शक्तिपीठोंके प्रादुर्भावकी कथा तथा उनका परिचय
भूतभावन भवानीपति भगवान् शंकर जिस प्रकार प्राणियों के कल्याणार्थ विभिन्न तीर्थों में पाषाणलिङ्गरूप में आविर्भूत हुए हैं, उसी प्रकार अनन्तकोटि ब्रह्माण्डात्मक प्रपञ्च की अधिष्ठानभूता, सच्चिदानन्दरूपा, करुणामयी भगवती भी लीलापूर्वक विभिन्न तीर्थों में भक्तों पर कृपा करने हेतु पाषाणरूप से शक्तिपीठों के रूपमें विराजमान हैं। ये शक्तिपीठ साधकों को सिद्धि और कल्याण प्रदान करनेवाले हैं। इनके प्रादुर्भाव की कथा पुण्यप्रद तथा अत्यन्त रोचक है।
पितामह ब्रह्माजी ने मानवीय सृष्टि का विस्तार करने के लिये अपने दक्षिणभाग से स्वायम्भुव मनु तथा वामभाग से शतरूपाको उत्पन्न किया। मनु-शतरूपा से दो पुत्रों और तीन कन्याओं की उत्पत्ति हुई, जिनमें सबसे छोटी प्रसूति का विवाह मनु ने प्रजापति दक्षसे किया, जो लोकपितामह ब्रह्माजी के मानसपुत्र थे। | ब्रह्माजी की प्रेरणा से प्रजापति दक्ष ने दिव्य सहस्र वर्षों तक तपस्या करके आद्या शक्ति जगज्जननी जगदम्बिका भगवती शिवा को प्रसन्न किया और उनसे अपने यहाँ पुत्रीरूप में जन्म लेने का वरदान माँगा। | भगवती शिवा ने कहा - प्रजापति दक्ष! पूर्वकाल में भगवान् सदाशिव ने मुझसे पत्नी के रूपमें प्राप्त होने की प्रार्थना की थी; अत: मैं तुम्हारी पुत्री के रूपमें अवतीर्ण होकर भगवान् शिव की भार्या बनूँगी, परंतु इस महान् तपस्या का पुण्य क्षीण होने पर जब आपके द्वारा मेरा और भगवान् सदाशिव का निरादर होगा तो मैं आप सहित सम्पूर्ण जगत्को विमोहित कर अपने धाम चली जाऊँगी।
कुछ समय पश्चात् प्रकृतिस्वरूपिणी भगवती पूर्णा ने दक्षपत्नी प्रसूति के गर्भ से जन्म लिया। वे करोड़ों चन्द्रमा के समान प्रकाशमान आभावाली और अष्टभुजा से सुशोभित थीं। वे कन्यारूप से बाल लीला कर माता प्रसूति और पिता दक्ष के मन को आनन्दित करने तथा उनकी तपस्या के पुण्यका फल उन्हें प्रदान करने लगीं। दक्षने कन्या का नाम सती रखा। सती वर्षा-ऋतु की मन्दाकिनी की भाँति बढ़ने लगीं। शरत्कालीन चन्द्रज्योत्स्ना के समान उनका रूप देखकर दक्ष के मन में उनका विवाह करने का विचार आया। शुभ समय देखकर उन्होंने स्वयंवर का आयोजन किया, जिस में भगवान् सदाशिव के अतिरिक्त सभी देव, दानव, यक्ष, गन्धर्व, ऋषि तथा मुनि उपस्थित थे। दक्ष मोहवश शिव के परमतत्त्व को न जानकर उन्हें श्मशानवासी भिक्षुक मानते हुए उनके प्रति निरादर का भाव रखते थे। इसके अतिरिक्त जब ब्रह्माजी ने रुद्रगणों की सृष्टि की थी तो वे अत्यन्त उग्र रुद्रगण सृष्टि का ही विनाश करनेपर तुल गये थे। यह देखकर ब्रह्माजी की आज्ञासे दक्ष ने उन सबको अपने अधीन किया था। अतः अज्ञानवश वे भगवान् सदाशिव को भी अपने अधीन ही समझते थे। इस कारण वे भगवान् सदाशिव को जामाता नहीं बनाना चाहते थे।
सती ने शिवविहीन स्वयंवर-सभा देखकर 'शिवाय नमः कहकर वरमाला भूमि को समर्पित कर दिया। उनके ऐसा करते ही दिव्य रूपधारी त्रिनेत्र वृषभध्वज भगवान् सदाशिव अन्तरिक्ष में प्रकट हो गये और वरमाला उनके गले में सुशोभित होने लगी। समस्त देवताओं, ऋषियों और मुनियों के देखते-देखते वे अन्तर्धान हो गये। यह देखकर वहाँ विराजमान ब्रह्माजी ने प्रजापति दक्ष से कहा कि आपकी पुत्री ने देवाधिदेव भगवान् शंकरका वरण किया है। अत: उन महेश्वर को बुलाकर वैवाहिक विधि-विधान से उन्हें अपनी पुत्री दे दीजिये। ब्रह्माजी का यह वचन सुनकर दक्षने भगवान् शंकर को बुलाकर उन्हें सती को सौंप दिया। भगवान् शिव भी सती का पाणिग्रहण कर उन्हें लेकर कैलास चले गये।
कल्पना के बिना की जानेवाली पूजा से कॊई लाभ नहीं होगा
अपने आप को शुद्ध करने के लिए वेद मंत्र
हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः । य....
Click here to know more..हनुमत् स्तव
कन्दर्पकोटिलावण्यं सर्वविद्याविशारदम्। उद्यदादित्यस....
Click here to know more..Please wait while the audio list loads..
Ganapathy
Shiva
Hanuman
Devi
Vishnu Sahasranama
Mahabharatam
Practical Wisdom
Yoga Vasishta
Vedas
Rituals
Rare Topics
Devi Mahatmyam
Glory of Venkatesha
Shani Mahatmya
Story of Sri Yantra
Rudram Explained
Atharva Sheersha
Sri Suktam
Kathopanishad
Ramayana
Mystique
Mantra Shastra
Bharat Matha
Bhagavatam
Astrology
Temples
Spiritual books
Purana Stories
Festivals
Sages and Saints