अधिरथ धृतराष्ट्र का सारथी था ।
उसकी पत्नी थी राधा।
उस ज़माने में सारथी का पेशा करनेवाले सूत जाति के लोग होते थे ।
लेकिन युद्ध के समय सारथी का काम इतनी जिम्मेदारी का समझा जाता था कि कई बार बड़े-बड़े समर्थ पुरुष इस काम में गौरव मानकर इसे अपनाते थे ।
श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन के सारथि हुए थे ।
मद्र देश के राजा शल्य सूतपुत्र कर्ण के सारथी बने थे।
राधा की कोई सन्तान नहीं थी ।
सारी जिन्दगी भर उसने न जाने कितने व्रत किये, तीर्थयात्रायें की, महात्माओं के उपचार किये लेकिन ईश्वर ने राधा की गोद नहीं भरी ।
बिना संतान के राधा का जीवन सूना सा बन गया।
एक दिन शाम को अधिरथ बाहर से घर आया।
राधा अंदर भोजन बना रही थी ।
अधिरथ - राधा, राधा, यह देख में तेरे लिए एक खिलौना लाया हूँ ।
राधा रसोई घर के अंदर से एक लंबी साँस लेकर बोली - जब खिलौने से खेलनेवाला ही कोई नहीं है तो ऐसे खिलौने से क्या फायदा ?
अधिरथ - पर तू देख तो सही । यह खिलौना तो बहुत ही सुन्दर है ।
राधा - इससे भी सुन्दर सुन्दर खिलौने तुम लाये हो लेकिन ये खिलौने तो मेरे दिल को जलाते है । तुम पुरुष लोग यह महसूस नहीं कर सकते। अन्दर का स्नेह पान कराने के लिए कोई बालक न हो तो स्त्री का हृदय कैसा सूख जाता है, इसका अनुभव तो अगले जन्म में जब स्त्री होओगे तब तुमको होगा ।
राधा की बहन बोली - पर दीदी, यह तो सचमुच बड़ा सुन्दर है । तुम्हें बहुत अच्छा लगेगा ।
राधा - ऐसे निर्जीव मिट्टी के पुतलों को जीवित मानकर अपना दिल बहलाने वाली अब मैं नहीं रही । अधिरथ, मुझसे मज़ाक न किया करो और मैं कह देती हूँ कि अब आगे से ऐसे निर्जीव पुतले मेरे लिए मत लाया करो ।
राधा की बहन - पर बहन इस पुतले के अंदर तो जीव है ।
राधा - जीव है ? सच कहती हो ?
रसोई घर में से राधा दौड़ती हुई बाहर निकली ।
अधिरथ के हाथ में बालक देखकर राधा तो दिङ्मूढ बन गई ।
राधा - अधिरथ, मैं यह क्या देख रही हूँ ?
अधिरथ - तुम्हीं बताओ कि तुम क्या देख रही हो ।
राधा - तुम्हें यह कहाँ से मिला ? तुम्हारे हाथ में तो बालक है । भगवान ने सचमुच मेरे लिए यह खिलौना भेजा है ? अधिरथ, यह स्वप्न तो नहीं है ? मेरी आँखें मुझे धोखा तो नहीं दे रही हैं ? देखो मुझे धोखा मत देना ।
अधिरथ - नहीं, नहीं । मेरे हाथ में यह बालक है और इसे मैं तुम्हारे ही लिए लाया हूँ । यह लो ।
राधा तो पागल जैसी हो गई।
उसने जल्दी से बालक को अपने हाथ में ले लिया।
उसे अपनी छाती से चिपका लिया । उसका सिर सूंघा, उसकी आँखों पर धीरे से चुम्मा लिया और उसके सारे शरीर पर अपना कोमल हाथ फेरा।
राधा - बेटा, तूने मेरे घर में उजाला कर दिया। इस अंधेरे कमरे में दिया जला दिया । बहन जाओ आज सारे मुहल्ले मे शकर बांटो ।
राधा की बहन ने उत्सुकता से पूछा - लेकिन अधिरथ यह तो बताओ कि तुम्हे यह मिला कहाँ से ?
राधा ने लाड से बालक की ओर देखकर प्रश्न किया - हाँ, हाँ, बेटा तू कहाँ से आया ? बतायेगा ? अधिरथ - मैं अभी शाम को नदी के किनारे घूम रहा था कि नदी के प्रवाह मे मैं ने कुछ तैरता हुआ देखा ।
राधा - ऐं ! क्या कहा ? इसे किसीने बहा दिया था ?
अधिरथ - नहीं, पहले मेरी बात तो सुन । पहले तो मुझे ऐसा लगा कि कोई लकड़ी होगी । लेकिन जब मैं पास गया तो देखा कि एक पेटी बही जा रही है ।
राधा - फिर ?
अधिरथ - नदी के प्रवाह के साथ पेटी धीरे-धीरे बह रही थी। मैंने सोचा कि देखूँ इस पेटी के अन्दर क्या है ? लेकिन पेटी दूर थी । उसके पास जाने लगा तो पानी ज्यादा गहरा होने लगा ।
राधा - तो फिर क्या तुम अन्दर कूद पड़े ?
अधिरथ - नहीं मैं किसी रस्सी या लम्बे बाँस की खोज मे इधर उधर देखने लगा । पर कहीं कुछ दिखाई न दिया ।
राधा - तो इतने में तो पेटी कहाँ की कहीं निकल गई होगी ?
