उन्हें सताऊँगा ! उन्हें तुरत यहाँ लाओ।' 

जयकेतु की तरह इल्वेलु का संगीत सुनकर, शूरवर्मा, जयपाल, धीरसिंह भी उस दिशा में चले, जहाँ उदयवर्मा था। 

पर उनमें से एक भी उन्हें न पहिचान सका।

उदयवर्मा ने धीरसिंह के पास जाकर उसको गले लगा लिया। 

उसने उसे यह भी बताया कि वह कौन था -  'तुम्हारी कृपा से ही मैं प्राण बचाकर यहाँ पहुँच सका।' 

यह पता चलते ही कि वह उदयवर्मा है शूरवर्मा और जयपाल ने उसके पैरों पर पड़कर उससे माफी माँगी।

'तुम शोक न करो। पश्चात्ताप हर पाप का निवारण कर देता है। इतने दिन जो मैं ने इस निर्जन वन में बिताये हैं, उनका भी फायदा होनेवाला है। मेरी लड़की तुम्हारे लड़के से शादी करने जा रही है' - उदयवर्मा ने जयपाल से कहा।

'मेरा लड़का ? क्या जयपाल मरा नहीं है! जीवित है? कहाँ है वह क्या भाग्य है !' - जयपाल ने आनन्दपूर्वक कहा। 

'आइये दिखाता हूँ।' - कहकर उदयवर्मा उनको अपनी गुफा में ले गया। 

वहाँ उसने शतरंज खेलते हुये चन्द्रसेना और जयकेतु को दिखाया।

अपने पिता को जीवित पाकर, जयकेतु बड़ा खुश हुआ।

'बहुत-से कष्ट दूर हो गये हैं। परन्तु इस निर्जन प्रदेश से घर वापिस जाने के लिए न जहाज रह गया है, न खलासी ही। यही एक कमी है।' - जयपाल ने कहा। 

'तुम्हारे जहाज को कोई हानि नहीं पहुँची है। खलासी भी उसमें हैं। जब तुम जाना चाहो तब जा सकते हो।' - उदयवर्मा ने कहा। 

'तो, चलो, सब मिलकर ही चलें। देर किस बात की है।' - जयपाल ने कहा। 

उदयवर्मा ने इल्वेल्य को छोड़ते हुये कहा - 'तुम अपने पिशाचों को लेकर जहाँ जाना चाहो वहाँ चले जाओ।' 

अपनी मन्त्र शास्त्र की पुस्तकों को उसी द्वीप में एक जगह गढ़ा खोदकर, उसमें रखकर, वह वहाँ से निकल पड़ा। थोड़े दिनों बाद वे अपने देश पहुँच गये। 

उदयवर्मा नागपुर का फिर राजा बन गया। 

उसके थोड़े दिनों बाद चालुक्य के राजसिंहासन पर जयकेतु बैठा। 

उसका चन्द्रसेना के साथ बड़े धूम-धाम से विवाह हुआ।

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