पातञ्जल योगदर्शनम्
इसमे सबसे पहला सूत्र है -
अथ योगानुशासनम्
इस सूत्र द्वारा महर्षि हमें समझाते हैं
कि वे जो हमें बतानेवाले हैं वह एक शास्त्र है,
उपदेश करने योग्य एक शास्त्र है।
अवश्य ही इसका उपदेश करना है,
पर यह एक अनुशासन है।
उन्होंने इस शास्त्र को नहीं बनाया,
यह शास्त्र पहले से ही है।
इसलिए 'अनु' शब्द का प्रयोग किया।
महर्षि कहते हैं 'मैं इसका आदि प्रवर्तक नहीं हूं'।
फिर कौन है योग शास्त्र का आदि प्रवर्तक?
हिरण्यगर्भ।
यह हिरण्यगर्भ कौन है?
कहते हैं शंकराचार्यजी श्वेताश्वतर उपनिषद के भाष्य में
कपिल मुनि हैं हिरण्यगर्भ।
कपिल मुनि सांख्य शास्त्र के आदि प्रवर्तक हैं।
कपिल मुनि हमें पता है श्री हरि के ही अवतार हैं।
एक ही दर्शन के दो स्वरूप हैं - सांख्य और योग।
सैद्धान्तिक स्वरूप – सांख्य,
क्रियात्मक स्वरूप – योग।
ऐसा कह सकते हैं कि सांख्य एक तत्त्व सिद्धान्त है
और योग वहाँ तक पहुँचने का रास्ता।
गीता में क्या बताया है?
सांख्य ज्ञान योग है और योग कर्मयोग है।
दोनों की साधना करनेवाले एक ही जगह पहुँचते हैं।
जिसने इस तथ्य को जाना, इन दोनों के अभिन्नत्व को जाना,
वही सचमुच जानकार है।
योग सूत्र के भाष्यकार व्यासजी भी अपने भाष्य को
'सांख्यप्रवचनभाष्य' कहकर बुलाते हैं।
कम से कम पतञ्जलि महर्षि के काल में
इन दोनों को एक दूसरे से पूर्णतया नहीं समझते थे।
महाभारत में अन्यत्र कहा गया है
सांख्य और योग दोनों के प्रवर्तक कपिल मुनि ही हैं।
तो फिर पतञ्जलि महर्षि क्या करते हैं?
यह श्रेष्ठ ज्ञान जो पहले से है, उसे हमें सिखा रहे हैं।
यह शास्त्र - योग शास्त्र - इतना श्रेष्ठ है
कि गीता में भगवान अर्जुन से कहते हैं:
बाकी सब छोड़कर योगी बन जाओ,
क्योंकि योगी का स्थान सबसे ऊपर है।
तप करने वालों से भी, ज्ञानियों से भी,
यज्ञादि सत्कर्म करने वालों से भी
अधिक महत्त्व है योगियों का, कहते हैं भगवान।
सांख्य के मूल सिद्धान्त क्या-क्या हैं, यह भी थोड़ा जान लेते हैं,
क्योंकि योग के द्वारा भी इन्हीं को पाना है।
मानव के तीन प्रकार के दुख या क्लेश हैं:
आधिभौतिक – जो इन्द्रियों के पाँच भूतों के द्वारा संयोग से होते हैं।
जैसे आग से हाथ जलने पर दर्द –
जो त्वचा नामक शरीर के अंग का आग से संयोग होने से हुआ।
ज़्यादातर शारीरिक बीमारियाँ आधिभौतिक हैं – इनके पीछे पंचभूत होते हैं।
आध्यात्मिक – जो अन्दर ही अन्दर दुख पैदा होता है –
भय, मेरे पास पैसे नहीं हैं,
मेरे पास अच्छा घर नहीं है,
मेरे बच्चे नहीं हैं – ऐसे उद्वेग या दुख।
आधिदैविक – जो दैवी प्रकोप से उत्पन्न होता है,
जो अचानक होता है।
मोक्ष की अवस्था में ये तीनों नहीं रहेंगे।
फिर क्या रहेगा?
केवल पुरुष – जो निर्गुण और अविकारी है।
इस अवस्था में सत्त्व, रजस, तमस् – ये गुण नहीं रहेंगे।
रजोगुण – जिसकी वजह से लगता है:
मुझे कमाना है, श्रीमान बनना है, नाम कमाना है।
तमोगुण – जो शरीर में आलस्य इत्यादि उत्पन्न कराता है।
न केवल ये दोनों,
बल्कि सत्त्वगुण – जिससे मन की प्रसन्नता,
सहानुभूति इत्यादियों की उत्पत्ति होती है –
यह भी नहीं रहेगा।
यह है मोक्ष की अवस्था।
मोक्ष में चित्त या मन निरुद्ध रहता है,
उसमें दुख, संतोष, भय, करुणा जैसे कोई भी विकार नहीं रहेगा।
यह चित्तनिरोध वैराग्य और समाधिजन्य प्रज्ञा से प्राप्त होता है।
समाधि कैसे प्राप्त होगी?
यम-नियम – इन शीलों से, और
आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान – इन साधनों से।
मोक्ष होने से पुनर्जन्म नहीं होगा।
यहाँ योग शास्त्र का उद्देश्य है –
समाधि की प्राप्ति कैसे हो, यह हमें सिखाना।
समाधि को ही योग कहते हैं।
योग द्वारा मोक्ष मिलता है।
समाधि को कैसे पाया जाए –
इसे सिखाने वाला शास्त्र है – योग शास्त्र।
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