अधिरथ - तब मैं निराश होकर सूर्य भगवान की तरफ़ देखने लगा । इतने में तो पेटी किनारे आ लगी और मेरे पैर से टकराई ।
राधा - ओह तो ऐसा कहो न कि सूर्य भगवान ने ही इसे मेरे लिए भेजा है। नहीं तो तुम क्या ला सकनेवाले थे । लेकिन पेटी में पानी न भर गया होगा ?
अधिरथ - नहीं पेटी की दरारों में मोम भरा हुआ था । इससे अन्दर पानी की एक बूंद भी नहीं जा सकी ।
राधा - इसे पेटी में रख कर वहा देनेवाली माता को भी तो हृदय होगा न ?
अधिरथ - पेटी के ऊपर कुंकुम के छींटे लगे हुए थे और वह चारों ओर मजबूत रस्सी बंधी हुई थी ।
तो मालूम होता है बड़ी सावधानी से सब काम किया गया था । ज्यों ही मैंने पेटी खोली तो देखा कि उसमें एक बालक अंगूठा चूसते हुए पड़ा था ।
राधा - तो उसमें यही था ?
अधिरथ - हाँ, यही । राधा, इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात तो यह है इसके शरीर पर जो कवच है वह जन्म से ही इसकी चमड़ी के साथ जुड़ा हुआ है। कान इसके कितने सुन्दर है । और दोनों कान में इसके ये कुण्डल किसने पहनाये होंगे ? ये कुण्डल भी जन्म से ही आये मालूम होते है | देख तो कान से ये अलग ही नहीं होते ।
राधा - अधिरथ, जन्म से कवच और कुण्डल लेकर पैदा होनेवाले किसी मानवी को आपने देखा है ? मानवी सृष्टि में तो यह बात असम्भव है। इसी कारण मुझे तो यह बालक देवपुत्र मालूम होता है। हम बड़े भाग्यशाली है जो यह हमें मिला । बेटा, देवों के भवनों को छोड़कर क्या तू मेरे लिए यहाँ आया है ? हे देवता गण, आप अपने इस बालक की रक्षा करना ।
राधा - बहन, तो चलो हम इसका नाम रखें । तो तू ही नाम रख । तू तो इसकी मौसी है न ?
बोलो, अधिरथ क्या नाम रखें ?
अधिरथ - जो तुमको अच्छा लगे ।
राधा - मुझे तो इसके ये सोने के कुण्डल अच्छे लगते है, इस कारण इसका नाम वसुषेण रखना चाहती हूँ ।
अधिरथ - अच्छा तो इसका नाम वसुषेण ही रहा ।
राधा - आ बेटा ! आज तक लोग मुझे केवल राधा ही कहते थे । अब तो वसुषेण की माँ कहकर पुकारेंगे। बेटा तूने मुझे माँ बना दिया ।
राधा की आँखों से आंसू की एक बूँद टपक पड़ी।
यह राधेय ही है हमारी कथा का कर्ण ।
बड़ा होने पर राधेय ने इन्द्र को अपने कवच और कुंडल दान कर दिये थे, इस कारण वह कर्ण कहलाया ।
इतिहास इसे कर्ण के नाम से पहचानता है ।
धृतराष्ट्र - विदुर, अब तुम जल्दी करो । मेरे पुत्रों और पाण्डवों ने अपना अभ्यास समाप्त कर लिया है इसलिए उनकी परीक्षा देखने की मेरी बड़ी इच्छा है ।
विदुर - लेकिन आप यों भी देख कहाँ सकते है ?
धृतराष्ट्र - वह तो ठीक है लेकिन तुम देखोगे, हमारे पितामह देखेंगे, कृपाचार्य देखेंगे, हमारी सारी प्रजा देखेगी, तो यह सब मेरे देखने बराबर ही है। तुम भीष्म पितामह के साथ रहकर इस परीक्षा के लिए जगह वगैरा तैयार कराओ। देखना ज़मीन बिलकुल सपाट, बना झाड़-झंखर की और देखनेवालों को मनोहर लगे ऐसी होनी चाहिए ।
विदुर - फिर उस भूमि का खात - मुहुर्त कौन करेंगे ?
