कर्णिका के मध्यवर्ती परमानन्दमय परमात्मा के सहित ऐकात्म्य करेगा और रेचनकाल में इस शक्ति को यथास्थान में लायेगा । रेचनकाल में और मन्त्र उच्चारण का प्रयोजन नहीं है।
इस प्रकार निःश्वास के साथ-साथ यथाशक्ति मन्त्र जप करके निःश्वास रोध करते हुए भावनाद्वारा कुण्डलिनी को एक बार सहस्रार में ले जावें और उसी क्षण ही मूलाधार में आवें। इस प्रकार बारम्बार करते करते सुषुम्नापथ से विद्युत्-सदृश दीर्घाकार तेज दिखायी देगा।
प्रत्यह इस प्रकार जप करने से साधक मन्त्र - सिद्धि प्राप्त कर सकता है- इसमें सन्देह नहीं है। न्यासादि न करके भी साधक दिवारात्र शयन में, गमन में, भोजन में और संसार का कार्य करते करते अजपा के साथ इष्टमन्त्र का जप कर सकेगा। जीवात्मा का देहत्याग के पूर्व मुहूर्त्त पर्यन्त यह अजपा परममन्त्र का जप होता ह है। अतएव मृत्युके समय ज्ञानपूर्वक सः के साथ इष्टमन्त्र का योग कर अन्तिम हं के साथ देहत्याग कर सकने पर शिवरूप में ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।
श्मशान और चिता-साधना
दीक्षा-ग्रहण करके साधक नित्य नैमित्तिक कर्म का अनुष्ठान करते-करते क्रमशः जब द्रढ़िष्ठ और कर्मिष्ठ हो जायेगा, तब काम्य- कर्म का अनुष्ठान करें। साधना के उच्च- उच्च स्तर पर अधिरोहण करेने के लिये तान्त्रिकगुरु के निकट अधिकारानुरूप संस्कार से संस्कृत होना होता है। नहीं तो साधनानुरूप फल पाना कठिन है। कलिकाल में तन्त्रोक्त काम्यकर्मों में वीर साधना श्रेष्ठ और सद्यः फलप्रद है। उसमें योगिनी, भैरवी, वैताल, चिता और शव-साधना सर्वोत्कृष्ट हैं। हम इस कल्प में अविद्या और उपविद्या की साधना-
प्रणाली का विवरण नहीं देंगे। महाविद्या की साधना ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है। अतएव श्मशान और चिता-साधना की प्रणाली को ही हम इस समय लिपिबद्ध करेंगे। पूर्णाभिषेक और क्रमदीक्षा ग्रहण करके वीरसाधना का अनुष्ठान करें।
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जो महाबलशाली, महाबुद्धिमान्, महासाहसी, सरलचित्त, दयाशील, सभी प्राणियों के हितकार्य में अनुरक्त है, वे ही इस कार्य के उपयुक्त पात्र हैं। इस साधनाकाल में साधक किसी प्रकार से भी नहीं होगा। हास्य-परिहास्य त्याग करें और किसी दिशा में अवलोकन न करके एकाग्रचित्त से साधना का अनुष्ठान करें।
अष्टम्याञ्च
चतुर्दश्यां
कृष्णपक्षे विशेषेण
पक्षयोरुभयोरपि । साधयेद्वीरसाधनम् ।।
- वीरतन्त्र
कृष्णपक्ष अथवा शुक्लपक्ष की अष्टमी, अथवा चतुर्दशी तिथि में वीर-साधना की जा सकती है, पर कृष्णपक्ष ही प्रशस्त है।
साधक सार्द्धप्रहर रात्रि बीतने पर श्मशान जाकर निर्दिष्ट चिता में मन्त्रध्यानपरायण होकर अपने हित साधनार्थ साधना का अनुष्ठान करेगा। सामिषान्न, गुड़, छाग, सुरा, खीर, पिष्टक नाना प्रकार के फल, नैवेद्य अपने अपने देवता की पूजा के विहित द्रव्य, इन सबको पहले से ही एकत्र कर साधक उन सब पदार्थों को श्मशान स्थान पर लाकर निर्भयचित्त से समानगुणशाली अस्त्रधारी बन्धुवर्ग के साथ साधनारम्भ करेगा। बलिद्रव्य सात पात्रों में रखकर उनके चार पात्रों को चार दिशाओं में और मध्य में तीन पात्रों को स्थापित कर मन्त्रपाठ सहित निवेदन करेगा। गुरुभ्रता अथवा सुव्रत ब्राह्मण को आत्मरक्षार्थ दूर पर उपवेशित कर रखेगा।
असंस्कृता चिता ग्राह्या न तु संस्कारसंस्कृता ।
चाण्डालादिषु संप्राप्ता केवलं शीघ्रसिद्धिदा ।।
क
- तन्त्रसार
साधनाकार्य में असंस्कृता चिता ही ग्रहणीया है; संस्कृता अर्थात् जलसेकादि द्वारा परिष्कृता चिता से साधना न करें। चाण्डालादि की चिता से शीघ्र फल प्राप्ति होती है।
वीर - साधनाधिकारी व्यक्ति शास्त्रोक्त विधान से चिता निर्देश पूर्वक अर्घ्य स्थापित कर स्वस्तिवाचन और उसके बाद ’ॐ अद्येत्यादि अमुक गोत्रः श्रीअमुकदेवशर्मा अमुकमन्त्रसिद्धिकामः श्मशानसाधनमहं करिष्ये ’...इस मन्त्र से संकल्प करें। उसके बाद साधक वस्त्रालंकार प्रभृति विविध विभूषणों से विभूषित होकर पूर्वाभिमुख से उपवेशनपूर्वक फट्कारान्त मूल मन्त्र से चितास्थान प्रोक्षण करें। उसके बाद गुरु के पादपद्म का ध्यान कर गणेश, बटुक, मातृकागण की पूजा करें। इसके बाद ‘फट्' इस मन्त्र से
योगिनी,
आत्मरक्षा करके-
ये चात्र संस्थिता देवा राक्षसाश्च भयानकाः । पिशाचाः सिद्धयो यक्षा गन्धर्वाप्सरसां गणाः ।। योगिन्यों मातरो भूताः सर्वाश्च खेचराः स्त्रियः । सिद्धिदाता भवन्त्वत्र तथा च मम रक्षकाः ।।
इस मन्त्र से प्रणाम कर साधक तीन अञ्जलि-पुष्प प्रदान करें। बाद में पूर्वदिशा में 'ॐ हूँ श्मशानाधिप इमं सामिषान्नबलिं गृह्ण गृह्न गृह्णापय गृह्णापय विघ्ननिवारणं कुरु सिद्धिं मम प्रयच्छ स्वाहा' इस मन्त्र से श्मशानाधिपति की पूजा और बलि प्रदान करें । दक्षिण दिशा में 'ॐ ह्रीं भैरव भयानक इमं सामिषान्न... स्वाहा।' (इमं सामिषान्न से स्वाहा पर्यन्त पूर्ववत् ) इस मन्त्र से भैरव की पूजा और बलि, पश्चिम दिशा में 'ॐ हूँ कालभैरव श्मशानाधिप इमं
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