श्रीमद्भागवतम (2.9.31) में इस प्रकार वर्णित है: श्रीभगवानुवाच - ज्ञानं परमं गुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम् | स-रहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया | इस श्लोक के अनुसार भगवान का ज्ञान कई महत्वपूर्ण पहलुओं को समेटे हुए है। इसे 'परम-गुह्य' कहा गया है, जिसका अर्थ है कि यह उच्चतम गोपनीयता वाला है और इसे समझने के लिए आध्यात्मिक परिपक्वता की आवश्यकता होती है। 'विज्ञान' शब्द का प्रयोग दर्शाता है कि यह ज्ञान केवल अमूर्त नहीं है बल्कि इसका एक व्यावहारिक और वैज्ञानिक आधार है, जो वास्तविकता और परमात्मा की प्रकृति की गहरी समझ प्रदान करता है। 'स-रहस्यं' यह इंगित करता है कि इस ज्ञान में रहस्यमय तत्व भी शामिल हैं, जो साधारण समझ से परे होते हैं। 'तदङ्गं' इसका अर्थ है कि यह ज्ञान व्यापक है और आध्यात्मिक विज्ञान के विभिन्न पहलुओं को कवर करता है। 'गृहाण गदितं मया' यह दर्शाता है कि यह ज्ञान स्वयं भगवान द्वारा प्रकट किया गया है, जो इसकी प्रामाणिकता और दिव्य मूल को रेखांकित करता है।
ॐ शनि कांकुली पाणीयायाम् । पालनहरि आरिक्षणी । नेम्बेंदिविरान्दिन यदू यदू । जाणनिरान्द्रि । पाषाण युगे युगे धर्मयन्त्री । फाअष्टष्यति नजर याणी धुम्रयाणी । धनम् प्रजायायाम् घनिष्टयति । पादानिदर पादानिदर नमस्तेते नमस्तेते । आदरणीयम् फलायामी फलायामी । इति सिद्धम् - प्रति दिन ७२ बार बोलें ।
यदाबध्नन् दाक्षायणा हिरण्यं शतानीकाय सुमनस्यमानाः । तत्ते बध्नाम्यायुषे वर्चसे बलाय दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ॥१॥ नैनं रक्षांसि न पिशाचाः सहन्ते देवानामोजः प्रथमजं ह्येतत्। यो बिभर्ति दाक्षायणं हिरण्यं स जीवेषु कृण....
यदाबध्नन् दाक्षायणा हिरण्यं शतानीकाय सुमनस्यमानाः ।
तत्ते बध्नाम्यायुषे वर्चसे बलाय दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ॥१॥
नैनं रक्षांसि न पिशाचाः सहन्ते देवानामोजः प्रथमजं ह्येतत्।
यो बिभर्ति दाक्षायणं हिरण्यं स जीवेषु कृणुते दीर्घमायुः ॥२॥
अपां तेजो ज्योतिरोजो बलं च वनस्पतीनामुत वीर्याणि ।
इन्द्र इवेन्द्रियाण्यधि धारयामो अस्मिन् तद्दक्षमाणो बिभरद्धिरण्यम् ॥३॥
समानां मासामृतुभिष्ट्वा वयं संवत्सरस्य पयसा पिपर्मि ।
इन्द्राग्नी विश्वे देवास्तेऽनु मन्यन्तामहृणीयमानाः ॥४॥
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