इस प्रवचन से जानिए- गौ माता के शरीर में कौन कौन देवी देवता निवास करते हैं
गौ माता में सारे ३३ करोड देवता रहते हैं। जैसे: सींग के जड़ में ब्रह्मा और विष्णु, मध्य में महादेव, नोक में सारे तीर्थ, माथे पर गौरी, नाक में कार्तिकेय, आखों में सूर्य और चंद्रमा, मुंह में सरस्वती, गले में इंद्र, अपान में श्रीलक्ष्मी, शरीर के रोमों में तैंतीस करोड देवता।
घी, दूध और दही के द्वारा ही यज्ञ किया जा सकता है। गायें अपने दूध-दही से लोगों का पालन पोषण करती हैं। इनके पुत्र खेत में अनाज उत्पन्न करते हैं। भूख और प्यास से पीडित होने पर भी गायें मानवों की भला करती रहती हैं।
भविष्य पुराण उत्तर पर्व में गौ माता के बारे मे उल्लेख है। क्षीरसागर के मंथन के समय पांच गायें उत्पन्न हुई। नंदा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला और बहुला। इन सब को लोकमाता कहते हैं। इनमें से नंदा जमदग्नि महर्षि क....
भविष्य पुराण उत्तर पर्व में गौ माता के बारे मे उल्लेख है।
क्षीरसागर के मंथन के समय पांच गायें उत्पन्न हुई।
नंदा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला और बहुला।
इन सब को लोकमाता कहते हैं।
इनमें से नंदा जमदग्नि महर्षि को दी गई।
सुभद्रा भरद्वाज महर्षि को दी गई।
सुरभि वसिष्ठ महर्षि को दी गई।
सुशीला असित महर्षि को दी गई।
और बहुला गोतम महर्षि को दी गई।
ये गौ माताएं देवताओं की तृप्ति के लिए और लोकोपकार के लिए थी।
इस बात को अथर्व वेद में भी कहा है; पंचम कांड का अठारहवां सूक्त- नैतां ते देवा अददुस्तुभ्यं नृपते अत्तवे- देवताओं ने गाय को तुम्हारे खाने के लिए नहीं दिया है।
बहुत साफ साफ बताया है वेद में।
नृपते; ये शासक के लिए उपदेश है।
इस का पालन करना शासक का कर्तव्य है।
उसी सूक्त में बोला है-गां जग्ध्वा वैतहव्याः पराभवन्।
गौरेव तान् हन्यमाना वैतहव्या अवातिरत्-हैहय वंश एक बहुत ही विख्यात वंश था भारतवर्ष में।
इसे वैतहव्य वंश भी बोलते हैं।
इस वंश के हजारों राजाओं ने शासन किया है।
वेद कहता है कि इस वंश के विनाश का कारण थी गौ हत्या।
गौ माता खुद उनके लिए मृत्यु बन गई और वीतहव्यों को गौ माता ने तित्तर-भित्तर कर दिया।
आगे उन्नीसवां सूक्त में बोला है-ब्रह्मगवी पच्यमाना यावत् साभिविजङ्गहे तेजो राष्ट्रस्य निर्हन्ति न वीरा जायते वृषा-जहां पर पकी हुई गाय फडफडाती है, उस राष्ट्र का तेज नष्ट हो जाता है।
उस राष्ट्र में शूर लोग कभी पैदा नही होंगे।
क्रूरमस्या आशसनम्- गाय को काटना बहुत बडी निष्ठुरता है।
तृष्टं पिशितमस्य ते- इस का मांस जिस ने मुह में रखा, उस में लोभ जैसे सारे दुर्गुण आ जाते हैं।
क्षीरं यदस्याः पीयते तद्वै पितृषु किल्बिषम्- जिस गाय का दूध तुम ने पिया हो अगर उसे काट दिया जाएगा तो तुम तो क्या तुम्हारे पूर्वज भी पापी बन जायेंगे।
न गां जग्ध्वा राष्ट्रे जागार कश्चन- जिसने गोवध किया है वह कभी जागृत नही रहेगा।
वह तामसिक बन जाता है।
उस की प्रगति नहीं होती।
गोबर से शंकर भगवान का प्रिय बिल्व, बेल उत्पन्न हुआ।
बेल के पेड में लक्ष्मी जी बसती है।
इसलिए बेल को श्रीवृक्ष भी कहते हैं।
कमल के बीज गोमय से ही उत्पन्न हुए।
गुग्गुल की उत्पत्ति गोमूत्र से हुई।
प्रपंच में जितनी सारी वस्तु हैं, सब का स्रोत है दूध।
सारे मंगलमय वस्तुएं दही से उत्पन्न हुई।
घी से अमृत बनता है।
अगर देवताओं के मंत्र वेदों में है तो देवताओं का भोजन गायों में स्थित है।
गाय के बिना घी नहीं और घी नहीं तो यज्ञ नहीं।
देवताओं का अस्तित्व यज्ञ में स्थित है।
इसलिए गौ माता में ही देवगण प्रतिष्ठित हैं।
गाय को नुकसान पहुंचाना मतलब देवताओं का नुकसान पहुंचाना।
गाय के सींग के जड़ में ब्रह्मा और विष्णु रहते हैं।
मध्य में साक्षात् महादेव।
नोक में सारे तीर्थ- प्रयाग, पुष्कर, गया।
माथे पर गौरी।
नाक में शंकर पुत्र कार्तिकेय बैठे हैं।
नाक के पुटों में दो श्रेष्ठ नाग- कंबल और अश्वतर।
दोनों कानों में अश्विनीकुमार।
आंखों में सूर्य और चंद्रमा।
दांतों में वसुगण।
वसुगण के अंदर आठ देवता हैं:
धरो ध्रुवश्च सोमश्च विष्णुश्चैवानिलोऽनलः।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टौ क्रमात्स्मृताः।
धर, ध्रुव, सोम, विष्णु, वायु, अग्नि, प्रत्यूष और प्रभास।
जीभ में वरुण।
मुंह के द्वार में सरस्वती।
दोनों गालों में यम और यक्ष।
होठों में दोनों संध्यायें।
गले में इंद्र।
एडियों में स्वर्ग और चारों पैरों में-घुटनों से एडियां तक- धर्म।
खुरों के आगे सर्प, पीछे रक्षोगण, और बीच में गंधर्व।
गौ माता के पृष्ठ भाग में ग्यारह रुद्र देवता जिनका नाम है: अज, एकपाद, अहिर्बुध्न्य, पिनाकी, अपराजित, त्र्यंबक, महेश्वर, वृषाकपि, शंभु, हर और ईश्वर।
संधियों में वरुण।
कमर पर पितृलोग।
कपोलों में मनुष्य।
बाल में सूरज की किरणें।
गोमूत्र में गंगा।
गोमय में यमुना।
शरीर के रोमों में तैंतीस करोड देवता।
अपान में श्रीलक्ष्मी।
पेट में पर्वत और जंगलों के साथ भूमि देवी।
थनों में सात समंदर।
दूध की धारा में बादल बारिश और जलकण।
पेट के अंदर गार्हपत्याग्नि, हृदय में दक्षिणाग्नि गर्दन में आहवनीयाग्नि और ठुंडी में सभ्याग्नि।
ये चारों, यज्ञ संबंधि विशेष अग्नि हैं।
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