धृतराष्ट्र - भीष्म जी स्वयं हल से उस ज़मीन की सीमा बांधेंगे । और उस सीमा में आप रंगभूमि बनायेंगे ।
विदुर - ठीक, मैं समझ गया ।
धृतराष्ट्र - यह भी खयाल मे रखना कि कुमारों की शस्त्रास्त्र विद्या के प्रदर्शन के लिए काफ़ी ज़मीन खुली और चौड़ी रहे । और बाकी प्रेक्षकों के लिए भी थोड़ा भाग अलग रखना ।
विदुर - हाँ यह मेरे खयाल में है ।
धृतराष्ट्र - नहीं, केवल यही नहीं । प्रेक्षकों से मैं, तुम, भीष्म पितामह. कृपाचार्य आदि सब पुरुष वर्ग होंगे। स्त्री वर्ग के लिए अलग मचान बनाना । कुन्ती, गांधारी वगैरा सब त्रियाँ भी आयेंगी। इसके अलावा नगर के चातुर्वर्ण्य के लिए भी अच्छी व्यवस्था करना । भविष्य में जिस प्रजा पर ये बालक राज्य करेंगे उनकी शिक्षा- दीक्षा आदि वह अच्छी तरह आज देख लें यह मैं चाहता हूँ ।
विदुर - अच्छी बात | यह सारी व्यवस्था मैं कर लूँगा।
धृतराष्ट्र - इसके अलावा गाँव के श्रीमन्त लोग अपने-अपने खीमे अलग लगाने की मांग करेंगे सो उनके लिए भी ज़मीन की व्यवस्था पहले से ही कर रखना जिससे बाद में अड़चन न पड़े।
विदुर - अच्छी बात है।
धृतराष्ट्र - जो मुझे सूझा वह मैंने तुमको बतला दिया । बाक़ी तुम अपनी बुद्धि से विचार करके ठीक कर लेना । और कुरुकुल के पुत्रों को शोभा देने योग्य इस जलसे की व्यवस्था करना ।
परीक्षा का दिन आया ।
हस्तिनापुर के पास ही के मैदान में रंगभूमि तैयार हो गई।
तोरण और पताकायें हवा में लहरा रही हैं।
अन्दर और बाहर सब तरफ़ के रास्तों पर पानी का छिड़काव हो रहा है।
दर्शकों की रंगभूमि, श्रीमन्तों के खीमे और शिष्टजनों आसन, स्त्रियों के मंच आदि सब धीरे-धीरे खचाखच भरे जा रहे हैं ।
और लोग आतुरता से कुमारों की राह देख रहे हैं ।
भीष्म आ गये हैं, कृपाचार्य आ गये हैं, धृतराष्ट्र और विदुर भी आ गये हैं, कुन्ती और गांधारी भी और स्त्रियों को लेकर अपने मंच पर आ बैठी हैं।
नगर के सब वर्ण रंग-बिरंगे वस्त्र धारण कर आ गये हैं ।
इतने में दरवाजे में से द्रोणाचार्य ने प्रवेश किया।
हवा में लहराती हुई उनकी सफ़ेद डाढ़ी और उतनी ही श्वेत उनकी मूंछें और सिर के बाल, घुटनों तक पहुँचनेवाले लम्बे-लम्बे हाथ, धीर और वीर चाल, मज़बूत स्नायु, साथ में अश्वत्थामा और पीछे- पीछे उछलते खूनवाले युवक कुमार ।
इन सबको आते देखकर सारा मण्डप तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा ।
द्रोण ने आकर सारी सभा का वन्दन किया और बोले - पितामह, महाराज धृतराष्ट्र और दर्शक गण । इतने दिनों में मैं ने इन राजकुमारों को जो शिक्षा दी है इसे ये सब आपके सामने बतायेंगे। इन कुमारों के क्षात्र तेज को ज्यादा-से-ज्यादा चमकाने का मैं ने प्रयत्न किया है। आप सब आज मेरे प्रयत्न की परीक्षा करें यही मेरी प्रार्थना है । मेरा विश्वास है कि मेरे ये शिष्य मुझे यश देंगे।
इसके बाद कुमार अपनी-अपनी विद्यायें रंगभूमि पर दिखाने लगे ।
तलवार और भाले के खेल से लगाकर बड़े-बड़े अस्त्रों के साधने के खेलों तक सब विद्यायें सबों ने बताई ।
युधिष्ठर, दुर्योधन, भीम, दुःशासन, विकर्ण, सहदेव, सबने क्रम-क्रम से शस्त्रास्त्रों के प्रयोग किये और प्रेक्षकों के मन को हर लिया ।
इतनी सामान्य परीक्षा हो जाने के बाद भीम और दुर्योधन आगे आये ।
दोनों जवान थे।
दोनों शरीर से मजबूत थे।
दोनों लंगोट कसे हुए थे।
दोनों के हाथों पर चमड़े के पट्टे बंधे हुए थे।
दोनों के हाथ में एक-एक गदा घूम रही थी।
धीरज और चतुराई से दोनों अपने-अपने पैंतरे बदल रहे थे।
शेर के समान एक-दूसरे पर वार करने का लाग देखते थे और पर्वत जैसी ढाल पर दोनों एक दूसरे का वार झेल रहे थे।
दर्शक थोड़ी देर के लिए स्थिर हो गये।
दोनों की तारीफ़ करने लगे।
धीरे-धीरे आपस में दल बनने लग गये ।
इतने में द्रोणाचार्य ने इशारा किया और गदा युद्ध समाप्त हुआ ।
दुर्योधन और भीम के जाने के बाद अर्जुन आया ।
अर्जुन तो द्रोणाचार्य का सबसे प्रिय शिष्य ।
अर्जुन की मेधा, उसकी तीव्र बुद्धि उसकी चालाकी, उसका उद्योग, उसकी निष्ठा इन सबने द्रोणाचार्य को मुग्ध कर लिया था।
और द्रोणाचार्य ने अपनी सारी विद्या को अर्जुन में उंडेलने का पूरा प्रयत्न किया था ।
कुन्ती का पुत्र अर्जुन जब सामने आया तो ऐसी तालियाँ बजीं कि कुछ पूछो मत ।
गाधारी कुन्ती से पूछने लगी, धृतराष्ट्र विदुर से पूछने लगे और दर्शक थोड़ी देर के लिए खड़े हो होकर अर्जुन को देखने लगे ।
इतने में द्रोणाचार्य की आज्ञा मिली और अर्जुन ने अपना पराक्रम दिखाना शुरू किया।
क्या तो उसकी विद्या और क्या उसका कौशल ।
एक क्षण में अग्नेयास्त्र छोड़कर आग लगा देता है तो दूसरे ही क्षण वरुणास्त्र से उसे बुझा देता है। कभी ज़रा सा बन जाता है तो कभी विराट स्वरूप धारण कर लेता है ।
कभी पर्वतों को चकनाचूर कर देनेवाले बाण छोड़ता तो कभी छोटे-छोटे अंडों और कोमल फलों को बींध डालता।
कभी बैल के सींग में बारीक सा छेद करके उसमे से बाणों को निकालता तो कभी बिजली के समान कड़कड़ाहट करनेवाले मेघास्त्र छोड़ता है ।
दर्शकवर्ग थोड़ी देर के लिए तो ऐसा स्तब्ध हो गया मानों किसी ने चित्र खींच दिया हो।
कुंती के हृदय में उत्साह समाता न था ।
भीष्म, कृपाचार्य आदि अर्जुन और द्रोण की तारीफ़ करने लगे।
और द्रोणाचार्य को स्वयं ऐसा लगा मानों उनका आचार्यत्व सफल हो गया है।
उनके दिल को बड़ी तसल्ली हुई ।
अर्जुन ने अपना काम समाप्त किया।
चारों भाई अर्जुन के चारों ओर इकट्ठे हो गये ।
अर्जुन ने पहले जाकर गुरु द्रोणाचार्य को प्रणाम किया।
और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया ।
दुर्योधन और उसके भाई एक कोने में खड़े-खड़े यह सब देख रहे थे ।
इतने में दरवाजे में एक बड़ा भारी धड़ाका हुआ।
यह क्या हुआ ?
