शिव संहिता के अनुसार अनाहत चक्र को जागृत करने से साधक को अपूर्व ज्ञान उत्पन्न होता है, अप्सराएं तक उस पर मोहित हो जाती हैं, त्रिकालदर्शी बन जाता है, बहुत दूर का शब्द भी सुनाई देता है, बहुत दूर की सूक्ष्म वस्तु भी दिखाई देती है, आकाश से जाने की क्षमता मिलती है, योगिनी और देवता दिखाई देते हैं, खेचरी और भूचरी मुद्राएं सिद्ध हो जाती हैं। उसे अमरत्व प्राप्त होता है। ये हैं अनाहत चक्र जागरण के लाभ और लक्षण।
श्रीमद्भागवत (11.5.41) में कहा गया है कि मुकुंद (कृष्ण) के प्रति समर्पण एक भक्त को सभी सांसारिक कर्तव्यों से मुक्त करता है। हमारे जीवन में, हम अक्सर परिवार, समाज, पूर्वजों और यहां तक कि प्राकृतिक दुनिया के प्रति जिम्मेदारियों से बंधे महसूस करते हैं। ये कर्तव्य एक बोझ और आसक्ति की भावना पैदा कर सकते हैं, जो हमें भौतिक चिंताओं में उलझाए रखते हैं। हालाँकि, यह श्लोक सुंदरता से दर्शाता है कि दिव्य के प्रति पूर्ण भक्ति के माध्यम से सच्ची आध्यात्मिक स्वतंत्रता प्राप्त होती है। जब हम पूरे दिल से कृष्ण को सर्वोच्च आश्रय के रूप में अपनाते हैं, तो हम इन सांसारिक ऋणों और जिम्मेदारियों से ऊपर उठ जाते हैं। हमारी प्राथमिकता भौतिक कर्तव्यों को पूरा करने से हटकर ईश्वर के साथ गहरा संबंध बनाए रखने पर स्थानांतरित हो जाती है। यह समर्पण हमें आध्यात्मिक ज्ञान और मुक्ति की ओर ले जाता है, जिससे हम शांति और आनंद के साथ जी सकते हैं। भक्तों को सलाह दी जाती है कि वे अपने जीवन में शांति और संतोष प्राप्त करने के लिए कृष्ण के साथ अपने संबंधों को प्राथमिकता दें, क्योंकि यह मार्ग सांसारिक बंधनों से मुक्ति प्रदान करता है।
यज्ञों को करते रहना क्यों ज़रूरी है?
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अखिल विश्वके पालक देवाधिदेव नारायण! आपके चरणों में मेरा प्रणाम है। पूर्वकालमें भगवान् व्यासदेवने जिस गोसावित्री - स्तोत्रको कहा था, उसीको मैं सुनाता हूँ। यह गौओंका स्तोत्र समस्त पापोंका नाश करनेवाला, सम्पूर्ण अभिलषित पदार्थोंको देनेवाला, दिव्य एवं समस्त कल्याणका करनेवाला है। गौके सींगोंके अग्रभागमें साक्षात् जनार्दन विष्णुस्वरूप भगवान् वेदव्यास रमण करते हैं। उसके सींगोंकी जड़में देवी पार्वती और सींगोंके मध्यभागमें भगवान् सदाशिव विराजमान रहते हैं। उसके मस्तकमें ब्रह्मा, कंधेमें बृहस्पति, ललाटमें वृषभारूढ भगवान् शंकर, कानोंमें अश्विनीकुमार तथा नेत्रोंमें सूर्य और चन्द्रमा रहते हैं। दाँतोंमें समस्त ऋषिगण, जीभमें देवी सरस्वती तथा वक्षःस्थलमें एवं पिंडलियोंमें सारे देवता निवास करते हैं। उसके खुरोंके मध्यभागमें गन्धर्व, अग्रभागमें चन्द्रमा एवं भगवान् अनन्त तथा पिछले भागमें मुख्य-मुख्य अप्सराओंका स्थान है। उसके पीछेके भाग (नितंब ) में पितृगणोंका तथा भृकुटिमूलमें तीनों गुणोंका निवास बताया गया है। उसके रोमकूपोंमें ऋषिगण तथा चमड़ीमें प्रजापति निवास करते हैं। उसके धूहेमें नक्षत्रोंसहित द्युलोक, पीठमें सूर्यतनय यमराज, अपानदेशमें सम्पूर्ण तीर्थ एवं गोमूत्रमें साक्षात् गङ्गाजी विराजती हैं। उसकी दृष्टि, पीठ एवं गोवरमें स्वयं लक्ष्मीजी निवास करती हैं; नथुनोंमें अश्विनीकुमारोंका एवं होठोंमें भगवती चण्डिकाका वास है। गौओंके जो स्तन हैं, वे जलसे पूर्ण चारों समुद्र हैं; उनके रंभानेमें देवी सावित्री तथा हुंकारमें प्रजापतिका वास है। इतना ही नहीं, समस्त गौएँ साक्षात् विष्णुरूप हैं; उनके सम्पूर्ण अङ्गोंमें भगवान् केशव विराजमान रहते हैं।
