परमात्मा शरीर रहित हैं।
परमात्मा व्रण रहित, नाड़ी नसों के बंधनों से रहित, शुद्ध और पाप रहित हैं।
श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण को परस्त्री गमन और चोरी करते हुए दिखाया है।
उदाहरण के लिए स्कं. १०, अ. ३० पूर्वार्द्ध में बताया है -
उसी मनोहर यमुना तट में जाकर, बाहु लिपटना, गले लगाना, करअलक, जंघ्रा, नीवी ( कमर के कपड़े की गांठ) और स्तनों को छूना, हंसी, मसखरी, नक्षच्छद देना, क्रीड़ा, कटाक्ष, और मन्द मुसकान, इत्यादि से कामोद्दीपन करते हुए श्री कृष्णचन्द्र गोपियों के साथ रमण करने लगे ।
आगे ३४वां अध्याय में परीक्षित शुकदेव से पूछते हैं -
धर्म की स्थापना और अधर्म के मिटाने ही के लिये पृथ्वी पर जगदीश्वर का यह अंशावतार हुआ है ।
धर्म की मर्यादाओं को बनाने वाले रक्षक और उपदेशक होकर उन्हों ने यह परनारी गमन रूप विरुद्ध आचरण क्यों किया ?
आप्तकाम अर्थात् भोग वासना रहित पूर्ण काम यदुपति ने यह निन्दित कर्म किस अभिप्राय से किया है?
हमें यह बंड़ाभारी संशय है कृपा करके इस संदेह को दूर करिये।
गीता में भगवान ने स्वयं कहा है -
मेरे आचार के अनुसार वर्तने वाले शिष्ट लोग मेरे अनुसार ही शास्त्रीय कर्म न करने से नष्ट हो जायेंगे और शास्त्रीय आचार का पालन न करने से सब शिष्ट जनों का संकर कर्त्ता मैं होऊंगा ।
उनको यह भय था कि यदि मैं ही कुलोचित शास्त्रीय कर्म न करूं तो संसार के मनुष्य भी कुलोचित शास्त्रीय कर्म न करके नष्ट हो जायेंगे।
जब वसुदेव तथा उनके पूर्वजों ने दूसरे की पत्नियों से कभी रहस्य लीला नहीं की तब श्री कृष्णजी कुलाचार विरुद्ध परस्त्रियों के साथ रहस्य लीला कैसे कर सकते हैं?
श्रीमद्भागवत के मतानुसार यदि श्रीकृष्ण साक्षात् परमात्मा ही थे तो उनका साक्षात्कार कर गोपियों की काम वासना नष्ट हो जानी चाहिये थी।
परन्तु भागवतकार ने इसके विपरीत यह लिखा है कि श्रीकृष्ण जी ने स्वयं रहस्य की चेष्टाओं से उनकी काम वासनाओं को उत्तेजित किया और गोपियों की कामवासना भी उत्तेजित हो गई।
श्रीकृष्ण जी की रासलीला कर्म वेद और भगवद्गीता के भी विरुद्ध है।
आप उसे वेदानुकूल कैसे मान सकते हैं ?
सबसे पहले यह समझना चाहिए कि अवतारी शरीर किस प्रकार का होता है।
अवतारी शरीर स्वयंभू होता है।
उसे ईश्वर ही स्वयमेव आत्ममाया द्वारा उत्पन्न करते हैं।
उसमें स्थूल शरीर में वर्तमान व्रण और नाड़ी समूह नहीं होते हैं।
वह मनुष्यों के पांच-भौतिक स्थूल शरीरों जैसे विकारयुक्त नहीं होता।
उसके लिए संसार का कोई भी कार्य पुण्य और पाप रूप से बंधन का कारण नहीं हो सकता ।
गीता में बताया है -
हे अर्जुन! मैं (कृष्ण) अज और अव्ययात्मा तथा सब भूतों का ईश्वर भी हूं तथापि अपनी प्रकृति-स्वभाविक सामर्थ्य को आश्रय कर अपने संकल्प से उत्पन्न होता हूं।
हे धनंजय ! मुझे वे कर्म बान्ध नहीं सकते।
अज्ञानी पुरुष मुझे भी शरीरधारी देख कर साधारण मनुष्यों की भान्ति कर्मबद्ध समझा करते हैं ।
मैं सब कर्म करता हुआ भो तद्बन्धनमुक्त हूं क्योंकि मैं आत्मस्वरूप हूं ।
अवतार सर्व कर्म बन्धन रहित, काम क्रोधादि विकार वर्जित, नित्यशुद्ध, नित्य बुद्ध, और सच्चिदानन्द स्वरूप होते हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण सच्चिदानन्द परमात्मा के षोड़श कलापूर्ण अवतार थे यह वेद प्रमाणों द्वारा सिद्ध होता है।
श्रीमद्भागवत में लिखा है -
विष्णु भगवान की आज्ञानुसार ब्रह्मा जी ने देवताओं को समझाया कि परम-पुरुष परमात्मा वसुदेव जी के घर में अवतीर्ण होंगे।
भगवान को प्रसन्न करने के लिये तुम अंश रूप से यदुवंश में उत्पन्न हो जाओ, और समस्त देवांगनाएं भी अवतीर्ण हो जाएं।
गोप लोग गोपाल वेश में छुपे हुए देवता थे ।
उपर्युक्त प्रमाणानुसार भगवान के सखागण तथा गोपियां- सभी मानवशरीर में छुपे हुए देवताविशेष थे ।
भगवान की रासलीला के समय अन्यून ८ वर्ष की आयुः थी।
श्रीमद्भागवत १०.१४.५६ में ब्रह्म वत्स हरण के बाद की लीलाओं को पौगंड (५–१० वर्ष ) वयः की बताया है।
गोवर्द्धन उठाते समय कहां सात वर्ष का बालक और कहां भारी पर्वत का उठाना ऐसा कहा है ।
गोवर्धन लीला के अनन्तर आने वाली शरद ऋतु मैं रासलीला हुई थी।
भगवान ने शरद ऋतु की विकसित मल्लिका वाली रात्रियों को जान कर अपनी योग माया के आश्रय से क्रीड़ा करने का विचार किया।
अतः भगवान आठ वर्ष के थे।
श्री वेदव्यास जी ने रास पंचाध्यायी में स्थान स्थान पर रास क्रीड़ा की पवित्रता का उल्लेख किया है ।
भगवान को साक्षान्मन्मथमन्मथः कहते हैं।
उन्होंने कामदेव के ऊपर विजय पाया।
पर दूसरे की स्त्रियों के साथ विनोद करके कामदेव के ऊपर विजय पाना, क्या यह धर्म के अनुकूल है?