यह आवाज कैसी ?
सबकी आँखें एक साथ दरवाजे की तरफ गई ही थी कि इतने में एक युवक हाथों में शस्त्रास्त्र लेकर अंदर आ जाता है।
और रंगभूमि की तरफ़ ललंकार कर बोलता है - अर्जुन तू ने जो-जो पराक्रम यहाँ बताये है वे सब और उनसे भी ज्यादा मैं कर बताता हूँ । ले तू देख ।
ऐसा कहकर वह युवक तो अपना पराक्रम बताने लगा ।
उसे देखकर सारी सभा एकदम चकित हो गई।
द्रोणाचार्य देखते रह गये, अर्जुन और पाण्डव देखते रहे; दुर्योधन देखता रहा; भीष्म पितामह और कृपाचार्य भी देखते रहे ।
अभी दर्शक लोग आश्चर्य मुक्त हुए ही न थे कि उस युवक ने फिर गर्जना की - हे अर्जुन ! तू इन सब कुमारों में श्रेष्ठ गिना जाता है। गुरु द्रोणाचार्य तुझे अपना पट्ट शिष्य मानते है । इसलिए मैं तुझे अपने साथ द्वन्द्वयुद्ध के लिए निमंत्रण देता हूं। इसे स्वीकार करो और मेरे साथ द्वन्द्व युद्ध करो ।
युवक के गर्जन से दुर्योधन के मन में बड़ा आनंद हुआ ।
वह सोचने लगा, ठीक अब ज़रा अर्जुन का पानी उतरेगा ।
भीम और सहदेव उस युवक की ओर कठोर निगाह से देखने लगे।
द्रोणाचार्य को यह रंग में भंग होने जैसा लगा ।
दर्शक लोग भी ऊँचे-नीचे होने लगे और इसका परिणाम क्या होता है यह जानने के लिए उत्सुक होने लगे ।
इतने मे कृपाचार्य खड़े हुए और बोले - हे युवक, यह अर्जुन महाराज पाण्डु और कुंति का पुत्र है । वह वर्ण से क्षत्रिय है और द्रोणाचार्य का शिष्य है। इसलिए उसके साथ द्वन्द्व युद्ध में उतरने के लिए यह आवश्यक है कि तू अपने कुल और जाति का सबको परिचय करा ।
कृपाचार्य के ये वचन सुनकर युवक थोड़ी देर के लिए भोंठा पड़ गया ।
लेकिन मध्याह्न के आकाश की ओर नज़र डालकर वह तुरंत ही सीधा खड़ा हो गया और बोला -
यह रंगभूमि केवल क्षत्रिय के लिए ही नहीं है । यहाँ तो जो पराक्रम करके दिखायेगा वही क्षत्रिय है। अर्जुन अगर सच्चा क्षत्रिय-पुत्र है तो आ जाय मेरे सामने । उसमें क्षत्रिय का खून है यह कहने से क्या होनेवाला है। इस प्रकार खून का अभिमान तो जंगली पशुओं को ही शोभा देता है। मुझे विश्वास है कि अर्जुन ऐसे डरपोक पुरुषों के विचारों का अनुसरण नहीं करेगा। मैं मानता हूँ कि अर्जुन सच्चा मर्द है ।
युवक के ये वचन दुर्योधन के कान में अमृत के जैसे लगे ।
उसने अपने सब आदमियों को लेकर उस युवक को घेर लिया।
इतने में भीम जोर से गरज उठा - ओ मर्द की पूँछ ! अपना वर्ण तो पहले बता । अर्जुन राजपुत्र है । राजपुत्र चाहे किसी राहचले भिखारी के साथ द्वन्द्व युद्ध में नहीं उतरा करते । आया है अपना पराक्रम जताने ।
भीम के वचन सुनते ही दुर्योधन छाती तानता हुआ अपने आदमियों के झुण्ड में से बाहर आया और कहने लगा - यह युवक राजा नहीं है केवल इसी कारण अर्जुन द्वन्द्व युद्ध मे नहीं उतर रहा है। तो मैं इसे अंगदेश का राजा बनाता हूँ । यह कहते ही वहीं का वहीं दुर्योधन ने उसे कुंकुम का टीका काढ़कर उसे अंगराज के नाम से पुकारा ।
सभा मे हाहाकार होगया। कोई तो अर्जुन की और कोई उस नये युवक की कोई दुर्योधन की और कोई भीम की तारीफ़ करने लगे।
स्त्रियों के मंच पर कुंती बैठी हुई थी।
उन्होंने जब यह दृश्य देखा तो उनकी आँखों के नीचे अंधेरा छा गया और बेहोश होकर वहीं गिर पड़ीं।
इसी बीच हाथ में चाबुक लेकर अधिरथ सभा में आया और यह जानकर कि उसका पुत्र वसुषेण अंगदेश का राजा हो गया है।
तो वह खुश-खुश होता हुआ उसके पास गया और उसे छाती से लगा लिया।
जब लोगों को यह मालूम हुआ कि यह युवक और कोई नहीं परंतु राधा का पुत्र है तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा ।
