महादेवजीने कहा-नागराज! तुमने जो कुछ कहा है, वह सब मेरे प्रसाद से निश्चय ही पूर्ण होगा। श्राद्धका दिन आनेपर तुम उसमें दिये हुए मध्यम पिण्डको शुद्ध एवं पवित्रचित्त होकर खा लेना। उसके खा लेने पर तुम्हारे मध्यम फण से कल्याणी मदालसा जैसे मरी है, उसी रूप में उत्पन्न होगी। तुम इसी कामना को मन में लेकर उस दिन पितरोंका तर्पण करना, इससे वह तत्काल ही तुम्हारे मध्यम फणसे प्रकट हो जाएगी।
यह सुनकर वे दोनों भाई महादेव जी के चरणों में प्रणाम करके बड़े सन्तोष के साथ पुनः रसातल में लौट आये। अश्वतर ने उसी प्रकार श्राद्ध किया और मध्यम पिण्डका विधिपूर्वक भोजन किया।
फिर जब उक्त मनोरथ को लेकर वे तर्पण करने लगे, उस समय उनके साँस लेते हुए मध्यम फण से सुन्दरी मदालसा तत्काल प्रकट हो गयी। नागराज ने यह रहस्य किसी को नहीं बताया। मदालसा को महल के भीतर गुप्तरूप से स्त्रियों के संरक्षण में रख दिया। इधर नागराज के पुत्र प्रतिदिन भूलोक में जाते और ऋतध्वज के साथ देवताओं की भाँति क्रीड़ा करते थे। एक दिन नागराज ने प्रसन्न होकर अपने पुत्रों से कहा- मैं ने पहले तुमलोगों को जो कार्य बताया था, उसे तुम क्यों नहीं करते? पुत्रो। राजकुमार ऋतध्वज हमारे उपकारी और सम्मानदाता हैं, फिर उनका भी उपकार करने के लिये तुम लोग उन्हें मेरे पास क्यों नहीं ले आते?
अपने स्नेही पिता के यों कहने पर वे दोनों मित्र के नगर में गये और कुछ बातचीत का प्रसङ्ग चलाकर उन्हों ने कुवलयाश्व को अपने घर चलने के लिये कहा। तब राजकुमार ने उन दोनों से कहा-सखे! यह घर भी तो आप ही दोनों का है। धन, वाहन, वस्त्र आदि जो कुछ भी मेरा है, वह सब आपका भी है। यदि आपका मुझपर प्रेम है तो आप धनरत्न आदि जो कुछ किसी को देना चाहें, यहाँसे लेकर दें। दुर्दैव नै मुझे आपके स्नेह से इतना वञ्चित कर दिया कि आप मेरे घर को अपना नहीं समझते । यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हों, अथवा यदि आपका मुझपर अनुग्रह हो तो मेरे धन और गृहको आप लोग अपना ही समझें। आपलोगोंका जो कुछ है, वह मेरा है और मेरा आपलोगों का है। आपलोग मेरे बाहरी प्राण हैं, इस बातको सत्य मानें। मैं अपने हृदय की शपथ दिलाकर कहता हूँ, आप मुझपर कृपा करके फिर ऐसी भेदभाव को सूचित करनेवाली बात कभी मुह से न निकालें।
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