दोहावली में तुलसीदास जी भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार आदि विषयों में अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करते हैं।
१. सत्त्वगुणप्रधान ज्ञानशक्ति २. रजोगुणप्रधान क्रियाशक्ति ३. तमोगुणप्रधान मायाशक्ति ४. विभागों में विभक्त प्रकृतिशक्ति ५. अविभक्त शाम्भवीशक्ति (मूलप्रकृति)।
Veda calls humidity in the atmosphere Agreguvah (अग्रेगुवः). It is also called Agrepuvah (अग्रेपुवः) since it purifies the atmosphere.
परोपकारार्थमिदं शरीरम्
परोपकार - दूसरों की सहायता करना| दूसरों की सहायता करने के ....
Click here to know more..अगर धर्म को मूर्त रूप में देखना है तो रामजी को देखिए
विष्णु दशावतार स्तुति
मग्ना यदाज्या प्रलये पयोधा बुद्धारितो येन तदा हि वेदः। म....
Click here to know more..ध्यान
राम बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर । ध्यान सकल कल्यानमय सुरतरु तुलसी तोर ॥१॥
भावार्थ–भगवान् श्रीरामजीकी वायीं ओर श्रीजानकीजी हैं। और दाहिनी ओर श्रीलक्ष्मणजी हैं -- यह ध्यान सम्पूर्णरूपसे कल्याण- मय है । हे तुलसी ! तेरे लिये तो यह मनमाना फल देनेवाला कल्प- वृक्ष ही है ॥ १ ॥
सीता लखन समेत प्रभु सोहत तुलसीदास ।
हरषत सुर बरषत सुमन सगुन सुमंगल बास ॥२॥
भावार्थ — तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीसीताजी और श्रीलक्ष्मण- जीके सहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सुशोभित हो रहे हैं, देवतागण हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं । भगवान्का यह सगुण ध्यान सुमङ्गल-- परम कल्याणका निवासस्थान है ॥ २ ॥
पंचबटी बट बिटप तर सीता लखन समेत ।
सोहत तुलसीदास प्रभु सकल सुमंगल देत ॥३॥ भावार्थ-पंचवटीमै वटवृक्षके नीचे श्रीसीताजी और श्रीलक्ष्मणजी- समेत प्रभु श्रीरामजी सुशोभित हैं । तुलसीदासजी कहते हैं कि यह ध्यान सब सुमङ्गलोंको देता है ॥ ३ ॥
राम-नाम-जपकी महिमा
चित्रकूट सब दिन बसत प्रभु सिय लखन समेत ।
राम नाम जप जापकहि तुलसी अभिमत देत ॥४॥ भावार्थ - श्रीसीताजी और श्रीलक्ष्मणजीसहित प्रभु श्रीरामजी चित्रकूट में सदा-सर्वदा निवास करते हैं । तुलसीदासजी कहते हैं कि थे राम-नामका जप जपनेवालेको इच्छित फल देते हैं ॥ ४ ॥
पय अहार * फल खाइ जपु राम नाम षट मास । सकल सुमंगल सिद्धि सब करतल तुलसीदास ॥५॥
भावार्थ - छ: महीनेतक केवल दूधका आहार करके अथवा फल खाकर राम-नामका जप करो। तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसा करनेसे सब प्रकारके सुमङ्गल और सब सिद्धियाँ करतलगत हो जायँगी (अर्थात अपने-आप ही मिल जायँगी ) ॥ ५ ॥
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरों द्वारा ।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर ॥६॥ भावार्थ -तुलसीदासजी कहते हैं कि यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश (लौकिक एवं पारमार्थिक ज्ञान ) चाहता है तो सुखरूपी दरवाजेकी देहलीपर रामनामरूपी [हवाके झोंके अथवा तेलकी कमीसे कभी न बुझनेवाला नित्य प्रकाशमय ] मणिदीप रख दो (अर्थात् जीभके द्वारा अखण्डरूपसे श्रीराम-नामका जप करता रह) ॥ ६ ॥
हियँ निर्गुन नयनन्हि सगुन रसना राम सुनाम ।
मनहुँ पुरट संपुट लसत तुलसी ललित ललाम ॥७॥ भावार्थ - हृदयमें निर्गुण ब्रह्मका ध्यान, नेत्रोंके सामने प्रथम तीन दोहोंमें कथित सगुण स्वरूपकी सुन्दर झाँकी और जीभसे सुन्दर राम-नामका जप करना । तुलसीदासजी कहते हैं कि यह ऐसा है मानो सोनेकी सुन्दर डिवियामें मनोहर रत्न सुशोभित हो । श्रीगुसाईंजीके मतसे 'राम' नाम निर्गुण ब्रह्म और सगुण भगवान् दोनोंसे बड़ा है- 'मोरें मत वड़ नाम दुहू तें' । नामकी इसी महिमाको लक्ष्यमें रखकर यहाँ नामको रत्न कहा गया है तथा निर्गुण ब्रह्म और सगुण भगवान्को उस अमूल रत्नको सुरक्षित रखनेके लिये सोनेका सम्पुट (डिबियाके नीचे-ऊपरके भाग) बताया गया है ॥ ७ ॥ सगुन ध्यान रुचि सरस नहि निर्गुन मन ते दूरि ।
।
तुलसी सुमिरहु रामको नाम सजीवन भूरि ॥८॥
भावार्थ – सगुणरूपके ध्यान में तो प्रीतियुक्त रुचि नहीं है और निर्गुणस्वरूप मनसे दूर है (यानी समझमें नहीं आता ) । तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसी दशामें रामनाम - स्मरणरूपी संजीवनी टीका सदा सेवन करो ॥ ८ ॥
एक छत्र एक मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ ।
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