भीम यह सब देखकर बोला- अरे सूतपुत्र ! अपने पिता के हाथ मे से चाबुक लेकर रथ हाँक भाई रथ ! ये शस्त्र तुम्हारे हाथ में शोभा नहीं देते। सच्चे क्षत्रिय तेरे साथ युद्ध करने में अपनी हीनता मानते हैं ।
भीमसेन अब चुप भी रहो। महापुरुषों और नदियों के मूल को खोजना बड़ा कठिन है । तुम पाण्डव ही किस प्रकार पैदा हुए हो यह किससे छिपा है । इस बात को आगे न बढ़ाने मे ही कल्याण है - दुर्योधन ने जवाब दिया ।
इसी बीच भीष्म, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र आदि खड़े हुए और सभा बिखरने लगी।
गांधारी को लेकर कुन्ती घर गई।
पाण्डवों को लेकर द्रोण घर गये ।
दर्शक वर्ग धीरे-धीरे खिसकने लगा ।
केवल कर्ण और कौरव ही वहाँ रह गये थे ।
कर्ण - कुमार दुर्योधन, मैं आपका बडा आभारी हूँ। मैं सूतपुत्र हूं इसका विचार न करके मुझे अंगदेश का राजा बना दिया और मेरी प्रतिष्ठा कायम रखी इसके लिए मैं आपका जन्म भर का ऋणी हो गया हूँ ।
कर्ण से आलिंगन करता हुआ दुर्योधन बोला- इसमें मैं ने कुछ नहीं किया। क्षत्राणी के पेट से जन्म लिया इसलिए कोई बड़ा और दूसरी माँ के पेट से जन्म लिया इसलिए कोई छोटा, यह बात ही मैं सहन ही नहीं कर सकता। जो ऊँचा काम करेगा वह ऊँचा और जो नीच काम करेगा वह नीचा। मैं तो यह मानता हूँ ।
कर्ण - फिर भी आपने मेरा पक्ष लिया इसलिए मैं तो आपका आभारी ही हूँ और आप जो कहो वह करने को तैयार हूँ।
दुर्योधन - मैं किसी चीज का भूखा नहीं हूँ । मुझे तो सिर्फ आपकी मित्रता चाहिए।
कर्ण - यह आप क्या कहते हैं ? मित्रता तो है ही । कहाँ राधा का पुत्र मैं और कहाँ धृतराष्ट्र के कुंवर आप ! कहाँ तो यह रंगमंडप और परीक्षा का समय और कहाँ एकाएक मेरा यहां आजाना, और फिर कहाँ मैं और कहाँ अंगदेश का राज्य । कहीं हमारे इस प्रकार इकट्ठा होने में ईश्वर का कोई संकेत तो नहीं है ? मुझे आपकी मैत्री का शुभ अवसर मिले इसलिए शायद ईश्वर ने मुझे यहाँ भेजा हो ? मैं आपको यह वचन देता हूँ कि यह कर्ण आज से दुर्योधन का मित्र है। सूर्य भगवान को साक्षी में रखकर की गई यह मैत्री अखंड रहे।
इतना कहकर कर्ण ने अपना हाथ दुर्योधन के हाथ पर रखा।
सब कौरव अपने इस नवीन भाई को हर्ष से बधाई देने लगे और इशी खुशी में मन में अनेक मनसूबे बांधते हुए वे रंग मंडप से घर आये।
राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपद्री का स्वयंवर था ।
द्रौपदी द्रुपद राजा के यज्ञ में से उत्पन्न हुई थी।
उसका भाई भी उसी यज्ञ की अग्नि में से खड्ग-कवच और धनुष-बाण लेकर ही जन्मा था ।
स्वयंवर मे देश-विदेश के राजा आये थे दुनिया के मशहूर नट और वैतालिक, पौराणिक, मल्ल और ब्राह्मण भी आये थे ।
शहर के बाहरवाले विशाल मैदान में स्वयंवर के लिए एक सुन्दर मण्डप बनाया गया था।
मण्डप के दरवाजे तोरण और पताकाओं से सुशोभित हो रहे थे ।
धूप और अगरू की सुगन्ध से सारी दिशायें सुवासित हो रही थीं ।
राजा-महाराजाओं के बैठने के लिए सिंहासन बनाये गये थे ।
पुरवासियों के लिए अलग मचान बनाया गया था।
दूर के एक कोने में दक्षिणा की लालसा से आये हुए गरीब और दुबले-पतले ब्राह्मण जैसे-तैसे ठूस ठाँस कर बैठे थे ।
स्त्रयंवर का समय हुआ।
धृष्टद्युम्न आया और मेघ गर्जन के समान गम्भीर स्वर से वोला- स्वयंवर में आये हुए हे राजा- महाराजा गण, सुनिए ! यह जो धनुष रखा हुआ है इससे इन वाणों को इस यंत्र के छिद्र में पांच बाण मारकर जो ऊपर का वह निशान बींधेगा उसे मेरी बहन इस स्वयंवर मे पसन्द करेगी ।
