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इस प्रवचन से जानिए योग में दृढता को कैसे पाया जाएं

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भगवान कृष्ण का दिव्य निकास: महाप्रस्थान की व्याख्या

भगवान कृष्ण के प्रस्थान, जिसे महाप्रस्थान के नाम से जाना जाता है, का वर्णन महाभारत में किया गया है। पृथ्वी पर अपने दिव्य कार्य को पूरा करने के बाद - पांडवों का मार्गदर्शन करना और भगवद गीता प्रदान करना - कृष्ण जाने के लिए तैयार हुए। वह एक पेड़ के नीचे ध्यान कर रहे थे तभी एक शिकारी ने गलती से उनके पैर को हिरण समझकर उन पर तीर चला दिया। अपनी गलती का एहसास करते हुए, शिकारी कृष्ण के पास गया, जिन्होंने उसे आश्वस्त किया और घाव स्वीकार कर लिया। कृष्ण ने शास्त्रीय भविष्यवाणियों को पूरा करने के लिए अपने सांसारिक जीवन को समाप्त करने के लिए यह तरीका चुना। तीर के घाव को स्वीकार करके, उन्होंने दुनिया की खामियों और घटनाओं को स्वीकार करने का प्रदर्शन किया। उनके प्रस्थान ने वैराग्य की शिक्षाओं और भौतिक शरीर की नश्वरता पर प्रकाश डाला, यह दर्शाते हुए कि आत्मा ही शाश्वत है। इसके अतिरिक्त, शिकारी की गलती पर कृष्ण की प्रतिक्रिया ने उनकी करुणा, क्षमा और दैवीय कृपा को प्रदर्शित किया। इस निकास ने उनके कार्य के पूरा होने और उनके दिव्य निवास, वैकुंठ में उनकी वापसी को चिह्नित किया।

शकुंतला नाम का क्या मतलब है?

संस्कृत में शकुंत का अर्थ है पक्षी। जन्म होते ही शकुंतला को उसकी मां मेनका नदी के तट पर छोडकर चली गयी। उस समय पक्षियों ने उसकी रक्षा की थी। कण्व महर्षि को शकुंतला पक्षियों के बीच में से मिली थी। इसलिए उन्होंने उसका नाम शकुंतला रखा।

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इनमें से किस नदी का उद्गम स्थान मानसरोव‌र के पास नहीं है ?

चित्त को निस्तरङ्ग बनाना है। जैसे समुद्र मे जब लहरें नहीं होती ऐसी अवस्था। इसे योग की भाषा में स्थिति कहते हैं। क्या इस अवस्था में वृत्तियों का १००% अभाव है? नहीं। सात्त्विक वृत्तियां रहती हैं। ....


चित्त को निस्तरङ्ग बनाना है।

जैसे समुद्र मे जब लहरें नहीं होती ऐसी अवस्था।

इसे योग की भाषा में स्थिति कहते हैं।

क्या इस अवस्था में वृत्तियों का १००% अभाव है?

नहीं।

सात्त्विक वृत्तियां रहती हैं।

राजसिक और तामसिक वृत्तियां नही रहती हैं।

इस अवस्था में स्थिति की अवस्था में-

श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा घ्रात्वा शुभाशुभम्।

न हृष्यति ग्लायति च शान्त इति कथ्यते॥

अच्छा सुनोगे, पर खुशी नहीं आएगी।

बुरा सुनोगे, दुख नही आएगा।

अच्छे को देखोगे, खुशी नही आएगी।

बुरे को देखोगे, दुख नही आएगा।

स्वादिष्ट भोजन करोगे, खुशी नही आएगी।

नीरस भोजन करोगे, कोई फरक नही पडेगा।

खुशबू न अच्छी लगेगी, बदबू न बुरी लगेगी।

मुलायम बिस्तर पर सोओ या पत्थर के ऊपर, चित्त पर इसका कोई असर नही पडेगा।

क्यों की सुख और दुख चित्त में उठनेवाली राजसिक और तामसिक लहरें हैं।

इनका अभाव परम शान्ति की अवस्था है।

जो सात्त्विक है।

क्या यह अवस्था सहज रूप से आ सकती है?

नहीं।

इसके लिए प्रयास करना पडता है।

योग शास्त्र में इस अवस्था, इस स्थिति की अवस्था को पाने के लिए साधन दिये गये हैं।

इन साधनों द्वारा निरन्तर अभ्यास करने से, अभ्यास करने से ही यह अवस्था पाई जा सकती है।

कुछ समय के लिए मन की शान्ति किसी में भी आ सकती है।

पर अगर दृढतावाली शान्ति चाहिए तो इसके लिए प्रयास करना पडेगा।

अभ्यास करना पडेगा।

इस अभ्यास को नियमित रूप से प्रतिदिन करना है।

दीर्घ काल तक करना है।

इसके लिए साधनों के बारे में ज्ञान की आवश्यकता है।

इसे करने से मुझे उसका फल मिलेगा ऐसी श्रद्धा होना जरूरी है।

तपस्या और ब्रह्मचर्य जरूरी है।

सही ज्ञान अर्जित करके, श्रद्धा के साथ, ब्रह्मचर्य का पालन करके, एक तपस्या के रूप में प्रतिदिन दीर्घ काल तक योग के साधनों का अभ्यास
करोगे तो दृढतावाली शान्ति मिल सकती है।

यह शान्ति कभी भी बाहरी विषयों पर आश्रित नहीं हो सकती।

क्यों कि बाहरी विषय हमारे अधीन में नहीं हैं।

सिर्फ हमारा मन ही हमारा अधीन हो सकता है।

पीडाओं के अभाव में जो शान्ति महसूस होती है, यह शाश्वत नहीं है।

पीडा आने पर वह तुरन्त चली जाएगी।

पीडा रहे या न रहे , शान्ति सदा रहेगी, इस अवस्था को पाना है।

इसके लिए सुख और दुख दोनों से ही मन में जो हर्ष और शोक की लहरें उठती हैं, दोनों से ही मन को निवृत्त करना पडेगा।

तभी यह हो पाएगा।

जिस चित्त में खुशी की लहरें उठती हैं, उस में दुख की लहरें भी अवश्य ही उठेंगी।

यह अभ्यास जो है उसे उत्साह के साथ करना है।

केवल एक दिनचर्या के रूप में नहीं।

ज्ञान के साथ, ज्ञान का अर्थ है साधनों के बारे में सही जानकारी, श्रद्धा के साथ, ब्रह्मचर्य का पालन करके, एक तपस्या के रूप में, उत्साह के
साथ, प्रति दिन, दीर्घ काल तक करोगे तो ही शान्ति की दृढता में बल रहेगा।

इसके द्वारा समाधि की भी अवधि बढती है।

इच्छानुसा्र समाधि में जाना और उससे बाहर आना संभव हो जाता है।

समाधि की गुणवत्ता बढती है।

समझिए यह शन्ति समाधि की अवस्था नहीं है।

समाधि की अवस्था में सत्त्व का भी अभाव है।

यह शान्ति लौकिक व्यवहारों में प्रवृत्त रहते समय की है।

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