आसीना सरसीरुहे स्मितमुखी हस्ताम्बुजैर्बिभ्रति दानं पद्मयुगाभये च वपुषा सौदामिनीसन्निभा । मुक्ताहारविराजमानपृथुलोत्तुङ्गस्तनोद्भासिनी पायाद्वः कमला कटाक्षविभवैरानन्दयन्ती हरिम् ॥
हैदराबाद से २१५ कि.मी. दूरी पर श्रीशैल पर्वत पर मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग स्थित है।
पिछले श्लोक में हमने तत्वजिज्ञासा शब्द देखा था। तत्त्व को जानने की उत्सुकता। वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने की उत्सुकता, जानकारी नहीं, ज्ञान। अब, श्रीमद्भागवत के पहले स्कंध के दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से त....
पिछले श्लोक में हमने तत्वजिज्ञासा शब्द देखा था।
तत्त्व को जानने की उत्सुकता।
वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने की उत्सुकता, जानकारी नहीं, ज्ञान।
अब, श्रीमद्भागवत के पहले स्कंध के दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से तीन प्रश्नों का उत्तर मिलता है।
वदन्ति तत्तत्त्वतिदस्तत्त्व यज्ञानमद्वयम्।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते॥
प्रश्न हैं-
तत्त्व का अर्थ क्या है?
किसे तत्त्ववेत्ता या तत्त्व का जानकार कहते हैं?
ब्रह्म, परमात्मा और भगवान शब्दों के बीच में क्या संबंध है या क्या अन्तर है?
तत्त्व क्या है?
तत्व का अर्थ है वास्तविक ज्ञान।
शुद्ध ज्ञान।
सब कहते हैं मेरा ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है।
मैं जिस पर विश्वास करता हूं, जो उपदेश देता हूं, वही परम सत्य है।
मैं अन्य धर्मों के बारे में भी बात नहीं कर रहा हूं।
हिंदू धर्म के भीतर भी, बहुत सारे परस्पर विरोधी तर्क, विचार हैं।
सब कहते हैं, मैं जो कहता हूं वही परम सत्य है।
लेकिन फिर शुद्ध सत्य, परम सत्य, तत्त्व क्या है?
वेद।
वेद शुद्ध ज्ञान है।
वेद तत्त्व है।
वेद में जो कुछ है, उसके बारे में जिज्ञासा तत्त्वजिज्ञासा है।
लेकिन भागवत स्वयं कहता है कि वेद भ्रमित कर देता है।
मुह्यन्ति यत्सूरयः
जब वेद की बात आती है तो विद्वान भी भ्रमित हो जाते हैं।
वे वेद के भीतर अंतर्विरोध को देखते हैं।
उन्हें लगता है कि उन्हें एक निर्धारण देना होगा विद्वान होने के नाते और कहना होगा कि वेद का यह हिस्सा हीन है और यह हिस्सा ही श्रेष्ठ है।
वेद का यह भाग निम्नतर मनुष्यों के लिए है, कम बुद्धि वालों के लिए और यह भाग बुद्धिजीवियों के लिए है।
इन बुद्धिजीवियों को वेद के ही किसी अंश पर शर्म आती है।
मुह्यन्ति यत्सूरयः
विद्वान ही क्यों?
ऋषि भी भ्रमित हो गए हैं।
कोई पूर्ण रूप से तभी ऋषि कहलाता है जब उन्होंने ऐसे सभी अंतर्विरोधों के भ्रम को दूर किया हो।
ऋषि होना भी एक प्रगतिशील कार्य है।
यदि ऐसा नहीं है तो वे ऋषि होने के बाद भी तपस्या क्यों करते हैं?
अधिक प्रयास क्यॊ करते हैं?
आप देखेंगे कि अधिकांश समय ऋषि यही तप करते हैं।
वे काम करते ही जा रहे हैं, प्रगति करते ही जा रहे हैं।
एक वास्तविक ऋषि, एक पूर्ण ऋषि तत्ववेत्ता, तत्व के ज्ञाता, वेद के ज्ञाता हैं।
वे इन अंतर्विरोधों के भ्रम से परे जा चुके हैं।
उन्होंने सारे द्वैत को पार कर लिया है, सारे द्वैत से छुटकारा पा लिया है।
उन्होंने अद्वैत, अद्वैत को साकार किया है।
उस अवस्था में उन्हं एहसास होगा कि-
जिसे वेद ब्रह्म कहता है, जिसे स्मृतियाँ परमात्मा कहती हैं, और जिसे पुराण भगवान कहते हैं- वे एक ही हैं।
वे एक ही सत्य के बस अलग-अलग नाम हैं।
इस श्लोक में भागवत यही बताता है।
भागवत में जो है वह तत्त्व है, वेद है।
अध्यात्म का एक और परीक्षण नहीं, एक और विकल्प नहीं।
अन्य मार्ग सफल हो सकते हैं, असफल हो सकते हैं।
उनकी सफलता दावा है।
भागवत वेद है, तत्त्व है।
भागवत कभी असफल नहीं हो सकता।
भागवत की यह सलाह आज भी बहुत प्रासंगिक है।
भागवत किसी को तत्त्ववेत्ता समझेगा जब वह वेदों को शुरू से अंत तक जानता हो, पहले अंतर्विरोधों को देखने के बाद है उन सभी को सुलझा चुका हो।
इसमें सैकड़ों साल या हजारों साल लग सकते हैं।
आज हमारे पास ऐसे गुरुजी हैं जो कहते हैं कि उन्होंने एक वर्ष, तीन वर्ष या बारह वर्ष तक हिमालय में या किसी पहाड़ी की चोटी पर ध्यान किया और ज्ञान को प्राप्त किया।
भागवत हमें वेद के तत्त्व पर विश्वास करने के लिए कहता है।
जो ऋषियों के माध्यम से हमारे पास आया है।
न कि एक बारह साल के लंबे ध्यानी का तथाकथित अनुमान, जो एक मतिभ्रम भी हो सकता है।
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