सारे राजा द्रौपदी को प्राप्त करने के लिए आकुल-व्याकुल हो रहे थे ।
दुर्योधन अपने भाइयों और कर्ण के साथ वहाँ उपस्थित था ।
गांधार से शकुनि आया था ।
अश्वत्थामा और विराट भी उपस्थित थे ।
चेकितान और भगदत्त को भी कम आशा नहीं थी।
कंक और शंकु भी आये थे ।
शिशुपाल और जरासंध को भी उनका गर्व वहीं खींच लाया था ।
धृष्टद्युम्न के वचन सुनकर राजा लोग एक के बाद एक करके अपना पराक्रम बताने लगे।
पर किसमें इतनी ताकत थी जो धनुष चढ़ाता।
राजा लोग धनुष को झुकाकर उस पर डोरी चढ़ाने जाते थे कि धनुष की नोक इतनी जोर से छाती में लगती कि वे बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ते थे।
उनका मुकुट एक ओर गिरता था और आभूषण दूसरी ओर जा पड़ते थे ।
होश आने पर वे अपना सा मुंह लेकर अपनी जगह पर चले जाते थे।
शिशुपाल जैसा राजा भी धनुष चढ़ाते चढ़ाते घुटनों के बल गिर पड़ा और अपनी जगह पर भाग आया।
महाराज शल्य आये और उनकी भी यही दशा हुई ।
महावीर जरासंध भी गिर पड़ा और उसके घुटने छिल गये।
ऐसी परिस्थिति में राधा-पुत्र कर्ण खड़ा हुआ और धनुष के पास गया ।
उसकी कान्ति मनोहर थी, उसकी चाल में गौरव था, उसके मुख पर पूरा आत्म-विश्वास था ।
ज्योंही कर्ण ने धनुष को हाथ लगाया कि सबको ऐसा लगा मानों निशान विंध गया हो ।
लेकिन कर्ण के भाग्य में द्रौपदी न थी ।
द्रौपदी तो द्रुपद की पुत्री; द्रौपदी तो महा समर्थ धृष्टद्युम्न की बहन, द्रौपदी तो यज्ञ में से उत्पन्न हुई; द्रौपदी तो वीर क्षत्राणी ।
कर्ण को धनुष चढ़ाते देखकर वह तुरन्त बोल उठी - मैं सूतपुत्र को नहीं वरूँगी ।
ये शब्द कान मे पड़ते ही कर्ण का सारा शरीर काँप उठा ।
तेजस्वी कर्ण, अंगदेश का राजा कर्ण, शस्त्रास्त्र में श्रेष्ठ कर्ण, कवच-कुण्डल धारण करनेवाला कर्ण, निस्तेज हो गया ।
उसका पराक्रम काफूर हो गया ।
उसके गात्र शिथिल हो गये ।
ऐसा मालूम होने लगा मानो उसकी इन्द्रियाँ सो गई हों।
सूतपुत्र, सूतपुत्र ये शब्द बार-बार उसके कानों से टकराने लगे ।
ब्राह्मण और क्षत्रिय कुल के इस खून के क़िले को धराशायी कर डालने का विचार एक क्षण के लिए उसके मन में गुजर गया ।
पर इतने में तो उसका शरीर अपने स्थान पर आकर बैठ गया था।
बेटा तू क्या कर रहा है ? आज मेरे पास आकर क्यों नहीं बैठता है ? - आश्रम के चबूतरे पर बैठते हुए गुरुजी ने पूछा ।
महाराज यह थोड़ी सी आग बाकी रह गई थी सो इसे बुझाकर यह आया - कहकर कर्ण परशुराम के पास आकर बैठ गया ।
परशुराम - बेटा इधर देख, कल तू यहाँ से चला जायगा । यह सोच कर मेरे मन में न जाने क्या होने लगता है। क्या मेरे मन की बात तू समझ सकता है ?
कर्ण - क्यों नहीं समझ सकता ? आपने मुझ पर असाधारण, कृपा करके मुझे जो विद्या सिखाई है उसका बदला मैं कब दे सकूँगा यही मैं सोचता हूँ ?
परशुराम - ऐसा मत कहो । मैं ब्राह्मण हूँ । विद्यादान का बदला लेने का विचार तक मेरे खून में नहीं है। तू ब्राह्मण-पुत्र मेरे पास रहकर इतना सीखा यही मेरा बदला । परन्तु नहीं-नहीं …
कर्ण परशुराम के सामने देखकर बोला - महाराज कहिए न, रुक क्यों गये ?
परशुराम - नहीं, कुछ नहीं ।
कर्ण - कहिए न आपको जो कहना हो कहिए ।
परशुराम - सुनेगा ? बात तो एक ही कहनी है। तू काँप क्यों रहा है ? तेरी आँखों में यह विह्वलता क्यों है ? तेरा मुंह पीला क्यों पड रहा है ?
कर्ण - यह तो यों ही आपको ऐसा लग रहा है। मुझे कुछ नहीं हुआ है। आप शांतिपूर्वक कहिए ।
परशुराम - यही कहना है कि अगर तू मेरा सच्चा शिष्य है तो पृथ्वी पर से क्षत्रियों का बीज नष्ट कर देना ।
कर्ण - महाराज !
