चैत्र महीने की शुक्ला प्रतिपदा को विक्रमीय सम्वत् का पहला दिन माना जाता है । इसीलिए इसे हिंदू नववर्ष या संवत्सरारम्भ कहते हैं । अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा गया है कि पृथ्वी के साथ संवत्सरों का चिर- सम्बन्ध है । प्रत्येक नववर्ष हमारे पिछले वर्ष के कार्यों का मूल्यांकन और अगले वर्ष के शुभ संकल्पों का द्योतक है ।
वेद तो माँ वसुंधरा का यशोगान करते हुए यहाँ तक कहते हैं कि हे पृथ्वी ! तुम्हारे ऊपर संवत्सर का नियमित ऋतुचक्र घूमता है । ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर और बसंत का विधान अपनी-अपनी निधियों को प्रतिवर्ष तुम्हारे चरणों में अर्पण करता है । प्रत्येक संवत्सर का लेखा असीम है । माँ वसुधरा की दैनिक चर्या तथा अपनी कहानी दिन-रात और ऋतुओं के द्वारा संवत्सर में आगे बढती चली जा रही है ।
उसी संवत्सर का प्रारम्भ इस शुभ चैत्र शुक्ला प्रतिपदा से होता है । प्राचीन युग की मान्यता के अनुसार प्रजापति ब्रह्मा की सृष्टि- रचना इसी दिन प्रारम्भ हुई थी। ब्रह्म पुराण में कहा गया है कि दूसरे सभी देवी-देवताओं ने आज से ही सृष्टि के संचालन का कार्यभार सम्भाला । अथर्ववेद में विधान है कि आज के दिन उसी संवत्सर की सुवर्ण - प्रतिमा बनाकर पूजनी चाहिए। यह संवस्मर ही तो साक्षात् सृष्टिकर्ता प्रजापति ब्रह्मा जी का मूर्तिमान प्रतीक है।
नववर्ष के दिन से रात्रि की अपेक्षा दिन का परिमाण वढने लगता है ।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवरात्रि का आरम्भ होता है । नवरात्रि का व्रत अनुष्ठान आदि आज की तिथि से आरम्भ करते हैं । संपूर्ण वर्ष हमारे तथा देश के लिए शुभ हो, इस मंगल कामना से शक्तिस्वरूपा भगवती की दुर्गा सप्तशती का पाठ प्रारम्भ करते हैं जो नौ दिन तक चलता है । वैष्णव लोग भी आज से रामायण आदि का पाठ प्रारम्भ करते हैं ।
वैदिक युग में समस्त नागरिक प्रात काल स्नान करके गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर विधिवत् संवत्सर का पूजन करते थे और परस्पर एक-दूसरे से मिलकर हरे भरे एवं सरसों के पीले फूलों के परिधान में लिपटे खेतों पर जाकर नई फसल का दर्शन करते थे । बाद में अपने- अपने घरों में आकर नई बनी हुई वेदी पर स्वच्छ वस्त्र बिछाकर उस पर हल्दी अथवा केसर से रंगे हुए अक्षत् का अष्टदल कमल बनाकर, उसके ऊपर नारियल या ब्रह्मा जी की सुवर्ण प्रतिमा रखकर 'ॐ ब्रह्मणे नम ' मंत्र से ब्रह्मा का आह्वान और पूजन करके गायत्री मंत्रो से हवन करते थे । अंत में सारा वर्ष कल्याणमय हो यह प्रार्थना करते थे ।
ॐ आरिक्षीणियम् वनस्पतियायाम् नमः । बहुतेन्द्रीयम् ब्रहत् ब्रहत् आनन्दीतम् नमः । पारवितम नमामी नमः । सूर्य चन्द्र नमायामि नमः । फुलजामिणी वनस्पतियायाम् नमः । आत्मानियामानि सद् सदु नमः । ब्रम्ह विषणु शिवम् नमः । पवित्र पावन जलम नमः । पवन आदि रघुनन्दम नमः । इति सिद्धम् ।
अनाहत चक्र में पिनाकधारी भगवान शिव विराजमान हैं। अनाहत चक्र की देवी है काकिनी जो हंसकला नाम से भी जानी जाती है।
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