चार्वाक दर्शन एक प्राचीन भारतीय सिद्धांत है जो जीवन में आनंद और खुशी की खोज पर जोर देता है। यह इस विश्वास पर आधारित है कि जीवन का आनंद लेना चाहिए और इसे बहुत गंभीरता से नहीं लेना चाहिए।
अधिकतर लोगों का विश्वास यह है कि ऐहिक जीवन की सुख-समृद्धि के लिए नितान्त अपेक्षित भौतिक दृष्टि भारतवासियों में प्राचीन काल में नहीं थी, अतः भारत अन्य समृद्ध राष्ट्रों की अपेक्षा आज भौतिकतावादी आर्थिक दृष्टिकोण से पिछड़ा हुआ है। परन्तु बात ऐसी नहीं है। अति प्राचीनकाल में भारत में जिस लोकायत दर्शन का विस्तार था उसमें भौतिकता को प्रमुख स्थान प्राप्त था । भौतिकतावादी भारतीय मानव- सम्प्रदाय का नाम लोकायत इसलिए पड़ा कि उस सम्प्रदाय के लोग, सारे संसार में फैले थे। लोक शब्द का विवक्षित अर्थ है-संसार और आयत शब्द का अर्थ है- दीर्घतात्मक विस्तार। इसके अतिरिक्त और भी दो अर्थ लोकायत शब्द के प्राप्त होते हैं। एक यह कि लोक अर्थात् फल और आयत अर्थात् सुदीर्घकाल स्थायी अर्थात् सुनिश्चित फलक । विशेषणभूत लोकायत शब्द के इस द्वितीय अर्थ के द्वारा भी, उस भौतिकतावादी सम्प्रदाय का महत्त्व ख्यापित होता हुआ दीख पड़ता है। लोकायत शब्द की निष्पत्ति को लोक और आयत इन दो शब्दों के योग पर आधारित न मानकर कुछ लोगों ने लोक और आयत इन दो शब्दों के योग पर आधारित माना है। तदनुसार यद्यपि उस भौतिकतावादी सम्प्रदाय एवं दर्शन की निन्दा व्यक्त होती है; क्योंकि आयत शब्द का अर्थ होता है असंयत, संयमरहित, फलतः उच्छृंखल । किन्तु गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस निन्दासूचक तृतीय व्याख्या के उद्गम का मूल, उस सम्प्रदाय या दर्शन का भौतिकतावादित्व नहीं था, अपितु, परवर्ती काल में आकर वास्तविक रहस्य - ज्ञान के अभाव के कारण, उस सम्प्रदाय के अधिकतर सदस्यों में फैल जाने वाला अनाचार ही उसका मूल था। यह इसलिए, कि भूत- भौतिक तत्वों का महत्त्व भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत सर्वमान्यता प्राप्त श्रीमद्भागवत, श्रीमद्भगवद्गीता आदि ग्रन्थों में वर्णित है। देखिए श्रीमद्भागवत के स्कन्ध ११ के अध्याय ३ का यह श्लोक-
एभिर्भूतानि भूतात्मा महाभूतैर्ममहाभुजः ।
ससर्वोच्चावचान्याद्यः स्वमात्रात्मप्रसिद्धये ॥
इसका सरल अर्थ यह है कि पृथिवी, जल, तेज और वायुस्वरूप महान् भुजाओं को धारण कर चतुर्भुज कहलाने वाले भूतात्मा परमेश्वर ने सभी बड़ी एवं छोटी वस्तुओं की सृष्टि इन भूतों से ही इसलिए की कि, सबको, सर्वत्र उन्हीं की सत्ता दृष्टिगोचर हो । यहाँ उस अद्वैत-भूतचैतन्यवाद का कितना स्पष्ट और प्रतिष्ठित रूप में उल्लेख हुआ है? जो कि एकमात्र लोकायत दर्शन की विशेषता है।
चार्वाक दर्शन के अनुसार जीवन का सबसे बडा लक्ष्य सुख और आनंद को पाना होना चाहिए।
चार्वाक दर्शन में सुख शरीरात्मा का एक स्वतंत्र गुण है। दुख के अभाव को चार्वाक दर्शन सुख नहीं मानता है।
सुखी और स्वस्थ जीवन के लिए गुरु मंत्र
ॐ अङ्गिरसाय विद्महे दण्डायुधाय धीमहि। तन्नो जीवः प्रचो....
Click here to know more..सुरक्षा के लिए सूर्य गायत्री मंत्र
ॐ अश्वध्वजाय विद्महे पाशहस्ताय धीमहि। तन्नः सूर्यः प्र....
