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धर्म वेदों द्वारा स्थापित है, और अधर्म उसका विपरीत है। वेदों को श्री हरि का प्रत्यक्ष प्रकट रूप माना जाता है, और भगवान ने ही सबसे पहले उन्हें उद्घोषित किया। इसलिए, वेदों को समझने वाले विद्वान कहते हैं कि वेद श्री हरि के सार का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह वेदों की दिव्य उत्पत्ति और अधिकारिता में विश्वास को रेखांकित करता है, जो मानवता को धार्मिकता की ओर मार्गदर्शन करने में उनकी भूमिका को उजागर करता है।
कोई भी अनुभव बिना कारण का नहीं होता। श्रीराम जी मानते थे कि कौसल्या माता ने पूर्व जन्म में किसी माता के अपने पुत्र से वियोग करवाया होगा। इसलिए उनको इस जन्म में पुत्र वियोग सहना पडा।
भागवत् का पांचवां श्लोक - त एकदा तु मुनयः प्रातर्हुतहुताग्नयः। सत्कृतं सूतमासीनं पप्रच्छुरिदमादरात्॥ मुनियों ने सूत से पूछा। कौन है मुनि? मनुते जानाति इति मुनिः। जिनके पास ज्ञान है और उस ज्ञान के आधार पर मनन भी क....
भागवत् का पांचवां श्लोक -
त एकदा तु मुनयः प्रातर्हुतहुताग्नयः।
सत्कृतं सूतमासीनं पप्रच्छुरिदमादरात्॥
मुनियों ने सूत से पूछा।
कौन है मुनि?
मनुते जानाति इति मुनिः।
जिनके पास ज्ञान है और उस ज्ञान के आधार पर मनन भी कर सकते हैं।
दूसरों की कही हुई बातों को ये केवल अनुसरण नहीं करेंगे।
उसे किसी और को सुनाते नहीं जाएंगे।
इनके पास मनन करने के लिए मेधा शक्ति है।
मेधा शक्ति बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
तभी आपको अध्यात्म के विषय समझ में आएंगे।
उदाहरण के लिए देखिए, यहां इस श्लोक मे कहा है - प्रातर्हुतहुताग्नयः।
हुत शब्द दो बार क्यों?
हुत का अर्थ है आहुति देना।
क्या कई आहुतियां दी गयी यह अर्थ है?
नहीं।
बडे यज्ञों के अन्तर्भूत कई यज्ञ होते हैं।
जो प्रतिदिन किये जाते हैं वह है नित्य जैसे अग्निहोत्र जो सुबह शाम करते हैं।
जो विशेष दिनों में किये जाते हैं वह है नैमित्तिक जैसे राजा दशरथ के अश्वमेध याग को लीजिए।
यह शुरु हुआ चैत्र पूर्णिमा को सांग्रहणी नामक यज्ञ के साथ।
उसके आगे वैशाख पूर्णिमा को पशु याग हुआ।
उसके आगे वैशाख अमावास्या को ब्रह्मोदन हुआ।
ये सारे नैमित्तिक यज्ञ हैं जो प्रधान यज्ञ के ही अन्तर्गत हैं।
यहां सहस्र सम चल रहा है, हजार सालों का यज्ञ।
उसमें नित्य यज्ञ भी रहेंगे नैमित्तिक भी।
इन दोनों को समाप्त करके मुनि जन कथा सुनने आये।
अब देखिए इस गहराई में जाने के लिए मुनियों को ज्ञान अवश्य चाहिए वैदिक यज्ञ पद्धति के बारे में।
और मनन शाक्ति, मेधा शाक्ति भी चाहिए।
नहीं तो हुत हुत को सुनकर लगेगा यूं ही दो बार बोले होंगे या छन्दानुसार श्लोक की पंक्ति भरने के लिए।
ऐसी मेधा शक्ति और ज्ञान, ये कैसे प्राप्त होते हैं?
गीता बताती है मुनि का स्वभाव।
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥
जिसे दुख में उद्वेग न आये, सुख के लिए कामना नहीं है, जिसके मन मे राग, भय या क्रोध नहीं है, जिसकी बुद्धि स्थिर है, यह है मुनि का स्वभाव।
अगर ऐसा स्वभाव है तो ज्ञान अपने आप आ जाएगा
मेधा शक्ति और मनन शक्ति भी अपने आप आ जाएगी।
यहां सूत सौति ही है उग्रश्रवा जिन्होंने पहले महाभारत का आख्यान किया था।
सूत बैठे हुए थे।
उनको आसन दिया गया था।
तभी उनसे सवाल पूछे गये।
क्यों कि मुनियों को पता है कि खडे व्यक्ति में बेचैनी रहती है।
हमारे संस्कार में खडे व्यक्ति के सामने नमस्कार करना भी मना है।
क्योंकि वह सही ढंग से आशीर्वाद के रूप प्रतिक्रिया नहीं कर पाएगा।
जब आप खडे हैं तो आप में एक त्वरा रहती है।
इसलिए सूत जब बैठे थे तो उनका सत्कार करके उनसे सवाल पूछे गये।
क्या है सत्कार?
पूजा - चंदन कुंकुंम इत्यादि लगाकर, वस्त्र इत्यादि देकर।
पूजा में मान और दान दोनों ही रहते हैं।
किसी से ज्ञान पाना हो तो मांगने की यह है तरीका।
आज के जैसे फीस भरकर अपने अधिकार के रूप में नही।
आजकल ज्ञान हो विज्ञान हो आफर के साथ आते हैं।
एक कोर्स के लिए फीस भरो दूसरा मुफ्त में पाओ।
एक को रेफर करो इतना डिस्काऊंट पाओ।
२ घंटो के अन्दर नाम लिखवाओ इतना छूट पाओ।
यहां बहुवचन का प्रयोग किया है।
मुनियों ने पूछा।
महाभारत के आख्यान के समय सौति ने मुनियों से पूछा: आप लोग क्या सुनना चाहेंगे?
उन्होंने कहा हमारे कुलपति शौनक जी को आने दीजिए, वे बताएंगे।
यहां कई मुनि एक साथ पूछ रहे हैं।
इतनी उत्सुकता थी उनमें भागवत के लिए आगे के तीन श्लोक सूत की योगयता के बारे में हैं कि ज्ञानी मुनि जन कैसे सूत से और ज्ञान पाने तैयार हो गये।
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