महाभारत पृथ्वी की सतह पर एक देवासुर युद्ध था।
देवों ने पांडवों और उनके सहयोगियों के रूप में अवतार लिया।
असुरों ने कौरवों और उनके सहयोगियों के रूप में अवतार लिया।
जरासंध विप्रचित्ति नामक दानव का अवतार था।
दनु और कश्यप के पुत्रों में विप्रचित्ति सबसे प्रमुख था।
पांडवों को आधा राज्य मिला।
उन्होंने इंद्रप्रस्थ को अपनी राजधानी बनाया।
अब साम्राज्य का विस्तार करना था।
युधिष्ठिर को सम्राट बनने के लिए राजसूय यज्ञ करना था।
इससे पहले चारों दिशाओं के राज्यों के ऊपर विजय प्राप्त करनी होगी।
अन्य राज्यों को अपने अधीन में लाना होगा।
कोई राजा यदि वह राजसूय को सफलतापूर्वक पूरा करता है तो वह सर्वजित (सभी का विजेता) बन जाता है।
मगध के जरासंध उनकी सबसे बड़ी चुनौती थी।
कृष्ण युधिष्ठिर को जरासंध की शक्ति के बारे में बताते हैं-
जरासंध पृथ्वी के मध्य भाग के सम्राट है।
उसने अन्य सभी राजाओं को अपने वश में कर लिया है।
वह सभी राजाओं का स्वामी है।
शिशुपाल उसका सेनापति बनकर सेवा करता है।
करुष के राजा, मायावी दंतावक्र उसका शिष्य बन चुका है।
हंस, डिंभक, मेघवाहन और करभ - सभी महान योद्धा - जरासंध के अधीन हो गए हैं।
यवनों के राजा, पश्चिम में सबसे शक्तिशाली, भगदत्त जिन्होंने नरक और मुर को हराया, वे भी जरासंध के सामने अपना सिर झुकाते हैं।
पौंड्रक वासुदेव उसकी सेवा करता है।
भीष्मक (रुक्मिणी के पिता) दुनिया के एक चौथाई पर शासन करते हैं, जरासंध को सम्मान देते हैं।
उत्तर के भोजों के अठारह वंश जरासंध के भय से पश्चिम की ओर भाग गए हैं।
जरासंध के डर से शूरसेन, भद्रकार, बोध, शाल्व, पटच्चर, सुस्थल, सुकुट्ट, कुलिंद, कुंति और शाल्वायन जैसे राजा दक्षिण की ओर भाग गए हैं।
यहां तक कि दक्षिण पांचाल, पूर्व कुंती, कोसल, मत्स्य और संन्यासपद के राजा भी दक्षिण की ओर भाग गए हैं।
पांचाल के सभी क्षत्रिय जहां कहीं भाग सकते थे, भाग गए हैं।
कंस ने जरासंध की दो पुत्रियों से विवाह किया है।
कंस ने अपनी शक्ति जरासंध से प्राप्त की।
यदि कृष्ण के अधीन यादवों के अठारह कुल और बलराम मिलकर भी ३०० वर्षों तक प्रयास करेंगे, तब भी वे जरासंध को हरा नहीं पाएंगे।
जरासंध द्वारा लगातार हमले के तहत उन्हें मथुरा छोडकर द्वारका जाना पड़ा।
मगध के राजा थे बृहद्रथ।
वे एक महान शासक थे और उन्होंने कई यज्ञ किए।
वे इंद्र के समान शक्तिशाली, सूर्य के समान तेजस्वी, भूमि के समान सहिष्णु, यम के समान उग्र और कुबेर के समान धनवान थे।
उनकी दो पत्नियाँ थीं, दोनों काशी की राजकुमारियाँ।
वे उन दोनों को एक जैसे चाहते थे।
उनके बच्चे नहीं थे।