Click here to know more..सप्त नदी पुण्यपद्म स्तोत्र
सुरेश्वरार्यपूजितां महानदीषु चोत्तमां द्युलोकतः समाग....
Click here to know more..लोकायतदर्शन-मान्य भूतचैतन्यवाद का सुस्पष्ट रूप से प्रतिपादन करने वाले श्रीमद्भागवत के स्कन्ध ११, अध्याय १४ के दो
वचन और सुनिये -
आसीज्ज्ञानमथो अर्थं एकमेवाविकल्पितम् ।
वाङ्मनोगोचरं सत्यं द्विधा समभवद्बृहत् ॥
तयोरेकतरोह्यर्थः प्रकृतिः सोऽभयात्मिका ।
ज्ञानं त्वन्यतमो भावः पुरुष सोऽभिधीयते ॥
इन वचनों का अर्थ संक्षेप में यह है कि अतिपूर्वकाल में ज्ञान और उसके विषय ये दोनों आज की तरह पृथक् रूप से अवस्थित या मान्य नहीं थे। दोनों का सम्मिलित वास्तविक वह स्वरूप एक ही था जिसे एक सत्य अर्थात भूतात्मक वृहत्तत्व कहा जाता था। वही भूताद्वैत तत्व जब ज्ञान और विषय इन दो रूपों में पृथक्-पृथक् मान्य हुआ, तो विषय को कार्यकारणात्मक प्रकृति, और ज्ञान को पुरुष कहा जाने लगा। इन भागवत- वाक्यों से भी लोकायत सिद्धान्त की पूर्ण रूप से पुष्टि इसलिए होती दीख पड़ती है चैतन्यात्मक ज्ञान को विषयात्मक भूतों में ही सन्निविष्ट अकेला वहीं मानता है ।
उपदेष्टा भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को यह कह कर भी युद्धोद्यत करने के लिए प्रयत्न किया है कि -
अथ चेत् त्वं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो ! नैनं शोचितुमर्हसि ॥
उससे यह सुस्पष्ट है कि गीता एवं उसके पात्र लोकायत सम्मत शरीरात्मवाद से असहमत नहीं थे, क्योंकि इस गीता - वाक्य का सरल अर्थ यही है कि हे महाबाहु अर्जुन ! यदि तुम नियमतः जन्ममरणशील शरीर को ही आत्मा मानते हो फिर भी तुझे चिन्ता - त्यागपूर्वक युद्ध करना चाहिए। शरीर को आत्मा लोकायत सिद्धान्त ही मानता है। अन्य कोई नहीं। इतना ही नहीं-
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
इसकी व्याख्या करते हुए आचार्य शंकर ने यतचित्तात्मा का अर्थ मन और शरीर पर अधिकार प्राप्त करने वाला किया है और
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
इसके भाष्य में जो विजितात्मा का अर्थ संयत शरीर किया है उसे देखते हुए यह मानना आवश्यक हो जाता है कि गीता भी लोकायत दर्शन के वितत प्रभाव से अछूती नहीं है। लोकायत सिद्धान्त अनुगामी जन ही आजीवक नाम से इसलिये अभिहित होते थे कि शरीरात्मवादी होने के कारण शरीर के सदुपयोगार्थ, उसकी रक्षा के लिए, आजीवन को, अर्थात् श्रमात्मक आजीविका को, वे, मुख्य कर्तव्य रूप से अपनाते थे । एतदतिरिक्त यह भी कारण था आजीवक नाम से उनके पुकारे जाने का, कि वे श्रमोपयोगी स्वास्थ्य के लिए सदा सचेष्ट रहते थे। क्योंकि आजीवक का दूसरा अर्थ, पूर्ण रूप से जीवन का अर्थात् स्वास्थ्य का सम्पादन भी होता है। शरीर को आत्मा मानने वाले अपने स्वास्थ्य-स्वरूप जीवन के सम्पादन में सर्वथा सचेष्ट हों, यह सर्वथा युक्ति-संगत ही हैं। इन सारी बातों की ओर ध्यान देने पर यह स्पष्ट हो उठता है कि यह दर्शन जन- जीवन से घनिष्ठता रखने वाले कृषि पशुपालन वाणिज्य आदि; राजनीतिस्वरूप दण्डनीति और स्वास्थ्यप्रद आयुर्वेद इन तीनों से पूर्ण रूप से सम्बद्ध था। इसका परिचय ब्रह्मद्वैतवाद के महान आचार्य शंकर के द्वारा उनके सर्वसिद्धान्त-संग्रह में, लोका त सिद्धान्त वर्णन के अंदर कहे गये-
