Jaya Durga Homa for Success - 22, January

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विदुर

Vidur

धर्म का सरल-से-सरल और गहन-से-गहन अर्थ है सबका कल्याण । ऐसा कोई व्यक्ति नहीं, ऐसी कोई वस्तु नहीं, जिसके अन्तस्तल में धर्म न रहता हो और अवसर आने पर जिससे सबका कल्याण हो, ऐसे काम के लिये प्रेरणा न करता हो । पाण्डवों में तो युधिष्ठिरके रूपमें धर्मराज थे ही, कौरवोंमें भी विदुर के रूपमें धर्मराज थे । अन्तर इतना ही था कि पाण्डवों में धर्म राजा थे । उनके आज्ञानुसार सब कार्य होते थे और कौरवों में वे केवल एक सलाहकार के रूप में थे । जैसे पाप की प्रवृत्ति होने के समय अन्तरात्मा कह देती है कि यह पाप है, मत करो, परन्तु पापी लोग उस आवाज को नहीं सुनते या सुनकर भी अनसुनी कर देते हैं, वैसे ही कौरवों को अन्यायकी ओर प्रवृत्त देखकर विदुर स्पष्ट कह देते थे कि यह अन्याय है इसे मत करो । परंतु वे विदुर की बात पर ध्यान नहीं देते थे, उनकी उपेक्षा कर देते थे । विदुर जीवन में हम स्थान-स्थान पर यही बात देखेंगे, वे किसी का अनिष्ट नहीं चाहते, सबका कल्याण चाहते हैं ।

विदुर कौरवोंको तो सलाह देते ही थे, समय आनेपर पाण्डवोंको भी उचित सलाह देते थे और उनपर किसी आपत्ति की, विपत्ति की सम्भावना होती तो पहले से ही सूचित कर देते, यदि वे हो जाते तो उन्हें समझाते, उन्हें धैर्य बँधाते । इन बातोंसे महाभारत के अनेकों अंश भरे पड़े हैं । यहाँ तो केवल कुछ अंशों की संक्षेपमें चर्चामात्र की जायगी ।

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वेदधारा की समाज के प्रति सेवा सराहनीय है 🌟🙏🙏 - दीपांश पाल

हार्दिक आभार। -प्रमोद कुमार शर्मा

वेदधारा के प्रयासों के लिए दिल से धन्यवाद 💖 -Siddharth Bodke

वेद पाठशालाओं और गौशालाओं के लिए आप जो कार्य कर रहे हैं उसे देखकर प्रसन्नता हुई। यह सभी के लिए प्रेरणा है....🙏🙏🙏🙏 -वर्षिणी

वेदधारा की सेवा समाज के लिए अद्वितीय है 🙏 -योगेश प्रजापति

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पराशर महर्षि का जन्म कैसे हुआ?

पराशर महर्षि के पिता थे शक्ति और उनकी माता थी अदृश्यन्ती। शक्ति वशिष्ठ के पुत्र थे। वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच चल रहे झगड़े में, एक बार विश्वामित्र ने कल्माषपाद नामक एक राजा को राक्षस बनाया। कल्माषपाद ने शक्ति सहित वशिष्ठ के सभी सौ पुत्रों को खा लिया। उस समय अदृश्यन्ती पहले से ही गर्भवती थी। उन्होंने पराशर महर्षि को वशिष्ठ के आश्रम में जन्म दिया।

भगवान कृष्ण का दिव्य निकास: महाप्रस्थान की व्याख्या

भगवान कृष्ण के प्रस्थान, जिसे महाप्रस्थान के नाम से जाना जाता है, का वर्णन महाभारत में किया गया है। पृथ्वी पर अपने दिव्य कार्य को पूरा करने के बाद - पांडवों का मार्गदर्शन करना और भगवद गीता प्रदान करना - कृष्ण जाने के लिए तैयार हुए। वह एक पेड़ के नीचे ध्यान कर रहे थे तभी एक शिकारी ने गलती से उनके पैर को हिरण समझकर उन पर तीर चला दिया। अपनी गलती का एहसास करते हुए, शिकारी कृष्ण के पास गया, जिन्होंने उसे आश्वस्त किया और घाव स्वीकार कर लिया। कृष्ण ने शास्त्रीय भविष्यवाणियों को पूरा करने के लिए अपने सांसारिक जीवन को समाप्त करने के लिए यह तरीका चुना। तीर के घाव को स्वीकार करके, उन्होंने दुनिया की खामियों और घटनाओं को स्वीकार करने का प्रदर्शन किया। उनके प्रस्थान ने वैराग्य की शिक्षाओं और भौतिक शरीर की नश्वरता पर प्रकाश डाला, यह दर्शाते हुए कि आत्मा ही शाश्वत है। इसके अतिरिक्त, शिकारी की गलती पर कृष्ण की प्रतिक्रिया ने उनकी करुणा, क्षमा और दैवीय कृपा को प्रदर्शित किया। इस निकास ने उनके कार्य के पूरा होने और उनके दिव्य निवास, वैकुंठ में उनकी वापसी को चिह्नित किया।

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