एक बार, एक बहुत शक्तिशाली मुनि, चंडकौशिक उनकी राजधानी में आये।
राजा ने मुनि को अपनी समस्या बताई।
उन्होंने एक आम लिया, कुछ मंत्रों का जाप किया और राजा को आशीर्वाद के रूप में दे दिया।
मुनि ने कहा: यह रानी को दे दो।
बृहद्रथ वापस आए, आम को दो भागों में बाँट कर उनकी दोनों रानियों को आधा-आधा दे दिया।
वे पक्षपात नहीं दिखाना चाहते थे।
वे दोनों गर्भवती हो गईं।
आम को विभाजित नहीं किया जाना चाहिए था।
हर एक ने आधे बच्चे को जन्म दिया।
प्रत्येक आधे में एक आँख, एक हाथ, एक पैर आदि थे।
दोनों ही मृत पैदा हुए थे।
दोनों भाग अलग-अलग लपेटे गये और चौराहे पर छोड़ दिये गये।
थोड़ी देर बाद, जरा नामक एक आदमखोर राक्षसी वहां आयी।
उसने उस बच्चे के दो हिस्सों को देखा।
उसने उन्हें एक साथ रखा ताकि उसे ले जाना आसान हो जाए।
वह उन्हें बाद में खाना चाहती थी।
जैसे ही उसने दोनों हिस्सों को एक साथ रखा, बच्चा जीवित हो गया।
उसका शरीर हीरे जैसा कठोर था।
उसने उनकी मुट्ठियाँ भींच लीं और गड़गड़ाहट की तरह गरजने लगा।
यह दहाड़ सुनकर राजा-रानी समेत सभी लोग आ गए।
उन्हें समझ में आया कि क्या हुआ।
जरा ने बालक को वापस उन्हें दे दिया।
राजा ने उससे पूछा कि वह कौन थी।
उसने कहा: मैं एक राक्षसी हूँ।
मैं कोई भी रूप धारण कर सकती हूं।
मैंने दानवों को नष्ट करने के लिए जन्म लिया।
मैं आपके राज्य में सुखपूर्वक रह रही हूँ।
लोग अपने घरों में मेरी तस्वीर बनाकर पूजा करते हैं।
मैं उनकी रक्षा करती हूं और उन्हें धन देती हूं।
आप एक अच्छे राजा हैं।
अब अपने बेटे को वापस ले लीजिए।
बृहद्रथ ने अपने पुत्र का नाम जरासंध इसलिए रखा क्योंकि वह जरा द्वारा जॊडा गया था।
जन्म की इन रहस्यमय परिस्थितियों के कारण जरासंध बहुत शक्तिशाली हो गया।
कुछ समय बाद मुनि चन्दकौशिक पुनः मगध आए।
उन्होंने बृहद्रथ से कहा:
आपका पुत्र सबसे सुन्दर, बलवान और पराक्रमी होगा।
कोई दूसरा राजा उसकी बराबरी नहीं कर पाएगा।
सारे राजा उसके आश्रित हो जाएंगे।
जो कोई भी उसे रोकेगा वह उसे नष्ट कर देगा।
दिव्यास्त्र भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे।
वह शिव का भक्त होगा
जरासंध का राज्याभिषेक करने के बाद, बृहद्रथ और उनकी रानियां तपस्या करने के लिए जंगल में चले गए।
क्योंकि कृष्ण ने उसके दामाद कंस को मार डाला, जरासंध उनके दुश्मन बन गए।
कृष्ण से युद्ध की घोषणा करते हुए जरासंध ने मगध से मथुरा तक एक गदा फेंका।
यह ९९ योजन की दूर पार करके कृष्ण के सामने आ गिरा।
जिस स्थान पर गदा गिरा वह स्थान गदावसन कहलाता है।
जरासंध के दो साथी थे, हंस और डिंडिभ।
वे अजेय थे।