कृषि - गौरक्ष्यवाणिज्यदण्डनीत्यादिभिर्बुधः ।
दृष्टैरेव सदोपायैर्भोगाननुभवेद् भुवि ॥
इस वचन से भी प्राप्त होता है। लोकायत वचन के रूप में कहे गये, इस श्लोक का अर्थ यह है कि विवेकी व्यक्तियों को यही चाहिए कि वे खेती, पशुपालन, वाणिज्य व्यवसाय और दण्डनीति का आश्रय लेकर इन प्रत्यक्ष फलप्रद उपायों के द्वारा इस संसार
सुख का भोग अवश्य करें। आचार्य शंकररचित इस लोकायत - वाक्य की ओर ध्यान देने पर आज भारतवर्ष में इस दर्शन के वास्तविक स्वरूप के प्रचार की कितनी आवश्यकता है; यह बात भी पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाती है। इतना ही नहीं, ब्रह्मसूत्रकार व्यसदेव एवं भाष्यकार आचार्य शंकर ने जो अन्य दर्शनों के खण्डनार्थ अधिकरणरचना एवं उसके भाष्य की रचना की है यहाँ इस दर्शन के खण्डनार्थ अधिकरण और भाष्य की रचना नहीं है। वह स्पष्ट बतलाता है कि उनकी दृष्टि में मुमुक्षुओं के लिए वेदान्तदर्शन के समान ऐहिक भोग के इच्छुक व्यक्तियों के लिए यह लोकायत दर्शन भी अवश्य आश्रयणीय है और लोकायत दर्शन का वह निन्दित स्वरूप, जिसका वर्णन हरिभद्र - सूरि आदि जैन विद्वानों और माधवाचार्य आदि वैदिक विद्वानों ने किया है वह लोकायत - सिद्धान्त का वास्तविक स्वरूप नहीं है। आचार्य शंकर ने जो लोकायत-सम्मत शरीरात्मवाद का उल्लेख करते हुए प्राकृता लौकायतिकाश्च प्रतिपन्नः इस कथन के द्वारा लोकायतिकों को अविचारी प्राकृत जनों से बिलकुल अलग कहा है, उससे अनेक लोगों का, यह कथन भी, अनायास खण्डित हो जाता है कि लोकायत नामक कोई दर्शन कभी नहीं था, वह केवल खण्डन करने वालों की मनगढ़न्त कल्पना का ही प्रसव है। उक्त भगवत वचनों के समान भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धि रेव च यह गीता - वाक्य भी लोकायत-सम्मत पृथिवी, जल आदि भूतों को भगवान् का स्वरूप बतलाता है। लोकायत दर्शन में जो प्रत्यक्ष मात्र को प्रमाण माना गया है उसका अभिप्राय यह है कि पृथिवी आदि चारों ही मान्य तत्व प्रत्यक्ष गम्य हैं। दूसरा कारण यह भी है कि यदि मन को ही इन्द्रिय माना जाय तो अनुमिति आदि ज्ञान भी अनायास इन्द्रियजन्य होने के कारण प्रत्यक्ष के ही अन्दर गतार्थ हो उठते हैं।
Astrology
Atharva Sheersha
Bhagavad Gita
Bhagavatam
Bharat Matha
Devi
Devi Mahatmyam
Festivals
Ganapathy
Glory of Venkatesha
Hanuman
Kathopanishad
Mahabharatam
Mantra Shastra
Mystique
Practical Wisdom
Purana Stories
Radhe Radhe
Ramayana
Rare Topics
Rituals
Rudram Explained
Sages and Saints
Shani Mahatmya
Shiva
Spiritual books
Sri Suktam
Story of Sri Yantra
Temples
Vedas
Vishnu Sahasranama
Yoga Vasishta
आध्यात्मिक ग्रन्थ
कठोपनिषद
गणेश अथर्व शीर्ष
गौ माता की महिमा
जय श्रीराम
जय हिंद
ज्योतिष
देवी भागवत
पुराण कथा
बच्चों के लिए
भगवद्गीता
भजन एवं आरती
भागवत
मंदिर
महाभारत
योग
राधे राधे
विभिन्न विषय
व्रत एवं त्योहार
शनि माहात्म्य
शिव पुराण
श्राद्ध और परलोक
श्रीयंत्र की कहानी
संत वाणी
सदाचार
सुभाषित
हनुमान