'दैवाधीनं जगत् कृत्स्नम्' और 'पूर्वजन्मकृतं कर्म तद्दैवमिह कथ्यते' ये सिद्धांत कर्म और दैव के प्रभाव को स्पष्ट करते हैं। संसार को कर्मों के संचय का परिणाम माना गया है। जब तक ये संचयित कर्म बने रहते हैं, तब तक मोक्ष या परम सुख की प्राप्ति संभव नहीं है। चाहे कर्म पुण्यजनक हों या पापफलदायक, दोनों ही बंधन का कारण बनते हैं।
श्रुति में कहा गया है:
‘पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति।’
अर्थात, पुण्य और पाप दोनों से मुक्त होकर ही व्यक्ति शुद्ध होकर परम अवस्था को प्राप्त करता है।
इसी कारण दोनों प्रकार के कर्म - पुण्य और पाप - बंधनकारी माने गए हैं और त्याज्य बतलाए गए हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्मों के बंधन से मुक्त होना आवश्यक है।
उभयविध कर्मों (पुण्य और पाप) से मुक्ति प्राप्त करने के लिए विभिन्न योगों का प्रतिपादन किया गया है, जैसे:
हालांकि, ये सभी योग हर किसी के लिए सहज उपलब्ध नहीं हैं। इनकी साधना के लिए अनुशासन, समय और विशेष योग्यताएं आवश्यक होती हैं।
शरणागति योग (ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण) ही ऐसा मार्ग है जो सर्वकाल, सर्वदेश और सर्वजन के लिए सरल और सुलभ है। यह मार्ग किसी विशेष योग्यता या साधन की अपेक्षा नहीं करता। ईश्वर की कृपा और विश्वास के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति इस मार्ग का मुख्य आधार है।
शरणागति के दो प्रकार माने गए हैं:
इस प्रकार की शरणागति वह है जिसमें व्यक्ति तीव्र वेदना या संसार के क्लेशों से व्याकुल होकर भगवान की शरण लेता है।
यह शरणागति स्वेच्छा और गहन विवेक से प्रेरित होती है।
अन्य योग, जैसे ज्ञानयोग, कर्मयोग या हठ योग, स्वावलंबन पर आधारित होते हैं। इनमें साधक को यह विश्वास रहता है कि उसके प्रयासों (यज्ञ, दान, जप, तप) से भगवान प्रसन्न होंगे। इसे वानरी वृत्ति कहा गया है, जो इस बात पर निर्भर करती है कि साधक खुद को साधना में बनाए रखे। थोड़ी सी भूल होने पर साधना से पतन हो सकता है।
इसके विपरीत, शरणागतियोग पूरी तरह से भगवान की कृपा पर निर्भर करता है। शरणागत भक्त यह स्वीकार करता है कि उसके पास कोई शक्ति या साधन नहीं है जिससे वह ईश्वर को प्रसन्न कर सके। वह केवल भगवान के सौशील्य, वात्सल्य और दया पर विश्वास रखता है। यही समर्पण उसे अनायास ही भगवत्सान्निध्य (ईश्वर का सान्निध्य) प्रदान करता है।
अनादिकाल से संचित हुए अनेक जन्मों के कर्मों का कर्मों द्वारा पूर्णतः क्षय करना अत्यंत कठिन ही नहीं, बल्कि लगभग असाध्य है। यदि प्रत्येक जन्म के कर्मों का निराकरण करने के लिए एक-एक वर्ष भी दिया जाए, तो अनगिनत वर्षों तक इसी प्रकार साधन करते रहना होगा।
जैसा पहले बताया गया है, चाहे कर्म पुण्यजनक हो या पापजनक, दोनों ही बंधन का कारण बनते हैं। इसलिए, इनका पूर्ण क्षय करना कठिन है। वर्षों तक बिना किसी व्यवधान के इस प्रकार का साधन करना सामान्य व्यक्तियों के लिए लगभग असंभव है। यही कारण है कि कर्मों के क्षय के लिए ईश्वर की कृपा और शरणागति को सर्वोत्तम उपाय माना गया है।
अतः अन्य सभी उपायों का त्याग कर भक्त केवल प्रभु की कृपा को ही अपना एकमात्र सहारा मानते हैं। वे पूर्ण समर्पण और विनम्रता से प्रार्थना करते हैं:
‘हे नाथ! हे दयामय! मैं अकिञ्चन हूँ, मेरे पास कोई साधन नहीं है। मैं अनन्यगति हूँ, संसार के दुःखों से संतप्त हूँ। आप ही इस जगत के शरणदाता हैं, अतः मैं आपकी शरण में आया हूँ।’
इस प्रकार अनन्य भाव से भक्त प्रभु की शरणागति करते हैं। उनकी यह निःस्वार्थ और पूर्ण समर्पण वाली प्रार्थना भगवान को तुरंत स्वीकार्य होती है।
प्रभु स्वयं उनकी रक्षा का वचन देते हैं और अपने प्रतिज्ञा रूप वचनों से भक्त को आश्वस्त करते हैं:
