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शकुंतला और दुष्यंत की कहानी एक महिला के स्वाभिमान और अपने अधिकारों के लिए लड़ने के साहस की प्रेरक कहानी है। भारत के सबसे महान और सबसे प्रिय शासकों में से एक, राजा भरत के जन्म के पीछे की आकर्षक कहानी के बारे में जानें। ऊपर दिया हुआ ऑडियो सुनिए।
शकुंतला और राजा दुष्यंत की कहानी महाभारत में सम्भव पर्व के अन्तर्गत है।
इस कहानी को महाभारत में स्थान क्यों दिया है?
क्यों कि यह राजा भरत के जन्म की कहानी है।
जनमेजय ने वैशम्पायन से कुरु वंश की उत्पत्ति के बारे में पूछा, और वैशम्पायन ने उन्हें शकुंतला की कहानी सुनाई।
पुरु वंशज राजा दुष्यंत बडे पराक्रमी राजा थे।
वे संपूर्ण पृथ्वी और समुद्र पर भी शासन करते थे।
उनके राज्य में कोई पापी नहीं था।
सारे जन धर्म में निष्ठा रखते थे।
जरूरतों के लिए सबके पास आवश्यक धन भी होता था।
चोर और अपराधी नहीं थे।
भुखमरी और बीमारियां नहीं थी।
समय पर वर्षा होती थी और भूमि फसलों से समृद्ध थी।
देश भर में हर कोई दुष्यंत के शासन से खुश था।
एक दिन राजा दुष्यंत शिकार के लिए वन में गए।
शिकार करते करते उन्होंने मालिनी नदी के तट पर स्थित महर्षि कण्व का मनोहारी आश्रम देखा।
सेना को बाहर छोडकर राजा ने मंत्रियों और पुरोहितों के साथ आश्रम में प्रवेश किया।
आगे चलते चलते राजा ने मंत्रि-पुरोहितों को भी पीछे छोड दिया।
वहां कोई दिखाई न देने पर राजा ने आवाज दी - कौन है यहां?
उनकी आवाज सुनकर लक्ष्मी के समान एक रूपवती कन्या तापसी के वेश में प्रकट हुई।
उसने राजा को आदरपूर्वक स्वागत किया और उनके आगमन के उद्देश्य के बारे में प्रश्न किया।
राजा ने कहा - मैं यहाँ महाभाग कण्व का दर्शन पाने आया हूँ। कृपया मुझे बताओ, वे अब कहाँ है?
यह कन्या थी शकुंतला, ।
शकुंतला ने बताया कि महर्षि फल लाने जंगल गये हैं और थोडे ही समय में लौट आयेंगे।
राजा ने शकुंतला से पूछा - हे सुंदरी! तुम कौन हो? इस जंगल में क्या कर रही हो?
तुम्हारे बारे में मुझे बताओ।
शकुंतला बोली - राजन्! मैं कण्व की पुत्री के रूप में जानी जाती हूँ।
राजा ने कहा, महाभाग कण्व तो कठोरव्रती हैं। वे ब्रह्मचर्य से कभी चलित नहीं हो सकते। तुम उनकी पुत्री कैसे हो सकती हो ?
मुझे विश्वास् नहीं हो रहा है।
शकुंतला ने बताया - मैंने जैसा सुना है, आपको बताती हूं ।
भगवान कण्व से ही मैं ने यह बात सुनी है ।
महर्षि विश्वामित्र तपस्या कर रहे थे।
इंद्र को चिंता हुई कि विश्वामित्र की तपस्या उनके शासन को खतरे में डाल देगी।
इसलिए इन्द्र ने उनका ध्यान भटकाने के लिए मेनका को भेजा।
मेनका सोचने लगी - विश्वामित्र महाक्रोधी और महातपस्वी हैं।
मेनका ने इन्द से कहा - आप कामदेव को मेरे साथ भेज दीजिए । वह सही वातावरण बनाएगा और मैं आपका काम कर दूंगी।
वैसा ही हुआ।
विश्वामित्र की तपस्या का भंग हुआ।
विश्वामित्र मेनका के साथ रहकर रमण करने लगे।
मेनका ने एक लडकी को जन्म दिया।
वह उस लडकी को मालिनी नदी के किनारे छोडकर चली गयी।
उस लडकी की शकुन्तों ने, पक्षियों ने रक्षा की थी।
कण्व महर्षि को वह लडकी मिल गयी।
उन्होंने उस लडकी को अपने आश्रम में लाकर अपनी ही पुत्री की तरह पाला।
शकुन्तों के बीच में से मिला, इसलिए शकुंतला नाम रखा।
शकुंतला बोली - मैं महर्षि कण्व को ही अपने पिता मानती हूं।
दुष्यंत बोले - मेरी रानी बन जाओ।
मेरा सारा राज्य तुम्हारे कदमों में रख दूंगा।
क्या तुम मुझसे गंधर्व विवाह करोगी?