भगवान ने अपने से भिन्न किसी से भी विनोद नहीं किया, बल्कि अपनी योग माया के आश्रय से अपनी ही आत्मा से कामदेव के अभिमान को चूर्ण करते हुए अपने आप में ही विनोद किया है।
इसलिए रासक्रीड़ा भगवान के काम विजय की द्योतक है यही इसका तत्व है।
यह रासलीला श्रृंगार रस के बहाने सर्वथा निवृत्ति परक है।
भगवान ने बांसुरी बजाई गोपी वेश में छुपी हुई उच्चत्तम देवात्मा संपन्न गोपियां घर के काम काज ज्यों के त्यों छोड़ कर उनके निकट आ पहुंची।
भगवान ने उनके विशुद्ध भाव की परीक्षा के लिये स्त्री धर्म का उपदेश देकर वापस लौट जाने को कहा।
जिसके उत्तर में गोपियां बोलीं कि हम तो कामादि सब विषयों को छोडकर आपके चरण शरण में आने वाली भक्ता हैं।
जिस प्रकार मोक्ष चाहने वालों को भगवान शरण में रखते हैं इसी प्रकार आप भी हमें शरण में लीजिये ।
आप तो प्राणि मात्र के आत्मा हो अतएव सब के प्यारे बन्धु हो।
इस प्रकार भगवान ने गोपियों का विशुद्ध भाव तथा रास क्रीड़ा कामना जानकर अपनी योग माया से उनके दो दो स्वरूप बनाए ।
उनमें से पहला - जोकि पांचभौतिक स्थूल शरीर स्वरूप था उसे तो घर पहुंचा दिया जिससे गोप ग्वालों में अपनी अपनी माता, पत्नी आदि को घर में न देखकर बेचैनी न हो।
और जो दूसरे भगवान की योग माया द्वारा निर्मित हुए दिव्य शरीर थे वह वन में ही रहे।
इसके बाद जो भी विशुद्ध क्रीड़ा हुई है वह भगवान के अपने योग माया निर्मित स्वरूपों के साथ हुई है।
व्यासजी ने श्रीमद्भागवत में इस रहस्य को स्वयं स्पष्ट किया है -
मायामुग्ध गोप भगवान के रास क्रीडारूप गुण मैं कोई दोषारोपण नहीं कर सके क्योंकि भगवान ने योग माया से गोपियों के साधारण स्वरूपों को उनके पास पहुंचा दिया, जिससे उन्होंने अपनी अपनी कुटुम्बनियों को अपने पास पाया।
इधर दूसरे दिव्य स्वरूपों के साथ रासलीला किया जिस प्रकार बालक अपनी ही परछाही के साथ खेला करता है।
भगवान ने अपने उतने ही रूप बनाए जितनी कि गोपियां थीं।
भगवान का अपने ही रूप को भिन्न भिन्न रूपों में प्रकट करके रास रमण करना यह एक वैदिक रहस्य है ।
यथा -
तस्मादेकाकी न रमते सद्वितीयमैच्छत् - बृहदारण्यकोपनिषद
ततो वपूंषि कृणुते पुरूणि - अथर्ववेद
इस प्रकार निश्चित हुआ कि भगवान ने अपने ही प्रतिबिम्ब स्वरूप देवात्मा संपन्न गोपियों से जो रासलीला की थी, वह परमात्मा की एक विशुद्ध वैदिकी लीला है।
व्यास जी भागवत में ही लिखते हैं -
जो इस रासलीला का श्रवण, मनन, कीर्तन करेगा वह परमात्मा की उत्कृष्ट भक्ति को प्राप्त कर कामादि हृदय रोगों से मुक्त हो जाएगा।
भगवान शिव का आशीर्वाद के लिए मंत्र
तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्
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दुर्गा प्रार्थना
एतावन्तं समयं सर्वापद्भ्योऽपि रक्षणं कृत्वा। ग्रामस्य परमिदानीं ताटस्थ्यं केन वहसि दुर्गाम्ब। अपराधा बहुशः खलु पुत्राणां प्रतिपदं भवन्त्येव। को वा सहते लोके सर्वांस्तान् मातरं विहायैकाम्। मा भज मा भज दुर्गे ताटस्थ्यं पुत्रकेषु दीनेषु। के वा गृह्णन्ति सुता
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