घर में 2 शिवलिंग, 3 गणेश मूर्तियाँ, 2 सूर्य मूर्तियाँ, 3 दुर्गा मूर्तियाँ, 2 शंख, 2 शालग्राम और 2 गोमती चक्रों की पूजा नहीं करनी चाहिए। इससे अशांति हो सकती है।
हाँ। यादवों ने आपस में लडकर और एक दूसरे को मार डाला। कृष्ण वैकुण्ठ लौट गये। अर्जुन ने शेष निवासियों को द्वारका से बाहर निकाला। तब द्वारका समुद्र में डूबी।
आज भागवत प्रवचन में हम देखेंगे कि धर्म का पालन करने का परिणाम क्या है। श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध के दूसरे अध्याय का १३वां श्लोक कहता है - अतः पुम्भिर्द्विजश्रेष्ठा वर्णाश्रमविभागशः। स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धि....
आज भागवत प्रवचन में हम देखेंगे कि धर्म का पालन करने का परिणाम क्या है।
श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध के दूसरे अध्याय का १३वां श्लोक कहता है -
अतः पुम्भिर्द्विजश्रेष्ठा वर्णाश्रमविभागशः।
स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धिर्ह्यात्मपोषणम्॥
इस श्लोक का समग्र अर्थ है - वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार भली - भांति आचरण किया गया धर्म का परिणाम यह है कि यह भगवन को प्रसन्न करता है।
अब हम इस श्लोक के प्रमुख शब्दों के महत्व को देखेंगे।
द्विजश्रेष्ठाः -
सूत जी नैमिषारण्य में शौनक प्रभृति ऋषियों को संबोधित कर रहे हैं।
द्विज कौन है?
द्विज वह है जिसने दो बार जन्म लिया है।
पहला जन्म - प्राकृतिक माता के गर्भ से।
दूसरा जन्म- गुरु द्वारा वैदिक ज्ञान प्राप्त करने से।
केवल यज्ञोपवीत पहनने से कोई द्विज नहीं बन जाता।
आपको एक निर्दिष्ट अवधि के लिए गुरु से सीखना होगा।
इस अवधि को भी गर्भावस्था माना जाता है।
इस दूसरी गर्भावस्था में गुरु माँ की भूमिका निभाते हैं।
और जब वह ज्ञान, वैदिक ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो गुरु के गर्भ से बाहर निललता है।
यह दूसरा जन्म है।
यह है द्विज का अर्थ।
जो लोग इस प्रक्रिया से नहीं गुजरे हैं, ऋषि व्यास उन्हें द्विजबन्धु , द्विजों के रिश्तेदार कहते हैं।
वे स्वयं द्विज नहीं हैं, वे द्विजों के रिश्तेदार हैं।
उपनयन इस दूसरी गर्भावस्था की शुरुआत है।
उपनयन किसी को द्विज कहलाने के लिए योग्य नहीं बनाता है।
यदि उपनयन किया जाता है और फिर वह एक गुरु से व्यवस्थित तरीके से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त नहीं करता है, तो उसे द्विजबंधु कहा जा सकता है, द्विज के रिश्तेदार।
जिस तरह हम एक मंत्री के रिश्तेदार या एक अभिनेता के रिश्तेदार कहते हैं।
अब यहाँ सूत ऋषियों को द्विजश्रेष्ठ कह कर संबोधित कर रहे हैं - द्विजों में श्रेष्ठ।
उनमें इतनी महानता कैसे आई?
क्योंकि इन्होंने ज्ञान के साथ साथ भक्ति का विकास किया है।
वे भगवन की कथा सुनने के लिए उत्सुक हैं।
यही उनकी परम श्रेष्ठता है।
वर्णाश्रमविभागशः
आपको याद होगा गीता का वचन -
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।
वर्ण - धर्म, समाज को चार वर्णों में विभक्त करना, स्वयं भगवन द्वारा किया गया कर्म है।
उन्होंने इसे गुण और कर्म के अनुसार किया।
यह जन्म के अनुसार है या नहीं, यह बहस का विषय है।
अब हम इसमें नहीं जाएंगे।
इस विषय में थोडा सोचिए।
व्यास जी अपने समय के सबसे सम्मानित ऋषियों में से थे।
जब तक सत्यवती ने यह प्रकट नहीं किया कि वे पराशर से उनका पुत्र है, तब तक उनके पिता कौन है माता कौन हाइ कोई नहीं जानता था।
कुरुवंश के राज्यसभा के एक प्रमुख सलाहकार विदुर की माता एक दासी थी।
तब भी उनको स्थान और सम्मान मिला।
वर्ण धर्म के जाति व्यवस्था में बदल जाने पर बहुत कुछ बिगड गया होगा।
गुण का अर्थ है सत्व रजस्तमो गुण।
किसी को अपने आंतरिक स्वभाव के आधार पर क्या करना चाहिए।
कर्म का मतलब है कि किसी को एक आजीविका के रूप में क्या करना चाहिए।
कर्म उपलब्ध व्यवसायों के बारे है तो गुण किसी व्यवसाय संलग्न होने के लिए किसी की योग्यता के बारे में बात करता है।
समाज का यह विभाजन आज भी है।
हमारे पास आज एक बौद्धिक वर्ग है - वैज्ञानिक, योजनाकार, सलाहकार, शिक्षाविद।
हमारे पास आज एक शासक वर्ग है - राजनेता, प्रबंधक, प्रशासक, रक्षा कर्मी जो रक्षा करते हैं।
हमारे पास आज एक कारोबारी वर्ग है - धन निर्माता, रोजगार के प्रदाता।
हमारे पास अज जनशक्ति वर्ग है - वे लोग जो सभी का्मों को निभाते हैं, साक्षात्कार करते हैं।
भगवान यही कहते हैं: मैं ने ही इस व्यवस्था को स्थापित किया है।
उस का पालन होते हुए देख कर भगवान तुष्ट हो जाते हैं।
गीता फिर कहती है -
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः
परधर्म को अपनाने से बेहतर है कि आप अपने धर्म को करते हुए मर जाएं।
परधर्म करने का परिणाम डरावना होता है।
श्रीमद्भागवत का सातवाँ स्कन्ध अधर्म को पांच प्रकार से वर्गीकृत करता है - विधर्म, परधर्म, अभास, उपमा और छल ।
आश्रम धर्म का अर्थ है - ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ, संन्यास - इस क्रम से जीवन की प्रगति।
प्रत्येक आश्रम के नियम और कार्य अलग अलग हैं।
ब्रम्हचारी का गुरु की सेवा करना कर्तव्य है।
दूसरों को आश्रय देना गृहस्थ का कर्तव्य है।
श्लोक कहता है कि यदि कोई वर्ण धर्म और आश्रम धर्म का पालन करते हुए अपना जीवन यापन करता है तो भगवन उस पर प्रसन्न होते हैं।
एक बार फिर स्पष्ट कर दूं कि मेरा मकसद यहां जाति व्यवस्था को समर्थन देना नहीं है।
स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य -
धर्म का ठीक से पालन किया जाता है।
धर्म का ठीक से पालन करना क्या है?