इसे सबसे उत्तम विवाह कहा गया है।
सकाम पुरुष के साथ सकामा स्त्री का एकान्त में मंत्रों के बिना जो संबन्ध होता है, उसे गंधर्व विवाह कहते हैं।
शकुंतला बोली - पिताजी के लौटने तक रुक जाइए। वे ही मुझे आपको कन्यादान के रूप में प्रदान करेंगे।
तुम मुझे पसन्द हो, मैं तुम्हें पसन्द हूंं, अब किसी के इन्तजार की आवश्यकता नहीं है।
आत्मा ही आत्मा का बन्धु है, आत्मा ही आत्मा की गति है, तुम अपने आप अपना दान कर सकती हो।
यह धर्म के अनुकूल है।
शकुंतला ने कहा - ठीक है, मेरी एक शर्त है । आपको शपथ लेनी होगी कि मेरा पुत्र ही आपके बाद राजा बनेगा।
दुष्यंत ने बिना कुछ सोचे समझे कहा कि वैसे ही होगा।
उन दोनों का गान्धर्व विवाह वहीं उसी समय संपन्न हुआ।
दुष्यंत ने कहा - मैं तुम्हें ले जाने राजोचित चतुरंगिणी सेना भेजूंगा।
ऐसा कहकर राजा दुष्यंत अपनी नगर की ओर चले गये।
कण्व महर्षि लौट आये।
अपनी दिव्य दृष्टि से उन्हें सब पता चल गया।
उन्होंने कहा - चिंता मत करो। तुमने कोई अपराध नहीं किया है।
विश्वामित्र की पुत्री होने के कारण तुम क्षत्रिय वर्ण की हो।
क्षत्रियों के लिए गंधर्व विवाह धर्म के विरुद्ध नहीं है।
वैसे भी राजा दुष्यंत बडा धर्मात्मा और महात्मा हैं।
तुमने अपने लिए सही पति चुना है।
तुम दोनों का पुत्र चक्रवर्ती बनेगा।
दुष्यंत के चले जाने के बाद समय आने पर भरत का जन्म हुआ।
उनका जन्म नाम सर्वदमन रखा गया।
जब भरत नौजवान हुए तो कण्व ने शकुंतला से कहा कि अब इसका युवराज बनने का समय आ गया है।
इसे अपने पिता के पास ले चलो।
उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि वे शकुंतला को जल्द से जल्द उनके पति से मिलने ले जाएं ।
शकुंतला हस्तिनापुर में राजा दुष्यंत के सामने पहुंची।
और बोली - राजन्, यह आपका पुत्र है।
जैसे आपने वादा किया था, इसे युवराज के पद पर अभिषेक कीजिए।
दुष्यंत ने कहा - हे दुष्ट स्त्री, मेरा तुम्हारे साथ कोई संबन्ध नहीं है।
यह सुनकर शकुंतला दुःख और क्रोध से कांपने लगी।
उसके नेत्र लाल हो गये।
उसने अपने क्रोध को दबाते हुए राजा की ओर देखा और कहा - राजन्, आप धर्मात्मा हैं, सब कुछ जानते जानते हुए भी आप एक साधारण आदमी की तरह बात क्यों कर रहे हैं?
आपका हृदय जानता होगा कि क्या सच है और क्या झूठ।
सच को जानते हुए भी ऐसा करना पाप है।
क्या आपका अन्तःकरण नहीं जानता कि मैं कौन हूंं?
मैं पतिव्रता हूं।
मैं आपके पास चली आई हूं, इसलिए मेरा अपमान मत करो।
अगर आप मेरे सत्य वचन को नहीं मानोगे तो आपका सिर सौ टुकडे हो जायेंगे।
आज इस भरी सभा में आप मेरा अपमान कर रहे हो।
पत्नी पति का आधा भाग है, मित्र है।
पत्नी धर्म, अर्थ और काम का मूल है।
पत्नी के अभाव में कोई धर्म का आचरण नहीं कर पाएगा।
साथ में पत्नी हो तो मनुष्य को घने जंगल में भी आराम मिलता है।
दुःख में पत्नी माता है।
धर्म में पत्नी पिता जैसे मार्गदर्शन देती है।
पत्नी को सम्मान और आदर देना चाहिए।
मेरी ही नहीं, आप अपने पुत्र की भी अवहेलना कर रहे हो।
आत्मा ही पुत्र के रूप में जन्म लेता है।
पुत्र दर्पण में प्रतिबिम्बित आत्मा के समान है।
पति पत्नी के शरीर द्वारा पुत्र के रूप में पुनर्जन्म लेता है।
इसके जन्म के समय आकाशवाणी हुई थी यह सौ अश्वमेधों को करनेवाला होगा।
जन्म लेते ही मेरी मां ने मुझे त्याग दिया।
आज आप भी मेरा त्याग कर रहो हो।
मैं ने पूर्व जन्म में ऐसा कौन सा पाप किया है?
