राजा दिलीप इक्ष्वाकु वंश के प्रसिद्ध राजा थे। इनके पुत्र थे रघु।
महादेव श्रीहरि की पूजा करते हैं और श्रीहरि महादेव की पूजा करते हैं।
भक्ति का विकास
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Click here to know more..वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि ।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ॥ १ ॥
अक्षरों, अर्थसमूहों, रसों, छन्दों और मङ्गलोंकी करनेवाली सरस्वतीजी और गणेशजीकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ १ ॥
भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम् ॥ २ ॥
श्रद्धा और विश्वासके स्वरूप श्रीपार्वतीजी और श्रीशंकरजीकी मैं वन्दना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरणमें स्थित ईश्वरको नहीं देख सकते ॥ २ ॥
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं गुरुं शङ्कररूपिणम् ।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ॥ ३ ॥
ज्ञानमय, नित्य, शंकररूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होनेसे ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है ॥ ३ ॥
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ विशुद्धविज्ञानौ ।
वन्दे कवीश्वरकपीश्वरौ ॥ ४ ॥
श्रीसीतारामजी के गुणसमूहरूपी पवित्र वन में विहार करनेवाले, विशुद्ध विज्ञानसम्पन्न कवीश्वर श्रीवाल्मीकिजी और कपीश्वर श्रीहनुमान्जी की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ४ ॥
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम् ।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम् ॥ ५ ॥
उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करनेवाली, क्लेशोंकी हरनेवाली तथा सम्पूर्ण कल्याणोंकी करनेवाली श्रीरामचन्द्रजीकी प्रियतमा श्रीसीताजीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ५ ॥
यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः ।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम् ॥ ६ ॥
जिनकी मायाके वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्तासे 'रस्सीमें सर्पके भ्रमकी भाँति यह सारा दृश्य-जगत् सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागरसे तरनेकी इच्छावालोंके लिये एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणोंसे पर (सब कारणोंके कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहानेवाले भगवान् हरिकी मैं वन्दना करता हूँ॥६॥
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि ।
स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति ॥७॥
अनेक पुराण, वेद और [ तन्त्र ] शास्त्रसे सम्मत तथा जो रामायणमें वर्णित है और कुछ अन्यत्रसे भी उपलब्ध श्रीरघुनाथजीकी कथाको तुलसीदास अपने अन्तःकरणके सुखके लिये अत्यन्त मनोहर भाषारचनामें विस्तृत करता है ॥ ७ ॥
सो० - जो सुमिरत सिधि होइ गननायक करिबर बदन ।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन ॥ १ ॥
जिन्हें स्मरण करनेसे सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणोंके स्वामी और सुन्दर हाथी के मुखवाले हैं, वे ही बुद्धिके राशि और शुभ गुणोंके धाम (श्रीगणेशजी) मुझपर कृपा करें ॥ १ ॥
मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन । जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन ॥ २ ॥
जिनकी कृपासे गूँगा बहुत सुन्दर बोलनेवाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़पर चढ़ जाता है, वे कलियुगके सब पापोंको जला डालनेवाले दयालु (भगवान्) मुझपर द्रवित हों (दया करें), ॥ २ ॥
नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन ।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन ॥ ३ ॥
जो नील कमलके समान श्यामवर्ण हैं, पूर्ण खिले हुए लाल कमलके समान जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीरसागरपर शयन करते हैं, वे भगवान् (नारायण) मेरे हृदय में निवास करें ॥ ३ ॥
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन ।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन ॥ ४ ॥
जिनका कुन्दके पुष्प और चन्द्रमाके समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजाक प्रियतम् और दयाके धाम हैं और जिनका दीनोंपर स्नेह है, वे कामदेवका मर्दन करनेवाले (शंकरजी) मुझपर कृपा करें ॥ ४ ॥
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि ।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर ।। ५ ।।
मैं उन गुरु महाराजके चरणकमलकी वन्दना करता हूँ, जो कृपाके समुद्र और नररूपमें श्रीहरि ही हैं और जिनके वचन महामोहरूपी घने अन्धकारके नाश करनेके लिये सूर्य किरणोंके समूह हैं ॥ ५ ॥
चौ० - बंदउँ गुरु पद पदुम परागा । सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ।।
अमिअ मूरिमय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारू ॥ १ ॥
मैं गुरु महाराजके. चरणकमलोंकी रजकी वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुन्दर स्वाद), सुगन्ध तथा अनुरागरूपी रससे पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुन्दर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भवरोगोंके परिवारको नाश करनेवाला है ॥ १ ॥
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती ॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी ॥ २ ॥
वह रज सुकृती (पुण्यवान् पुरुष) रूपी शिवजीके शरीरपर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुन्दर कल्याण और आनन्दकी जननी है, भक्तके मनरूपी सुन्दर दर्पणके मैलको दूर करनेवाली और तिलक करनेसे गुणोंके समूहको वशमें करनेवाली है ॥ २ ॥
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हियँ होती ॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू । बड़े भाग उर आवइ जासू ॥ ३ ॥
श्रीगुरु महाराजके चरण-नखोंकी ज्योति मणियोंके प्रकाशके समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदयमें दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश करनेवाला है; वह जिसके हृदयमें आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं ॥ ३ ॥
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुप्त प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥ ४ ॥
उसके हृदयमें आते ही हृदयके निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसाररूपी रात्रिके दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्रीरामचरित्ररूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खानमें है, सब दिखायी पड़ने लगते हैं - ॥ ४ ॥
दो० - जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ॥ १ ॥
जैसे सिद्धाञ्जनको नेत्रोंमें लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वीके अंदर कौतुकसे ही बहुत-सी खानें देखते हैं ॥ १ ॥
चौ० - गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन |
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन । बरनउँ राम चरित भव मोचन ।। १ ।।
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