परशुराम - मैं महाराज नहीं, मैं क्षत्रियों का काल हूँ । मेरा यह फरसा देख | इस फरसे से मैं ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली कर डाला । मेरा नाम सुनते ही क्षत्राणियों का गर्भपात हो जाता था। ऐसा मेरा आतंक था ।
कर्ण - महाराज फिर भी क्षत्रिय तो बच ही गये ।
परशुराम - हाँ रह गये इसीका तो मुझे अफ़सोस है। इक्कीस-इक्कीस बार क्षत्रियों के कुल का उच्छेद कर डाला और जिस प्रकार दावानल जंगलों को जलाकर खाक कर देता है उसी प्रकार
उनका हास किया फिर भी उनका बीज तो रहा ही ।
कर्ण - महाराज ।
परशुराम - सुन । इक्कीस - इक्कीस बार मैंने दुधमुंहे क्षत्रिय बालकों का सिर उडा दिया; इक्कीस - डक्कीस बार जवान-जवान क्षत्राणियों को विधवा बना दिया, इक्कीस - डक्कीस बार खून के बड़े-बड़े कुंड के कुंड भर डाले और फिर भी जब क्षत्रियों का बीज नष्ट नही हुआ तब मैं हारा । मुझे लगा कि क्षत्रियत्व नष्ट करने में मैं जगत के ईश्वरीय संकेत के विरुद्ध चल रहा हॅू। इसलिए अपना फरसा लाकर मैंने इस कुटी में टांग दिया और अपना मन तपश्चर्या में लगाया ।
कर्ण - फिर मुझे क्षत्रियों का बीज नष्ट करने की आज्ञा क्यों ?
परशुराम - बेटा तू मानव हृदय को नहीं पहचानता । तभी तो ऐसी बात पूछता है। यह फरसा यहाँ लाकर टांग दिया है इसलिए तू यह समझता है कि मेरा दाह शांत हो गया ? नही, बिलकुल नहीं । अगर ऐसा होता तो मैं अपनी यह रहस्य विद्या तुझे नहीं सिखाता। तब तो इस विद्या को, किसीके भी हाथ न लगे ऐसी जगह, कभी की दफ़ना दी होती ।
कर्ण - अगर मैं क्षत्रिय होता तो आप मुझे वह विद्या सिखाते या नहीं ?
परशुराम - इसका उत्तर तो तुम स्वयं ही हो न । शुद्ध ब्राह्मणपुत्र के सिवा मैं और किसीको नहीं सिखाता। दूसरा कोई सीखने आवे तो उन्हे जलाकर भस्म कर डालूँ । पर तू तो ब्राह्मण है । नीची निगाह क्यों करता है ? ब्राह्मण जन्म तो इस जगत में सर्वश्रेष्ठ है। तुझे देखते ही मुझे ऐसा मालूम होने लगता है मानों मेरा अधूरा कार्य तू पूर्ण करेगा ।
कर्ण - महाराज, आप बहुत उत्तेजित हो गये हैं । जरा शांत होइए । फिर आप जो कहेंगे वह सब मैं करने को तैयार हूँ ।
परशुराम - बेटा जब तू यहाँ आया ही नहीं था तब तो मैं शान्त ही था । उस मंगल प्रभात में जब तू आ गया, उसी समय अगर तू ने यह बताया होता कि तू क्षत्रिय पुत्र है तो मैं शान्त रहता; उसी दिन अगर तूने कह दिया होता कि तू वैश्य पुत्र है तो मैं शान्त रहता; उसी दिन तू ने अपने को शूद्र पुत्र बताया होता तो मैं शांत रह जाता। लेकिन तूने तो अपने को ब्राह्मण पुत्र बताया और मेरे हृदय की पुरानी आग फिर प्रज्वलित हो गई। उस पर जो राख पड़ी हुई थी वह अपने आप उड़ गई और मैं भभक उठा। उसी भभक में मैंने तुझे विद्या सिखाई । तू मेरे जैसा कट्टर ब्राह्मण बने इस आशा से मैंने अपना हृदय निचोड़कर तुझे दे दिया और मेरी विद्या का तू बराबर उपयोग करेगा इसी श्रद्धा से तो कल तुझे यहाँ से बिदा करके मैं निश्चिंतता से सोऊँगा ।
कर्ण - महाराज, आप अस्वस्थ मालूम होते हैं, कुछ आराम कर लें । फिर मुझे आप जो कहना चाहे कहिएगा ।
परशुराम - आराम तो कल लेना ही है न ? नहीं तो जिसके हाथ खून से सने हुए हों ऐसे मुझको इस जन्म मे आराम कहाँ ? आराम है मेरे हाथ को, आराम है मेरे पैर को, आराम है मेरे फरसे को; लेकिन आराम नहीं है केवल एक मेरी आत्मा को । आत्मा को तभी आराम मिलेगा जब तू उसे आराम देगा ।
कर्ण - महाराज आप थोड़ी-सी देर लेट लें । नहीं तो मैं यहाँ से चला जाऊगा । आपकी यह अस्वस्थता मुझसे नहीं देखी जाती ।
परशुराम - ठीक अगर तू कहता है तो यही सही । आप यहाँ मेरी जांघ पर सिर रखकर ही सो जाइए।
परशुराम - बेटा मुझे फुसलाता है। नहीं, तू ब्राह्मण ही है। तेरी देह पर गायत्री का तेज है । मुझे एक बार कह दे कि मैं ब्राह्मण हूँ तो काफ़ी है फिर मुझे और कुछ नहीं चाहिए । तू बिलकुल कंजूस नहीं है यह मुझे ठीक नहीं लगता । तेरी उदारता देखकर मुझे आश्चर्य होता है । फिर यह भी मन में होता है कि ब्राह्मणों ने सारी पृथ्वी क्षत्रियों को दे दी है यह भी कम उदारता थी ? तेरा मुँह ब्राह्मण के जैसा है ? तेरी कान्ति भी उतनी ही मोहक है। तेरे ये कवच-कुंडल किसी ब्राह्मण-दम्पति के व्रत-उपवास फल हैं। तू ब्राह्मण ही है । परशुराम की विद्या को ब्राह्मण के सिवा और कोई पचा नहीं सकता ।
कर्ण की गोदी में परशुराम का सिर था।
अर्ध-निद्रा और अर्धजागृत अवस्था में अपने दिल की बाते परशुराम के मुँह से निकल रही थी । कर्ण कांपते हुए हाथों से परशुराम का शरीर सहलाता जाता था ।
इतने में परशुराम एकाएक उठे और अपनी पीठ के नीचे देखा तो एक खून की धार बह रही है।
परशुराम - बेटा, यह क्या? यह खून कहाँ से आया ? तेरे पैर मे यह क्या हुआ ?