इसके छह पहलू हैं।
काल, देश, द्रव्य, मंत्र, कर्ता, कर्म।
इसे ध्यान में रखें, हर धार्मिक कार्य हम भगवन को खुश करने के लिए करते हैं।
आप शहर के बाहर से आनेवाले किसी मेहमान की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
कोई चाचा या मामा।
आप बहुत उत्सुक नहीं हैं उनके आने के लिए लेकिन आप मजबूर हैं।
आप शिकायत कर रहे हैं: उनको यहां क्यों आना चाहिए?
किसी होटल में जाकर क्यों नहीं रह सकते?
क्यों शहर में आने वाला हर रिश्तेदार हमें परेशान करता है।
चाचा इसे सुनते हुए आते हैं।
आपको पता नहीं है कि वे सुन रहे हैं।
उनको कैसा लगेगा?
आप उनका स्वागत करेंगे, सत्कार करेंगे, सब कुछ करेंगे।
लेकिन उनको पता चल गया है कि आपके मन में क्या है।
भगवान को पता आप किस मन से किस भावना से धार्मिक कार्य कर रहे हैं।
भगवान के लिए प्यार से श्रद्धा से नहीं किया तो भगवान खुश हो सकते हैं?
नहीं।
यही कारण है कि धार्मिक कार्य करते वक्त आपको इन छः - काल, देश, द्रव्य, मंत्र, कर्ता, कर्म के प्रति सावधान रहना होगा।
कार्य को सही समय पर करें।
यदि संध्यावंदन सूर्योदय के समय करना हो तो ८.३० या ९ बजे करने का कोई लाभ नहीं है।
देश - यदि तिरुपति में कुछ समर्पण करना हो तो उसे निकटवर्ती किसि मंदिर पर करने से कोई लाभ नहीं होगा
द्रव्य - उत्तम सामग्री का प्रयोग करें।
यदि आप तेल के लिए दूकान में जाते हैं तो वह पूछेगा, खाने के लिए या दिया जलाने के लिए।
दिया जलाने के लिए सस्ता मिलता है।
मतलब खुद के लिए अच्छा और भगवान के लिए सस्ता।
मंत्र - मंत्रोच्चार दोष रहित होना चाहिए।
कर्ता - धार्मिक कार्य करते समय शरीर और मन में पवित्रता चाहिए।
मन की अपवित्रता क्या है?
काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और ईर्ष्या
धार्मिक कार्य करते समय आपके मन में इनमें से कोई भी है, तो यह अशुद्ध है।
कर्म - प्रक्रिया दोष मुक्त होनी चाहिए।
इन सबको ध्यान में रखना होगा और इसके लिए प्रयास करना होगा।
भगवान सब कुछ देखते हैं, सुनते हैं।
वे तभी प्रसन्न होते जब धर्म का आचरण इस प्रकार से अच्छी तरह, पूर्णता से किया जाता है।
इसका परिणाम क्या है?
आत्मतोषणम्
भगवन् कहीं और नहीं है।
आपके अंदर हैं।
वे आपको अंदर रहकर नियंत्रण करते हैं।
इसलिए उन्हें अन्दर्यामी कहते हैं।
उनके आशीर्वाद के बिना आप धर्म का पालन नहीं कर पाएंगे।
धर्म के पालन में उन्हें प्रसन्न करने के अतिरिक्त अन्य कोई लक्ष्य नहीं है।
अगर आप धर्म का पालन सकाम भावना से करेंगे तो शायद स्वास्थ्य, धन, घर, वाहन, अच्छे पति या पत्नी, बच्चे इत्यादि पा सकते हैं।
पर भगवान इस से प्रसन्न नहीं होंगे।
इस तरह से धर्म करने से आपको उनकी कृपा प्राप्त नहीं होगी।
किसी इच्छा के साथ धर्म करो, आप उस इच्छा को पाएंगे
इच्छा के बिना धर्म पूर्णता से करेंगे तो भगवान आपको और करीब आने देंगे।
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