धृतराष्ट्र उवाच – कहते हैं वैशम्पायन राजा जनमेजय से।
धृतराष्ट्र ने कहा –
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।
धर्मक्षेत्र है कुरुक्षेत्र क्योंकि पहले ही परशुरामजी ने यहां अधर्म का निवारण कर चुके हैं। दुष्ट, क्रूर और घमंडी क्षत्रियों की इक्कीस वंश परम्पराओं का उन्होंने यहीं पर विनाश किया था। हस्तिनापुर के चारों ओर के मैदान को कुरुक्षेत्र कहते हैं। कौरव और पाण्डवों के पूर्वज राजा कुरु ने इसे क्षेत्र यानि खेत बनाया था।
जब इन्द्र ने उन्हें वरदान दिया कि इस भूमि में जो तप करेगा या युद्ध में वीर मृत्यु को प्राप्त करेगा, उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी। इसके बाद राजा ने वहां खेती करना बन्द कर दिया। देखा जाए तो आज भी हमारे महान देश की राजधानी इसी धर्मक्षेत्र में स्थित है।
संजय, धृतराष्ट्र को वहां से भीष्म पितामह के आहत होने की खबर सुनाते हैं। दस दिनों तक भीष्मजी ने कौरवों की रक्षा की थी उनके सेनापति के रूप में। इसको सुनकर धृतराष्ट्र दुखी हो गये। दुख से निवृत्त होने के बाद वे संजय से पूछते हैं – वहां मेरे पुत्र और पाण्डवों ने आपस में क्या-क्या किया?
धृतराष्ट्र पहले भी कई वृत्तांत सुन चुके हैं, जिनसे लगभग यह तय हो चुका था कि कौरव हारने वाले हैं युद्ध में। भीष्म पितामह के साथ वहां क्या हुआ था? वे स्वयं गिर पड़े या पाण्डवों ने उन्हें मार गिराया? धृतराष्ट्र जानते हैं कि उनके पुत्र अधर्मी हैं। उनको जानना है कि उन्होंने युद्ध भूमि में धर्म का आचरण किया या अधर्म का? यह भी कि युद्ध हुआ कि नहीं, क्योंकि युद्ध रुक भी सकता है।
पाण्डवों को भीष्मादियों को देखकर और कौरवों को देखकर उनके मन में भय उत्पन्न हो सकता है। या कौरवों को धर्मबुद्धि आ गई हो, उस धर्मक्षेत्र ने उन पर कुछ प्रभाव डाला हो। पाण्डव भी अपने गुरु और भीष्म पितामह जैसे लोगों से शायद नहीं लड़ेंगे। क्या हुआ? युद्ध हुआ कि नहीं?
पाण्डव धर्म परायण हैं, तब भी उन्होंने अपने गुरु द्रोणाचार्य जैसे लोगों को कैसे मारा? संजय से क्यों पूछते हैं? संजय केवल युद्ध के साक्षी नहीं हैं। संजय को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई है। संजय सब कुछ जानते हैं। संजय को दिव्य दृष्टि किसने दी थी? व्यासजी ने।
व्यासजी ने पहले धृतराष्ट्र को पूछा था – चाहे तो आपको दिव्य दृष्टि दे देता हूं, एक ही स्थान पर बैठकर सब कुछ देखने की। धृतराष्ट्र कहे –
तब उन्होंने संजय को दिव्य दृष्टि दी। इस दिव्य दृष्टि से जब संजय देखते हैं, उसमें राग और द्वेष का कोई स्थान नहीं। उन्हें यथातथ्य ही सब कुछ दिखाई देता है और वे यथातथ्य ही बताते हैं।
यहां पर इन शब्दों को देखिए –
'मामकाः' – मेरे – मेरे पुत्र, और 'पाण्डव' – जो मेरे नहीं हैं, अन्य हैं, पराये हैं। जबकि चाचा पिता के समान हैं। उनको ऐसा भेदभाव नहीं रखना चाहिए था। इस ममता ने उन्हें अन्धा बना दिया। आंखों में भी रोशनी नहीं और मन में भी रोशनी नहीं। सद्विचार मन की रोशनी है। पुत्रों के साथ ममता ने, पक्षपात ने, धृतराष्ट्र को अन्दर से भी अन्धा बना दिया।
सच में देखा जाए तो यह धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र क्या है?
हमारा ही शरीर।
'कुरु' का संस्कृत में अर्थ है – करो, करो, करो, करो।
कौरवों के लिए यह वह भूमि है जो उन्हें स्वार्थता के वशीभूत होकर काम कराती रहती है। और पाण्डवों के लिए धर्म के पुनः संस्थापन की भूमि।
इससे हम धर्म का आचरण करेंगे तो यह मोक्ष का साधन बनकर धर्मक्षेत्र हो जाएगा। इससे पाप का आचरण करेंगे तो यह कुरुक्षेत्र बन जाएगा।
कौरव आसुरी वृत्तियों का प्रतीक हैं। पाण्डव दैवी वृत्तियों का। हमारे शरीर में भी यह संग्राम चलता रहता है – आसुरी और दैवी वृत्तियों के बीच। इसे अनुभव कर सकते हैं, केवल सिद्धान्त नहीं।
एक और बात –
इस क्षेत्र को जो हममें से हर एक के अंदर विद्यमान है, इसे धर्मक्षेत्र बनाना है या कुरुक्षेत्र/कर्मक्षेत्र बनाना है, यह विकल्प हमारे पास है। धर्म का आश्रय लेना है, या जैसे आजकल सिखाया जाता है – अपनी क्षमता पर विश्वास रखो, प्रयास से सब कुछ पाया जा सकता है।
यह 'पाना' जो है न, पाना क्या है? विषय सुख, सम्पत्ति, गाड़ियां, शारीरिक सुख-भोग – इसका आश्रय लेना है, यह भी हमें ही चुनना है।
'क्षेत्र' का अर्थ देखा हमने – खेत।
इस खेत में, हमारे अंदर जो खेत है, इसमें किस तरह का बीज बोना है – यह भी हमारे हाथ में ही है। जैसा बीज, वैसी फसल। इसमें करुणा, सहानुभूति, सत्य – इनके बीज बोओ, आपको फसल के रूप में अनुभव करने वही मिलेंगे। इसके विपरीत काम, क्रोध, मद आदि के बीज बोकर देखो – अनुभव में भी वही मिलेंगे। दूसरे लोग आपके साथ इसी प्रकार से व्यवहार करेंगे।
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