हयग्रीव भगवान विष्णु का अवतार हैं ।
पूषा रेवत्यन्वेति पन्थाम्। पुष्टिपती पशुपा वाजवस्त्यौ। इमानि हव्या प्रयता जुषाणा। सुगैर्नो यानैरुपयातां यज्ञम्। क्षुद्रान्पशून्रक्षतु रेवती नः। गावो नो अश्वां अन्वेतु पूषा। अन्नं रक्षन्तौ बहुधा विरूपम्। वाजं सनुतां यजमानाय यज्ञम्। (तै.ब्रा.३.१.२)
आपन्नः संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन्। ततः सद्यो विमुच्येत तद्बिभेति स्वयं भयम् ॥ श्रीमद्भागवत, प्रथम स्कन्ध, प्रथम अध्याय, चौदहवां श्लोक। यह श्लोक भगवन्नाम, भगवान के दिव्य नामों की शक्ति के बारे में है। किसी के सा....
आपन्नः संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन्।
ततः सद्यो विमुच्येत तद्बिभेति स्वयं भयम् ॥
श्रीमद्भागवत, प्रथम स्कन्ध, प्रथम अध्याय, चौदहवां श्लोक।
यह श्लोक भगवन्नाम, भगवान के दिव्य नामों की शक्ति के बारे में है।
किसी के सामने एक डाकू बन्दूक लेकर उसे मारने खडा है।
एक बार, सिर्फ एक बार भगवान के किसी भी अवतार का नाम श्रद्धा से लेने से वह भय, वह आपत्ति वहीं के वहीं समाप्त हो जाती है।
यह कैसे संभव है?
ऐसा नहीं है कि वह डाकू भगवान का नाम सुनकर डर जाता है।
वह डाकू यह क्रूर कार्य अपने आप में नही करता है।
उसके अन्दर कोई दुष्ट शक्ति आवेश करके उसे यह कराती है।
उस दुष्ट शक्ति को भगवान का नाम सुनते ही यह डर लगने लगता हि कि इस दिव्य नाम के कंपन मुझे एक बलून जैसे फोड देंगे।
तब वह दुष्ट शक्ति या तो उस डाकू को वहां से भागने प्रेरित करेगी या खुद उसके शरीर से निकलकर भागेगी।
या तो जैसे अंबरीष के साथ हुआ, दुर्वासा महर्षि ने जिस कृत्या को उन्हें मारने भेजा था उसे देखकर अंबरीष को बिल्कुल डर नही लगा।
भगवान की लीला है, क्यों डरें?
उसके बाद भगवान को बेवश होकर उन्हें बचाना पडा।
या दिव्य नाम लेते लेते भक्त इस अवस्था मे पहुंचता है कि यह जगत मेरा हि एक आयाम है फैलाव है।
अपने से अन्य जो है उसी से डर लगता है।
अपने ही हाथ में जो तलवार है उसे देखकर डर नही लगता।
दूसरे के हाथ मे देखकर डर लग सकता है।
देहांत के समय भी अजामिल को देखिए अनजाने में एक बार सिर्फ एक बार भगवान का नाम लिया था, यमदूत जो प्राण लेने आये डर गये।
यहां तक कि यमराज को स्थाई अनुदेश देना पडा कि जो श्रीमन्नारायण का नाम लेता है उसे यमलोक में लेकर मत आओ।
उसका स्थान वैकुण्ठ में है।
यह है भगवन्नाम की शक्ति।
भगवान जब अपने अवतारोद्देस्य को पूर्ण करके जब स्वधाम लौट जाते हैं, तब भी अपने दिव्य नाम को छोडकर ही जाते हैं ताकि अपने भक्तों को रक्षा और मंगल मिलते ही रहे।
यहां पर एक सवाल उठता है।
दिव्य नामों का उच्चार केवल मानव ही कर सकता है।
तो बाकी प्राणियों का क्या?
पेड, पौधे, जानवर पक्षी - क्या भगवान को इनकी पर्वाह नही है?
है न , जरूर है।
इसे देखने है ज्ञानी ऋषिजन, संत, महात्मा लोग बाकी सब को छोडकर, बाकी सारी साधनाओं को छोडकर, बाकी सारे अनुष्ठानों को छोडकर भगवान के चरणों के पास बैठे रहते हैं।
यत्पादसंश्रयाः सूत मुनयः प्रशमायनाः।
सद्यः पुनन्त्युपस्पृष्टाः स्वर्धुन्यापोऽनुसेवया॥
बस इतना काफी है, सब कुछ मिल जाता है।
जैसे मात्र स्पर्श से गंगाजी पवित्र कर देती है।
भगवान के सामीप्य में रहो, चरण के पास रहो, उतना काफी है।
पर भगवान तो स्वधाम चले गये।
कैसे उनके चरण के पास रहेंगे?
भगवान अभी भी यहीं है न?
मन्दिरों के रूप में, मूर्त्तियों के रूप में, तस्वीरों के रूप में, भागवत जैसे ग्रन्थों के रूप में, भक्तों के रूप में।
इनकी सेवा करो।
भगवान के भक्तों मे इतनी ताकत है कि अगर गंगाजी स्पर्श से पवित्र कर देती है, भक्त मात्र अपनी आंखों से एक बार देखने से पवित्र कर सकता है।
तो पशु, पक्षी, पेड, पौधे अन्य प्राणी कैसे भगवान के सामीप्य द्वारा भगवान के आशीर्वाद को पाते हैं?
किसी पौधे ने अपने फूलों को भगवान के चरण में समर्पित कर दिया, किसी ने अपने पत्तों को।
किसी मधुमक्खी ने पंचामृत के लिए शहद जमा किया।
किसी गाय ने अपना दूध दे दिया अभिषेक के लिये।
इस प्रकार भगवान सब को बराबर ही मौका देते हैं।
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