Special - Saraswati Homa during Navaratri - 10, October

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नक्षत्र सूक्त - अथर्व वेद से

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वेददारा मंत्र मेरे दैनिक शांति और ताकत का स्रोत हैं। धन्यवाद। 🌿 -Richa Shastry

सचमुच अद्भुत मंत्र है..धन्यवाद! -अन्वेषा

वेदधारा के प्रयासों के लिए दिल से धन्यवाद 💖 -Siddharth Bodke

Om namo Bhagwate Vasudevay Om -Alka Singh

🧘‍♂️ आपके मंत्रों को सुनना मेरे लिए एक रिवाज बन गया है। -रोहन त्रिपाठी

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भगवान ने संसार क्यों बनाया?

उपनिषद कहते हैं - एकाकी न रमते स द्वितीयमैच्छत्। एकोऽयं बहु स्यां प्रजायेय। ईश्वर अकेले थे और उनको लगा की अकेले रहना संतुष्टिदायक नहीं है। इसलिए, उन्होंने संगती की कामना की और लोक बनाने का फैसला किया। ऐसा करने के लिए, उन्होंने स्वयं को बढ़ाया और हमारे चारों ओर सब कुछ बन गया। सृष्टि का यह कार्य विविधता और जीवन को अस्तित्व में लाने का ईश्वर का तरीका था। यह व्याख्या हमें याद दिलाती है कि संसार और इसमें विद्यमान हर वस्तु ईश्वर के आनंद की इच्छा की अभिव्यक्ति है। यह सभी प्राणियों की एकता का भी प्रतीक है, क्योंकि हम सभी एक ही दिव्य स्रोत से आए हैं।

प्रदोष पूजा कब शुरू करना चाहिए?

पूजा का समय सूर्यास्त से 3 घटी पहले शुरू होता है। 3 घटी का मतलब 72 मिनट, लगभग सवा घंटा होता है। अगर सूर्यास्त 6:30 बजे है, तो पूजा 5:15 बजे शुरू होनी चाहिए।

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जांबवती श्रीकृष्ण की पत्नी कैसे बनी ?

ॐ चित्राणि साकं दिवि रोचनानि सरीसृपाणि भुवने जवानि। तुर्मिशं सुमतिमिच्छमानो अहानि गीर्भिः सपर्यामि नाकम्। सुहवमग्ने कृत्तिका रोहिणी चास्तु भद्रं मृगशिरः शमार्द्रा। पुनर्वसू सूनृता चारु पुष्यो भानुराश्लेषा अयनं म....

ॐ चित्राणि साकं दिवि रोचनानि सरीसृपाणि भुवने जवानि।
तुर्मिशं सुमतिमिच्छमानो अहानि गीर्भिः सपर्यामि नाकम्।
सुहवमग्ने कृत्तिका रोहिणी चास्तु भद्रं मृगशिरः शमार्द्रा।
पुनर्वसू सूनृता चारु पुष्यो भानुराश्लेषा अयनं मघा मे।
पुण्यं पूर्वा फल्गुन्यौ चाऽत्र हस्तश्चित्रा शिवा स्वाति सुखो मे अस्तु।
राधे विशाखे सुहवानूराधा ज्येष्ठा सुनक्षत्रमरिष्ट मूलम्।
अन्नं पूर्वा रासतां मे अषाढा ऊर्जं देव्युत्तरा आ वहन्तु।
अभिजिन्मे रासतां पुण्यमेव श्रवणः श्रविष्ठाः कुर्वतां सुपुष्टिम्।
आ मे महच्छतभिषग्वरीय आ मे द्वया प्रोष्ठपदा सुशर्म।
आ रेवती चाश्वयुजौ भगं म आ मे रयिं भरण्य आ वहन्तु।
ॐ यानि नक्षत्राणि दिव्याऽन्तरिक्षे अप्सु भूमौ यानि नगेषु दिक्षु।
प्रकल्पयंश्चन्द्रमा यान्येति सर्वाणि ममैतानि शिवानि सन्तु।
अष्टाविंशानि शिवानि शग्मानि सह योगं भजन्तु मे।
योगं प्र पद्ये क्षेमं प्र पद्ये योगं च नमोऽहोरात्राभ्यामस्तु।
स्वस्तितं मे सुप्रातः सुदिवं सुमृगं सुशकुनं मे अस्तु।
सुहवमग्ने स्वस्त्यमर्त्यं गत्वा पुनरायाभिनन्दन्।
अनुहवं परिहवं परिवादं परिक्षवम्।
सर्वैर्मे रिक्तकुम्भान् परा तान् सवितः सुव।
अपपापं परिक्षवं पुण्यं भक्षीमहि क्षवम्।
शिवा ते पाप नासिकां पुण्यगश्चाभि मेहताम्।
इमा या ब्रह्मणस्पते विषूचीर्वात ईरते।
सध्रीचीरिन्द्र ताः कृत्वा मह्यं शिवतमास्कृधि।
स्वस्ति नो अस्त्वभयं नो अस्तु नमोऽहोरात्राभ्यामस्तु।
हरिः ॐ।

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