श्रीभगवानुवाच -
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥9.1 ॥
(9.34) हे अर्जुन! यह आदि बीज जो मेरे हृदय के अन्तःकरण का गुह्य है सो मैं तुम्हें फिर बतलाता हूँ।
(9.35) यदि तुम सोचते हो कि इस प्रकार मैं अपने हृदय फोड कर यह गुह्य क्यों प्रकट कर रहा हूँ, (9.36) तो हे बुद्धिमान्। सुनो। तुम केवल आस्था की मूर्ति हो और हमारे किये हुए निरूपण की अवज्ञा करना नहीं जानते।
(9.37) इसलिए हम चाहते हैं कि हमारा गुह्य चाहे प्रकट हो जाय, न कहने की बात भी चाहे कह दी जाय, पर हमारे हृदय की वस्तु तुम्हारे हृदय में अवश्य जा बसे।
(9.38) अजी थनों में दूध भरा रहता है सही, पर उसका मीठा आस्वाद थनों को नहीं मिलता। यदि एकनिष्ठ प्रेम करनेहारा वत्स मिले तो गौ उसी की इच्छा पूर्ण करती है।
(9.39) कोठी में से बीज निकाल कर यदि तैयार की हुई भूमि में बोया जाय तो क्या वह बिखरा-बिथरा कहा जा सकता है?
(9.40) इसलिए यदि कोई प्रसन्न अन्तःकरण का हो, और शुद्धबुद्धि हो, निन्दा करनेहारा न हो, और एकनिष्ठ प्रेम करनेहारा हो, तो गुह्य भी आनन्द से उस पर प्रकट कर देना चाहिए।
(9.41) सम्प्रति इन गुणों से युक्त तुम्हारे सिवाय और कोई नहीं है, इसलिए यद्यपि यह हमारा गुह्य है तथापि तुमसे छिपाया नहीं जा सकता।
(9.42) अब हमारे इसे बारम्बार गुह्य कहते हुए तुम्हें उकताहट मालूम हुई होगी, इसलिए हम विज्ञान सहित उस बात का निरूपण करते हैं।
(9.43) परन्तु वह इस प्रकार छानकर कहते है कि जैसे सत्य और असत्य बातें मिली हुई हों और परीक्षा से स्पष्ट कर अलग कर दी जायें
(9,44) अथवा जैसे राजहंस चोंच की सँड़सी से दूध और पानी अलग अलग कर देता है, वैसे ही हम तुम्हें ज्ञान और विज्ञान अलग अलग कर बतावेंगे।
(9.45) जैसे वायु के प्रवाह से पड़ा हुआ भूसा उड़ जाता है और साथ ही धान्य के कणों की ढेरी लग जाती है,
(9.46) वैसे ही ज्ञान की प्राप्ति के साथ ही मनुष्य संसार को संसार के हवाले कर मोक्षलक्ष्मी के सिंहासन पर जा बैठता है।
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