‘शरणागत के रक्षक मैं हूँ। मेरी कृपा ही उसे संसार के बंधनों से मुक्त करेगी।’
यही कारण है कि शरणागति को मोक्ष का सबसे सरल और प्रभावी मार्ग माना गया है।
परम उदार और भक्तवत्सल भगवान श्रीरामचंद्र जी ने वाल्मीकि रामायण में अपनी अटल प्रतिज्ञा व्यक्त की है:
‘सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम॥
अर्थात, जो व्यक्ति केवल एक बार भी मेरे शरण में आकर यह कहे कि "मैं आपका हूँ," उसकी मैं सभी प्रकार के प्राणियों से रक्षा करता हूँ। यह मेरी अटूट प्रतिज्ञा है।
श्रीराम की यह प्रतिज्ञा शरणागत के प्रति उनकी करुणा और दयालुता को प्रकट करती है। इससे स्पष्ट होता है कि उनकी शरण में आने वाले को न केवल भयमुक्त किया जाता है, बल्कि उसे उनका पूर्ण संरक्षण भी प्राप्त होता है। यही उनकी भक्तवत्सलता और कृपालुता का प्रमाण है।
अतः एकमात्र भगवान् पर ही पूर्ण विश्वास करना चाहिए। उन्हीं को अपना स्वामी, रक्षक और उद्धारकर्ता मानना चाहिए। वे ही एकमात्र शरण देने योग्य हैं और सर्वथा वरेण्य हैं। उनके अलावा कोई भी इस दुःखसागर से पार लगाने वाला नहीं है। शरणागतियोग के अतिरिक्त कोई ऐसा सरल और सर्वसुलभ साधन नहीं है जो हमें इस संसार-सागर से मुक्त कर सके।
इसलिए, 'रक्षिष्यति'—यह विश्वास रखते हुए भगवान की शरण में जाना चाहिए। यही सच्चा कल्याण का मार्ग है। इसके अनेक उदाहरण हमें पुराणों में मिलते हैं।
द्रौपदी: जब तक वह अपने बल, बुद्धि या किसी अन्य पुरुषार्थ पर निर्भर रही, भगवान ने सहायता नहीं की। लेकिन जब उसने भगवान को ही अपना एकमात्र रक्षक मानकर अनन्य भाव से पुकारा, तब श्रीकृष्ण ने तुरंत उसकी रक्षा की।
गजेन्द्र: जब तक वह अपनी शक्ति पर भरोसा करता रहा, उसे मुक्ति नहीं मिली। लेकिन जैसे ही उसने भगवान को समर्पण किया, तुरंत उसकी रक्षा हुई।
अनन्य भाव से शरणागत होने की देरी मात्र है। एक बार जीव समर्पित हो जाए, तो उसके सारे दुख समाप्त हो जाते हैं। वह सुखस्वरूप बन जाता है, और उसका अंतःकरण निर्मल दर्पण की भांति शुद्ध हो जाता है।
शरणागत का अंतःकरण शुद्ध हो जाने पर उसकी इच्छाएँ भगवान की इच्छा के अनुरूप शीघ्र पूर्ण होती हैं।
जो सुख अन्य योगों से कठिन साधन द्वारा मिलता है, वही शरणागतियोग से सहज और अनायास प्राप्त हो जाता है। यह मार्ग सबसे सरल, शीघ्र फलदायक और सर्वजनसुलभ है।
महर्षि पतंजलि के योग शास्त्र में आठ अंग हैं- १.यम २. नियम ३. आसन ४. प्राणायाम ५. प्रत्याहार ६. धारण ७. ध्यान ८. समाधि।
हां। हनुमानजी अभी भी जीवित हैं। अधिकांश समय, वे गंधमादन पर्वत के शीर्ष पर तपस्या करते रहते हैं। श्रीराम जी का अवतार २४ वें त्रेतायुग में था। लगभग १.७५ करोड़ वर्ष बाद वर्तमान (२८वें) चतुर्युग के द्वापर युग में भीम उनसे तब मिले जब वे सौगंधिक के फूल लेने जा रहे थे। हनुमान जी आठ चिरंजीवियों में से एक हैं। वे इस कल्प के अंत तक रहेंगे जो २,३५,९१,४६,८७७ वर्ष दूर है।
परोपकाराय सतां विभूतयः
चंदन का वृक्ष अपने मूल में सांप को, अपने शिखर में पक्षियो....
Click here to know more..आशीर्वाद के लिए वास्तु पुरुष मंत्र
वां वास्तुपुरुषाय नमः ।....
Click here to know more..राम नमस्कार स्तोत्र
तिरश्चामपि राजेति समवायं समीयुषाम्। यथा सुग्रीवमुख्या....
Click here to know more..Astrology
Atharva Sheersha
Bhagavad Gita
Bhagavatam
Bharat Matha
Devi
Devi Mahatmyam
Festivals
Ganapathy
Glory of Venkatesha
Hanuman
Kathopanishad
Mahabharatam
Mantra Shastra
Mystique
Practical Wisdom
Purana Stories
Radhe Radhe
Ramayana
Rare Topics
Rituals
Rudram Explained
Sages and Saints
Shiva
Spiritual books
Sri Suktam
Story of Sri Yantra
Temples
Vedas
Vishnu Sahasranama
Yoga Vasishta