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सफला एकादशी व्रत कथा

सफला एकादशी व्रत कथा

सफला एकादशी एक अद्भुत अवसर है जो पौष महीने के कृष्ण पक्ष में आता है। इस एकादशी के देवता भगवान नारायण हैं। जैसे शेषनाग नागों में, गरुड़ पक्षियों में, अश्वमेध यज्ञों में और गंगा नदियों में सर्वोच्च हैं, वैसे ही यह एकादशी सभी एकादशियों में विशेष है। इस दिन नारियल, आंवला, अनार, सुपारी, लौंग और मीठे पकवानों से भगवान की पूजा की जाती है। दीप जलाए जाते हैं और रात्रि जागरण का आयोजन होता है, जिससे जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।

महिष्मत नामक राजा की चम्पावती नामक पत्नी थी। राजा के चार पुत्र थे, जिनमें से ज्येष्ठ पुत्र लुयङ्क एक निंदनीय जीवन जी रहा था। वह अपने कुकर्मों के कारण परिवार और समाज से अलग हो गया। राजा ने उसे राज्य से निकाल दिया, जिससे वह वन में चला गया। लुयङ्क ने सोचा कि वह दिन में जंगल में रहेगा और रात को चोरी करेगा। इस जीवनशैली से वह जीता रहा।

एक बार सफला एकादशी के दिन, लुयङ्क को खाने के लिए कुछ भी नहीं मिला और उसके पास पहनने के लिए गर्म कपड़े भी नहीं थे। ठंड इतनी बढ़ गई कि वह कांपने लगा और रात भर एक पीपल के पेड़ के नीचे जागता रहा। सूरज उगने पर भी उसकी हालत नहीं सुधरी। दिन ढलने तक वह भोजन की तलाश में निकला, लेकिन कमजोरी के कारण उसे कुछ नहीं मिला। मजबूर होकर उसने पेड़ से गिरे कुछ फल बीन लिए और वहीं गिर पड़ा। शाम होते ही ठंड बढ़ गई, और उसने पीपल के पेड़ की जड़ पकड़कर रोना शुरू कर दिया, 'हे पिता, मेरा क्या होगा?'

भगवान नारायण ने देखा कि लुयङ्क ने अनजाने में ही सही, सफला एकादशी का व्रत, जागरण और पूजा कर ली है। उनकी कृपा से, लुयङ्क को निष्कंटक राज्य प्राप्त हुआ। सुबह होते ही उसके पास एक घोड़ा आ गया और उसके सामने खड़ा हो गया। तभी आकाशवाणी हुई, 'हे राजपुत्र, वासुदेव भगवान की कृपा से और सफला एकादशी के प्रताप से तुम्हें राज्य प्राप्त हो।' लुयङ्क की बुद्धि सुधर गई और वह अपने पिता के पास गया। पिता ने उसकी भक्ति देखकर उसे राज्य सौंप दिया। यह सब सफला एकादशी के अद्भुत प्रभाव का ही परिणाम था।

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