वे बहुत बुद्धिमान रणनीतिकार थे।
उनके साथ जरासंध और अधिक शक्तिशाली हो गया।
एक बार बलराम और हंस ने अठारह दिनों तक युद्ध किया।
डिंभक के पास खबर आई कि हंस मारा गया है।
उसने यमुना में कूदकर आत्महत्या कर ली।
लेकिन हंस वापस आ गया।
जब उसे पता चला कि डिंभक मर गया है तो उसने भी यमुना में कूद कर अपनी जान दे दी।
इससे जरासंध क्रोधित और निराश हो गया।
कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा:
राजसूय से पहले जरासंध का वध कर देना चाहिए।
उसे विशाल सेनाओं द्वारा छुआ नहीं जा सकता।
वह केवल आमने-सामने की लड़ाई में ही मारा जा सकता है।
मुझे रणनीति पता है।
अर्जुन में विजय है।
भीम में शक्ति है।
हम तीनों मिलकर उसे मारेंगे।
समय भी उचित है क्योंकि जरासंध को अब हंस और डिंभक का साथ नहीं है।
मगध की राजधानी थी गिरिव्रज।
गिरिव्रज के पास, चैत्यक नामक एक पवित्र पर्वत था।
जरासंध और उनकी प्रजा इस पर्वत की पूजा करते थे।
एक बार जरासंध ने यहां ऋषभ नामक राक्षस का वध किया था।
राक्षस ने बैल का रूप धारण करके आया था।
जरासंध ने उसकी खाल से तीन ढोल बनवाए।
एक बार बजाने पर, वे पूरे एक महीने तक गूंजते रहते थे।
कृष्ण, भीम और अर्जुन सीधे चैत्यक पर गए।
उन्होंने पहाड़ की चोटी और उन ढोलों को तोड डाला।
फिर वे बिना किसी हथियार के राजधानी में प्रवेश कर गए।
वे ब्राह्मण के वेश में थे।
जरासंध यज्ञ कर रहा था।
ब्राह्मणों को देखते ही उसने उठकर प्रणाम किया।
कृष्ण ने जरासंध को बताया कि उनके साथ आये दो लोग आधी रात तक मौन व्रत में रहेंगे।
जरासंध ने उनसे पूछा: आपने जिस तरह से कपड़े पहने हैं और आपकी उंगलियों पर धनुष का निशान है, ऐसा नहीं लगता कि आप ब्राह्मण हैं।
यहाँ आने से पहले आपने हमारे पवित्र पर्वत को नष्ट कर दिया।
आप कौन हैं?
आपके आगमन का उद्देश्य क्या है?
कृष्ण ने कहा: जिस तरह से हमने आपके शहर में प्रवेश किया है, तुम्हें यह स्पष्ट होना चाहिए कि हम तुम्हारे मित्र नहीं हैं।
हम यहां तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार करने नहीं आए हैं।
जरासंध: लेकिन मुझे याद नहीं है कि मैंने आपका कोई नुकसान किया है।
मैं हमेशा क्षत्रिय धर्म का पालन करता हूं।
मैं निर्दोषों को कभी नुकसान नहीं पहुंचाता हूं।
कोई भूल हुई होगी कि आप यहां आए हैं।
कृष्ण: हम एक क्षत्रिय के आदेश पर आए हैं जो अपने धर्म से कभी विचलित नहीं होते हैं।
तुमने बहुत से राजाओं को बन्दी बना रखा है।
तुम उनका बलि देना चाहते हो।
तुम कुलीन क्षत्रियों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार कर रहे हो।
क्या यही तुम्हारा धर्म है?