मैं तो लौट जाऊंगी, पर कम से कम अपने पुत्र को अपने पास रख लीजिए।
दुष्यंत बोले - मुझे भरोसा नहीं है कि यह मेरा पुत्र है।
मुझे सब कुछ झूठ लगता है।
मेरी तुम्हारी कुछ जान-पहचान नहीं है।
यहां से निकल जाओ।
दुष्यंत के निर्दयी शब्दों को सुनकर, शकुंतला के भीतर निहित स्वाभिमान जाग उठा ।
उसने कहा - कहां आप साधारण मानव और कहां मैं?
मेरी मां देवताओं के बीच सम्मानित है।
मैं आकाश में उडती हूं और आप भूमि पर रेंगते हो।
सरसों और सुमेरु की तरह है आपके और मेरे बीच का अंतर।
इन्द्र, कुबेर, यम, वरुण, इनके घरों में मेरा आना-जाना है।
इतना मेरा प्रभाव है।
इस बालक के तेज को देखने के बाद भी अगर आपको समझ में नहीं आता है कि यह आपका ही पुत्र हो सकता है तो आपसे बडा मूर्ख और कोई नहीं है।
जब कि आप उसकी भी निंदा करते जा रहे हो।
ऐसे लोगों के ऐश्वर्य को देवता लोग हर लेते हैं।
पुत्र की तुलना उस नाव से है जो पितरों को सद्गति की और ले जाती है।
है राजन्, सत्य और राजधर्म का पालन करो, कपट करना राजाओं के लिए उचित नहीं है।
जो सच का अटूट पालन करता है, वह सहस्र अश्वमेध यज्ञों को करनेवाले से श्रेष्ठ है।
सत्य का पालन सर्वोपरि है, क्योंकि सत्य ही परब्रह्म है।
लेकिन अगर आप झूठ बोलते रहना ही पसन्द करते हैं तो आज के बाद मेरा आपके साथ कुछ लेना देना नहीं होगा।
मैं जा रही हूं।
पर, याद रखना, यह हमारा पुत्र आपके बिना भी समस्त पृथिवी पर राज करेगा।
इतने में एक आकाशवाणी सुनाई दी -
हे दुष्यंत, शकुंतला सच कह रही है। वह तुम्हारी ही पत्नी है और पवित्र है। यह बालक तुम दोनों के गन्धर्व विवाह से उत्पन्न तुम्हारा ही पुत्र है। इसे स्वीकार करो और इसका भरण पोषण करो। यह देवताओं का आदेश है। तुम्हारे द्वारा भरण किये जाने से यह भरत नाम से प्रसिद्ध होगा।
तब दुष्यंत ने कहा - सब लोग सुन लीजिए। मैं पहले सी ही जानता था कि यह मेरा ही पुत्र है। पर, सिर्फ शकुंतला के कहने पर मैं इसे स्वीकार करता तो भविष्य में लोग इसकी पवित्रता को लेकर संदेह करेंगे। अब इस देव वाणी से मेरी पत्नी और पुत्र दोनों की विशुद्धता स्थापित हो चुकी है।
और वे शकुंतला से बोले - देवी, हमारा मिलन एकांत में हुआ था। हमारे संबन्ध को वैध साबित करने के लिए मुझे यह कठोर कदम उठाना पडा।
इस प्रकार भरत हस्तिनापुर के युवराजा बने और समस्त पृथिवी के शासकों को हराकर संपूर्ण पृथिवी को अपने वश में किये।
उनके वंशज भारत कहलाने लगे।
उनकी कहानी महाभारत नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इस कहानी में और कालिदास जी के अभिज्ञानशाकुन्तलम् की कहानी में कुछ फरक दिखाई से रहा होगा।
कालिदास जी के लिए भी मूल कहानी यही महाभारत का शकुन्तलोपाख्यानम् है।
पर इस में कल्पना लगाकर कालिदास जी ने इसका विस्तार किया है।
महाभारत में सचमुच दुष्यंत को विस्मृति नहीं हुई है।
वे सिर्फ विस्मृति का नाटक करते हैं।
इसमें दुर्वासा जी के श्राप का भी कोई भूमिका नहीं हैं।
व्यास जी का उद्देश्य धर्म का स्पष्टीकरण है, हर कहानी में।
यहां देखिए, पति का धर्म, परिवार में स्त्री का स्थान और शक्ति, स्त्री का स्वाभिमान, पिता और पुत्र का संबन्ध, राज धर्म और पति धर्म का संतुलन, इन सब में ही व्यास जी जोर देते हैं।