स्कन्दपुराण में
गौ सर्वदेवमयी और वेद सर्वगोमय हैं। गायके सींगोंके अग्रभागमें नित्य इन्द्र निवास करते हैं। हृदयमें कार्तिकेय, सिरमें ब्रह्मा और ललाटमें वृषभध्वज शंकर, दोनों नेत्रोंमें चन्द्रमा और सूर्य, जीभमें सरस्वती, दाँतोंमें मरुद्गण और साध्य देवता, हुंकारमें अङ्ग-पद-क्रमसहित चारों वेद, रोमकूपों में असंख्य तपस्वी और ऋषिगण, पीठमें दण्डधारी महाकाय महिषवाहन यमराज, स्तनोंमें चारों पवित्र समुद्र, गोमूत्र में विष्णु-चरणसे निकली हुई, दर्शनमात्रसे पाप नाश करनेवाली श्रीगङ्गाजी, गोबरमें पवित्र सर्वकल्याणमयी लक्ष्मीजी, खुरोंके अग्रभागमें गन्धर्व, अप्सराएँ और नाग निवास करते हैं। इसके सिवा सागरान्त पृथ्वीमें जितने भी पवित्र तीर्थ हैं सभी गायोंके देहमें रहते हैं। विष्णु - सर्वदेवमय हैं, गाय इन विष्णुके शरीरसे उत्पन्न हुई है, विष्णु और गाय- इन दोनोंके ही शरीरमें देवता निवास करते हैं। इसीलिये मनुष्य गायोंको सर्वदेवमयी मानते हैं।
(आवन्त्यखण्ड, रेवाखण्ड अ० ८३)
महाभारतमें
यदा च दीयते राजन् कपिला ह्यग्निहोत्रणे ।
तदा च शृंगयोस्तस्या विष्णुरिन्द्रश्च तिष्ठतः ॥
चन्द्रवज्रधरौ चापि तिष्ठतः
शुंगमूलयोः ।
शुंगमध्ये तथा ब्रह्मा ललाटे
गोर्वृषध्वजः ॥
कर्णयोरश्विनौ देवी चक्षुषी
शशिभास्करौ ।
दन्तेषु मरुतो देवा जिह्वायां वाक् सरस्वती ॥
रोमकूपेषु मुनयश्चर्मण्येव प्रजापतिः ।
निःश्वासेषु स्थिता वेदाः
सपडङ्गपदक्रमाः ॥
नभःस्थलम् ॥
स्वयम् ।
नासापुटे स्थिता गन्धाः पुष्पाणि सुरभीणि च। अधरे वसवः सर्वे मुखे चाग्निः प्रतिष्ठितः ॥ साध्या देवाः स्थिताः कक्षे ग्रीवायां पार्वती स्थिता । पृष्ठे च नक्षत्रगणाः ककुदेशे अपाने सर्वतीर्थानि गोमूत्रे जाह्नवी अटैश्वर्यमयी लक्ष्मीगोंमये वसते सदा ॥ नासिकायां सदा देवी ज्येष्ठा वसति भामिनी । श्रोणीतटस्थाः पितरो रमा लाङ्गूलमाश्रिता ॥ पार्श्वयोरुभयोः सर्वे विश्वेदेवाः प्रतिष्ठिताः । तिष्ठत्युरसि तासां तु प्रीतः शक्तिधरो गुहः ॥ जानुजमेरुदेशेषु पञ्च तिष्ठन्ति
खुरमध्येषु
वायवः ।
गन्धर्वाः खुराग्रेषु च
पन्नगाः ॥
चत्वारः सागराः पूर्णास्तस्या एव पयोधराः ।
(आश्वमेधिकपर्व, वैष्णवधर्मपर्व, अध्याय ९२)
[ भगवान् श्रीकृष्णने राजा युधिष्ठिरसे कहा- ] राजन् !
जिस समय अग्निहोत्री ब्राह्मणको कपिला गौ दानमें दी जाती हैं, उस समय उसके सींगोंके ऊपरी भागमें विष्णु और इन्द्र निवास करते हैं। सींगोंकी जड़में चन्द्रमा और वज्रधारी इन्द्र रहते हैं। सींगोंके बीचमें ब्रह्मा तथा ललाटमें भगवान् शंकरका निवास होता है। दोनों कानोंमें अश्विनीकुमार, नेत्रोंमें चन्द्रमा और सूर्य, दाँतोंमें मरुद्गण, जिह्वामें सरस्वती, रोमकूपोंमें मुनि, चर्ममें प्रजापति एवं श्वासोंमें पडङ्ग, पद और क्रमसहित चारों वेदोंका निवास है।
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