पांडवों और कौरवों के बीच पासों का खेल दुर्योधन द्वारा आयोजित किया गया था, जो राजसूय यज्ञ के बाद पांडवों की शक्ति से ईर्ष्या करता था। पहला खेल, जो हस्तिनापुर में शकुनि की कपटी मदद से खेला गया, उसमें युधिष्ठिर ने अपना राज्य, धन, भाई और द्रौपदी सब कुछ खो दिया। द्रौपदी के अपमान के बाद, धृतराष्ट्र ने हस्तक्षेप किया और पांडवों को उनका धन और स्वतंत्रता वापस कर दी। कुछ महीनों बाद, दुर्योधन ने धृतराष्ट्र को दूसरा खेल आयोजित करने के लिए मना लिया। इस समय के दौरान, कौरवों ने यह सुनिश्चित करने के लिए षड्यंत्र रचा कि गंभीर परिणाम हों। दूसरे खेल की शर्तों के अनुसार, हारने वाले को 13 वर्षों के लिए वनवास जाना था, जिसमें अंतिम वर्ष अज्ञातवास होना था। युधिष्ठिर फिर से हार गए, जिससे पांडवों का वनवास शुरू हुआ। खेलों के बीच के छोटे अंतराल ने तनाव को बढ़ने दिया, जिससे पांडवों और कौरवों के बीच प्रतिद्वंद्विता और बढ़ गई। ये घटनाएँ कुरुक्षेत्र युद्ध के मंच के लिए महत्वपूर्ण थीं, जो कौरवों की कपट और पांडवों की दृढ़ता को दर्शाती हैं। लगातार हार और द्रौपदी के अपमान ने पांडवों की न्याय और बदले की इच्छा को बढ़ावा दिया, जो अंततः महाभारत में चित्रित महान युद्ध की ओर ले गया।
इस शरीर के माध्यम से जीव अपने पुण्य और पाप कर्मों के फलस्वरूप सुख-दुख का अनुभव करता है। इसी शरीर से पापी यमराज के मार्ग पर कष्ट सहते हुए उनके पास पहुँचते हैं, जबकि धर्मात्मा प्रसन्नतापूर्वक धर्मराज के पास जाते हैं। विशेष रूप से, केवल मनुष्य ही मृत्यु के बाद एक सूक्ष्म आतिवाहिक शरीर धारण करता है, जिसे यमदूत यमराज के पास ले जाते हैं। अन्य जीव-जंतु, जैसे पशु-पक्षी, ऐसा शरीर नहीं पाते। वे सीधे दूसरी योनि में जन्म लेते हैं। ये प्राणी मृत्यु के बाद वायु रूप में विचरण करते हुए किसी विशेष योनि में जन्म लेने के लिए गर्भ में प्रवेश करते हैं। केवल मनुष्य को अपने शुभ और अशुभ कर्मों का फल इस लोक और परलोक दोनों में भोगना पड़ता है।
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः । अथ नारायणाथर्वशिरो व्याख्यास्यामः । ॐ अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति । नारायणात्प्राण....
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
अथ नारायणाथर्वशिरो व्याख्यास्यामः ।
ॐ अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति ।
नारायणात्प्राणो जायते । मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ।
नारायणाद् ब्रह्मा जायते । नारायणाद्रुद्रो जायते ।
नारायणादिन्द्रो जायते । नारायणात्प्रजापतयः प्रजायन्ते ।
नारायणाद्द्वादशादित्या रुद्रा वसवः सर्वाणि च छन्दांसि ।
नारायणादेव समुत्पद्यन्ते । नारायणे प्रवर्तन्ते । नारायणे प्रलीयन्ते ।
ॐ अथ नित्यो नारायणः । ब्रह्मा नारायणः । शिवश्च नारायणः ।
शक्रश्च नारायणः । द्यावापृथिव्यौ च नारायणः ।
कालश्च नारायणः । दिशश्च नारायणः । ऊर्ध्वश्च नारायणः ।
अधश्च नारायणः । अन्तर्बहिश्च नारायणः । नारायण एवेदं सर्वम् ।
यद्भूतं यच्च भव्यम् । निष्कलो निरञ्जनो निर्विकल्पो निराख्यातः
शुद्धो देव एको नारायणः । न द्वितीयोऽस्ति कश्चित् । य एवं वेद ।
स विष्णुरेव भवति स विष्णुरेव भवति ।
ओमित्यग्रे व्याहरेत् । नम इति पश्चात् । नारायणायेत्युपरिष्टात् ।
ओमित्येकाक्षरम् । नम इति द्वे अक्षरे । नारायणायेति पञ्चाक्षराणि ।
एतद्वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदम् ।
यो ह वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदमध्येति । अनपब्रवस्सर्वमायुरेति ।
विन्दते प्राजापत्यं रायस्पोषं गौपत्यम् ।
ततोऽमृतत्वमश्नुते ततोऽमृतत्वमश्नुत इति । य एवं वेद ।
प्रत्यगानन्दं ब्रह्मपुरुषं प्रणवस्वरूपम् । अकार-उकार-मकार इति ।
तानेकधा समभरत्तदेतदोमिति ।
यमुक्त्वा मुच्यते योगी जन्मसंसारबन्धनात् ।
ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रोपासकः । वैकुण्ठभुवनलोकं गमिष्यति ।
तदिदं परं पुण्डरीकं विज्ञानघनम् । तस्मात्तदिदावन्मात्रम् ।
ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रो ब्रह्मण्यो मधुसूदनोम् ।
सर्वभूतस्थमेकं नारायणम् । कारणरूपमकारपरब्रह्मोम् ।
एतदथर्वशिरोयोऽधीते ।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।
माध्यन्दिनमादित्याभिमुखोऽधीयानः पञ्चमहापातकोपपातकात् प्रमुच्यते ।
सर्ववेदपारायणपुण्यं लभते ।
नारायणसायुज्यमवाप्नोति नारायणसायुज्यमवाप्नोति ।
य एवं वेद । इत्युपनिषत् ।
सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ।
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