हम तुम्हें मारने और उन्हें बचाने के लिए यहां आए हैं।
तुम सोचते हो कि तुम्हारी ताकत का मुकाबला कोई नहीं कर सकता।
कोई फर्क नहीं पड़ता।
एक क्षत्रिय के लिए, युद्ध में मरना स्वर्गारोहण का एक निश्चित मार्ग है।
युद्ध में मृत्यु जीत के बराबर है।
अब अहंकार मत करो।
अब, तुम्हारे सामने तुम्हारे बराबरी के लोग बैठे हैं।
उसके बाद कृष्ण ने उसे उनकी असली पहचान बताई।
जरासंध : जिन्हें मैंने बंदी बनाया है, उन्हें पहले युद्ध में पराजित किया है।
यह क्षत्रिय धर्म का उल्लंघन नहीं है।
मैं उन्हें तुम्हारे डर से जाने नहीं दूँगा।
मैं लड़ने के लिए तैयार हूं।
एक, दो या आप तीनों के साथ।
एक आकाशवाणी हुई थी कि जरासंध भीम द्वारा ही मारा जाना चाहिए।
यही कारण था कि गोमंत पर्वत पर उनके साथ लड़ाई के दौरान कृष्ण और बलराम ने उसे छोड दिया था।
कृष्ण ने जरासंध को अपना विरोधी चुनने के लिए कहा।
उसने भीम को चुना।
उसके पुरोहितों ने जरासंध को जीत के लिए मंत्र जापकर सज्ज किया।
कृष्ण ने भीम के लिए देवताओं का आवाहन किया।
दोनों खुशी-खुशी लड़ने लगे।
वे दोनों ही वास्तव में शक्ति और वीरता में समान थे।
उनके लड़ते-लड़ते धरती कांप उठी।
उन्हें लड़ते हुए देखने के लिए हजारों की भीड़ जमा हो गई।
वे तेरह दिनों तक बिना भोजन या नींद के लड़ते रहे।
चौदहवीं रात को जरासंध ने विश्राम का आह्वान किया।
कृष्ण ने भीम को संकेत दिया: तुम्हें थके हुए व्यक्ति के साथ लड़ाई को लम्बा नहीं करना चाहिए।
वह थकावट से मर सकता है (मतलब - जरासंध को मारने का समय आ गया है)।
कृष्ण ने भीम से कहा: मुझे अपने पिता वायुदेव की ताकत दिखाओ।
भीम ने जरासंध को उठाकर उनके सिर के ऊपर से घुमाना शुरू कर दिया।
कृष्ण ने बेंत की जैसी कोमल घास (नरकट) को उठाया, उसे दो भागों में चीर दिया।
यह भीम के लिए संकेत था कि जरासंध को दो भागों में चीर देना चाहिए।
याद रहे, जरासंध के शरीर में जीवन सामान्य तरीके से नहीं आया था।
जीवन तब आया जब उसके शरीर के दो हिस्से आपस में जुड़ गए।
जीवन उसके शरीर को तब तक नहीं छोड़ेगा जब तक दोनों हिस्से एक साथ रहेंगे।
भीम ने जरासंध को नीचे गिराया और अपने घुटनों से उनकी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी।
फिर भीम ने जरासंध के एक पैर को अपने पैर से दबा कर अपने हाथों से उसका दूसरा पैर पकड़ लिया।
और उसके शरीर को लंबवत दो हिस्सों में चीर डाला।
दोनों हिस्से एक साथ वापस जुड गए।
जरासंध उठा और फिर लड़ने लगा।
कृष्ण ने एक और घास उठाई, उसके दो टुकड़े करके इस बार उन्हें विपरीत दिशाओं में फेंक दिया।
बाएं हाथ का टुकड़ा दाहिनी ओर फेंका गया।
दाहिने हाथ का टुकड़ा बाईं ओर फेंका गया था।
भीम को संकेत मिला।
उन्होंने जरासंध के शरीर को फिर से चीर डाला, और दोनों हिस्सों को विपरीत दिशाओं में फेंक दिया।
जैसे कृष्ण ने दिखाया था।
दोनों हिस्से उल्टे स्ठानों पर होने के कारण वापस जुड नहीं पाए।
जरासंध मारा गया।
बंदी राजाओं को रिहा कर दिया गया।
सभी ने कृष्ण और पांडव भाइयों के प्रति आभार व्यक्त किया।
कृष्ण ने उन्हें राजसूय यज्ञ में भाग लेने के लिए कहा।
जरासंध के पुत्र सहदेव को मगध का राजा बनाया गया।
कुरुक्षेत्र युद्ध के दौरान सहदेव पांडवों का सहयोगी बना।
वह सेना की एक अक्षौहिणी को कुरुक्षेत्र में ले आया।
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