नाथ संप्रदाय का विस्तार
सांप्रदायिक ग्रंथों में नाथ संप्रदाय के अनेक नामों का उल्लेख मिलता है। हठयोग प्रदीपिका की टीका (१-५) में ब्रह्मानंद ने लिखा है कि सब नाथों में प्रथम आदिनाथ हैं जो स्वयं शिव ही हैं ऐसा नाथ संप्रदाय बालों का विश्वास है। इस से यह अनुमान किया जा सकता है कि ब्रह्मानंद इस संप्रदाय को 'नाथसंप्रदाय' नाम से ही जानते थे भिन्न-भिन्न ग्रंथों में बराबर यह उल्लेख मिलता है कि यह मत 'नाथो' अर्थात् नाथद्वारा कथित है परंतु संप्रदाय में अधिक प्रचलित शब्द है, विद्ध-मत (गो० सि००, पृ० १२) सिद्ध-माग (योगी). योग-मार्ग (गो०सि० सं०, ४०५, २१ योग-संप्रदाय- (गो० स० [सं० पु०५८) अवधूत (१८), अवधून संप्रदाय (२६ इत्यादि इस मत के योग मत और योग-संवाय नाम तो साधक ही हैं. क्योंकि इनका मुख्य धर्म डी योगाभ्यास है। अपने मार्ग को ये लोग सिद्धगत या सिद्ध-मार्ग इसलिये कहते हैं कि इनके मत से नाथ ही सिद्ध हैं। इनके मत का अत्यंत प्रामाणिक मंथ सिद्ध सिद्धा पद्धति है जिसे अट्ठारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में काशी के बलभद्र पंडित ने संक्षिप्त कर के सिद्ध-सिद्धान्त-से मइ नामक ग्रंथ लिखा था इन ग्रंथों के नाम से पता चलता है कि बहुत प्राचीन काल से इस मत को 'सिद्ध मत' कहा जा रहा है। सिद्धान्त वस्तुतः बादी और प्रतिवारी द्वारा निर्णीत अर्थ को कहते हैं, परन्तु इस संप्रदाय में यह अर्थ नहीं स्वीकार किया जाता। इन लोगों के मत से सिद्धों द्वारा निर्णीत या व्याख्यात तर को ही सिद्धान्त कहा जाता है (गो० सि० [सं० पृ० १८) इसी लिये अपने संप्रदाय के ग्रंथों को ही ये लोग सिद्धान्त-मंथ' कहते हैं। नाथ संप्रदाय में प्रसिद्ध है किशंकराचार्य अन्त में नाथ संप्रदाय के अनुयायी हो गए और उसी अवस्था में उन्होंने सिद्धा बिंदु ग्रंथ लिखा था अपने मत को ये लोग 'अवघून मत' भी कहते हैं गोर सिद्धान्त में लिखा है कि हमारा मन तो अवघून मन ही है (अस्माकं मतं स्व- धूतमेष०१८) कबीरदास ने ''अवधूत को संबोधन करते समय इस मत कोही बराबर ध्यान में रखा है। कभी कभी इस मत के ढोंगी साधुओं को उन्होंने कच्चे सिद्ध' कहा है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम चरित मानस के शुरू में ही 'सिद्ध मत' की भक्ति - हीनता की ओर इशारा किया है। गोस्वामी जी के ग्रंथों से पता चलता है कि वे यह विश्वास करते थे कि गोरखनाथ ने योग जगाकर भक्ति को दूर कर दिवा था | मेरा अनुमान है कि राम चरित मानस के आरंभ में शिव की वंदना के प्रसंग में जब उन्होंने कहा था कि 'श्रद्धा और विश्वास के साक्षात् स्वरूप पार्वती और शिव हैं; इन्हीं दो गुणों (अर्थात् श्रद्धा और विश्वास) के अभाव में 'सिद्ध' लोग भी अपने ही भीतर विद्यमान ईश्वर को नहीं देख पाते, तो उनका तात्पर्य इन्हीं नाथपं थियों से था । यह अनुमान यदि ठीक है तो यह भी सिद्ध है कि गोस्वामी जी इस मत को 'सिद्ध मत' ही कहते थे। यह नाम सप्रदाय में भी बहुत समान है और इसकी परंपरा बहुत पुरानी मालूम होती है। मत्स्येन्द्रनाथ के कौल झा न निर्णय के सोलहवें पटल से अनुमान होता है कि वे जिस मंप्रदाय के अनुयायी थे उसका नाम 'सिद्ध कौल संशय' था। डा० बागची ने लिखा है कि बाद में उन्होंने जिस संप्रदाय का प्रवर्तन किया था उसका नाम 'योगिनी कौल मार्ग' था। आगे चल कर इस बात की विशेष आलोचना करने का अवसर आएगा। यहाँ इतना ही कह रखना पर्याप्त है कि यह सिद्ध कौ मत ही आगे चल कर नाय परपरा के रूप में विकसित हुआ।
सिद्ध सिद्धान्त पद्धति में इस सिद्ध मत की सबसे श्रेष्ठ बताया गया है, क्योंकि कर्कशतके परायण वेदान्नी माया से ग्रमित हैं भाट्ट मोमांसक कर्म फल के चक्कर में पड़े हुए हैं. वैशेषिक लोग अपनी द्वैत बुद्धि से ही मारे गए हैं तथा अन्यान्य दार्शनिक भी तत्र से वंचित ही हैं; फिर, सांख्य, वैष्णव, वैदिक, वीर, बौद्ध, जैन, ये सब लोग व्यर्थ के मार्ग में भटक रहे हैं; फिर, होम करने वाले - बहु दीक्षित आचार्य, नग्नवत वाजे तापस, नाना तीर्थो में भटकने वाले पुण्यार्थी बेचारे दुःखभार से दबे रहने के कारण तत्व से शून्य रह गए हैं, इसलिये रक मात्र स्वाभाविक आवरण के अनुकूल सिद्ध-मार्ग को आश्रय करना ही उपयुक्त है । यह सिद्ध मार्ग नाथ मत हो है । 'ना' का अर्थ है अनादि रूप और 'थ' का अर्थ है ( भुवनत्रय का ) स्थापित होता, इस प्रकार 'नाथ' मत का सष्टार्थ वह अनादि धर्म है जो भुवनत्रय की स्थिति का कारण है। श्री गोरक्ष को इसी कारण से 'नाथ' कहा जाता है। फिर 'ना' शब्द का अर्थ नाथ ब्रह्म जो मोक्ष-दान में दक्ष हैं, उनका ज्ञान कराना है और थ' का अर्थ है ( अज्ञान के सामर्थ्य को ) स्थगित करने वाला | चूँकि नाथ के आश्रयण से इस नाथ ब्रह्म का साक्षात्कार होता है और अज्ञान की माया अवरुद्ध होती है इसीलिये 'नाथ' शब्द का व्यवहार किया जाता है।
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