यही महाभारत का उद्देश्य है।
कुछ सामान्य प्रश्न
दुष्यंत के साथ शकुंतला का विवाह गंधर्व विवाह की विधि से हुआ था। यह क्षत्रियों के लिए स्वीकार्य विधि है। एकांत में सकाम पुरुष और सकामा स्त्री के समागम को गंधर्व विवाह कहते हैं।
विश्वामित्र की तपस्या को भंग करने इन्द्र ने मेनका को भेजा। तपस्या भंग होने पर विश्वामित्र मेनका के साथ रहकर रमण करने लगे। शकुंतला उन दोनों की पुत्री है। जन्म होते ही मेनका उसे मालिनी नदी के तट पर छोडकर चली गयी। महर्षि कण्व ने उसे पाल पोसकर बडा लिया।
शकुंतला हस्तिनापुर के राजा, पाण्डवों और कौरवों के पूर्वज राजा दुष्यंत की पत्नी है।
शकुंतला की कहानी द्वारा व्यास जी धर्म से संबन्धित कई स्पष्टीकरण करते हैं । पत्नी पति का अर्ध भाग और मित्र है। पत्नी के बिना वैदिक धर्म का आचरण नहीं हो सकता। दुःख में पत्नी अपने पति को माता जैसे सान्तना देती है। पुत्र पिता का ही पुनर्जन्म है। सत्य ही परब्रह्म है। पतिव्रता स्त्रियों को मदद करने देवता भी आते हैं।
शकुंतला एक स्वाभिमानी महिला थी, जिन्हें दुष्यंत से अस्वीकृति का सामना करना पड़ा, फिर भी उन्होंने मजबूत और दृढ़ रहना चुना। वह अपनी चोट और निराशा पर काबू पाने और जीवन में अपना रास्ता खोजने में सक्षम थी। शकुंतला की कहानी लचीलापन, साहस और शक्ति की प्रेरक कहानी है। यह एक अनुस्मारक के रूप में कार्य करता है कि जीवन कितना भी कठिन क्यों न लगे, हम हमेशा सकारात्मक रहना और आगे बढ़ते रहना चुन सकते हैं।
दुर्वासा महर्षि द्वारा शकुंतला को श्राप का उल्लेख अभिज्ञानशाकुन्तलम् में मिलता है। जब दुर्वासा जी कण्वाश्रम में आये तो शकुंतला दुष्यंत के सोच में मग्न थी। महर्षि का आना उसे पता भी नहीं चला। महर्षि कुपित हो गये। महर्षि ने श्राप दिया कि अब तुमे जिसके बारे में सोच रही हो, वह तुम्हें भूल जाएगा।
महाभारत में शकुंतला राजा भरत की मां और दुष्यंत की पत्नी थी। राजा भरत पाण्डवों और कौरवों के पूर्वज महान राजा थे जिनसे भारतवर्ष ने अपना नाम पाया। शकुंतला का जन्म ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका के समागम से हुआ था।
महाभारत के मूल कथा के अनुसार दुष्यंत शकुंतला को छोडने का नाटक ही कर रहे थे। उन्होंने सोचा कि सिर्फ शकुंतला के कहने पर भरत को अपना पुत्र मान लेते तो लोग उसकी वैधता पर सन्देह करेंगे। भरत को हस्तिनापुर के भविष्य राजा बनाना था। इसलिए दुष्यंत ने किसी चमत्कार की इंतजार में शकुंतला को छोडने का नाटक किया।
अभिज्ञानशाकुन्तलम् के अनुसार शकुंतला से गंधर्व विवाह करके दुष्यंत कण्वाश्रम से वापस जा रहे थे। उस समय दुष्यंत ने वादा किया कि वे उसे अपनी रानी बनाएंगे। पहचान के लिए उन्होंने शकुंतला को अपनी अंगूठी दी थी। वही अंगूठी शकुंतला के हाथ से नदी में खो गयी थी।
शकुंतला का पालन-पोषण महर्षि कण्व ने किया।
राजा भरत पाडवों के पूर्वज थे। शकुंतला उनकी मां थी।
संस्कृत में शकुंत का अर्थ है पक्षी। जन्म होते ही शकुंतला को उसकी मां मेनका नदी के तट पर छोडकर चली गयी। उस समय पक्षियों ने उसकी रक्षा की थी। कण्व महर्षि को शकुंतला पक्षियों के बीच में से मिली थी। इसलिए उन्होंने उसका नाम शकुंतला रखा।
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