कर्ण खड़ा हो गया ।
उसका शरीर काँप रहा था।
उसकी आंखें विह्वल थीं।
उसकी वाणी भयभीत थी ।
कर्ण - महाराज ।
परशुराम - यह खून कैसे आया ?
कर्ण - महाराज, आपके सो जाने के बाद एक भौंरा उड़ता उड़ता इधर आया ।
परशुराम - फिर ?
कर्ण - उस भौरे ने मेरी जांघ में काट खाया ।
परशुराम - तो तू ने उसे उड़ा क्यों नहीं दिया ?
कर्ण - मैं ने उसे उड़ाने की बहुत कोशिश की परन्तु वह तो मेरी जांघ को कुतर-कुतर कर अन्दर ही अन्दर घुसता जाता था । उसने गहरा छेद कर डाला ।
परशुराम - इतना गहरा छेद कर दिया और तू कुछ भी न बोला ? और न हिला-डुला?
कर्ण - आपके आराम में विघ्न न पड़े इसलिए मैं ऐसा ही बैठा रहा ।
परशुराम यह सुनकर चुप हो गये।
उनका मन अन्तर में गहरे उतरकर कुछ सोचने लगा ।
क्षण भर के लिए उनकी आँखें मुंद गईं।
फिर उन्होंने आँखें खोलीं और उन आँखों में से आग की चिनगारियाँ बरसने लगीं ।
परशुराम - सच सच बता तू कौन है ?
कर्ण - महाराज यों आप क्यों पूछ रहे हैं ? मैं आपका शिष्य ।
परशुराम - पर तेरा वर्ण कौन ?
कर्ण - ब्रा.... ह्म... ण ।
परशुराम - सच बता । तू ब्राह्मण नहीं है। जल्दी बता, नहीं तो जलाकर भस्म कर दूंगा।
कर्ण सहम गया।
उसके सारे शरीर में पसीना आगया ।
उसकी आँखों के नीचे अंधेरा छा गया।
उसके अंग शिथिल हो गये ।
उसका गला रुँधने लगा।
उसकी जीभ मानो भाषा भूल गई हो ।
परशुराम - जल्दी उत्तर दे नहीं तो ।
कर्ण - महाराज मैं सारथि - पुत्र कर्ण हूँ ।
परशुराम - सारथि - पुत्र ? धिक्कार है तुझे । तू ने मेरी विद्या को भ्रष्ट कर दिया। तू ने मुझे धोखा दिया। अपने को ब्राह्मण-पुत्र बताते तेरी जीभ गलकर गिर क्यों न गई ?
कर्ण - महाराज, मेरा अपराध क्षमा कीजिए। अर्जुन के प्रति वैर- बुद्धि से प्रेरित होकर मैं आपके पास आया था। आपकी इस कृपा को मैं कभी भी नहीं भूलूगा ।
परशुराम - और मैं भी तो इतना मूर्ख था न कि तुझे अन्त तक ब्राह्मण पुत्र मानता ही रहा। आज तो मुझे स्पष्ट दिखाई देता है। कि तू ब्राह्मण पुत्र नही है ।
कर्ण - महाराज मुझे मेरी भूल के लिए क्षमा कीजिए ।
परशुराम - कर्ण, तेरा कहना ठीक है। क्षमा करना ब्राह्मण का धर्म है । मैं यह समझता भी हूँ। मैं यह भी जानता हॅू कि आदमी जब वैर - बुद्धि से प्रेरित होता है तब क्या-क्या नहीं कर डालता। लेकिन इतने वर्षों के बाद मुझे एक ब्राह्मण-शिष्य मिला और उसके ऊपर मैं ने आशा का जो महल खड़ा कर लिया था वह आज ढह पड़ा, इसीका मुझे बडा आघात लगा है। इक्कीस बार पृथ्वी को उजाड़ करके जब यहाँ आया था तो जीवन वीरान-सा लगता था। पर तेरे आने से वह फिर हरा-भरा हो गया। लेकिन नहीं, जगत के ईश्वरीय संकेत के विरुद्ध आशा रखनेवालों की आशायें इसी प्रकार नष्ट हो जाती हैं, यही इस पर से मुझे समझ में आता है ।
कर्ण - महाराज मुझे क्षमा कीजिए । कल के बजाय मैं आज ही यहाँ से विदा हो जाता हूँ ।
परशुराम - कर्ण! क्षमा करने की इच्छा तो बहुत होती है लेकिन कर नहीं सकता। मैं ने तुझे अपने प्रिय पुत्र के समान रखा। रात में जब तू सोया रहता था तो तेरे कानों में मैं अपनी विद्या के रहस्य भरता रहता था । यह सब मैं ने अपनी वैराग्नि को तृप्त करने के लिए ही तो किया। अगर तू न आया होता तो तपश्चर्या में मैं न जाने कितना आगे बढ गया होता।
कर्ण - महाराज, मुझे किसी प्रकार क्षमा करे ।
परशुराम - क्षमा तो तुझे उसी दिन से कर दिया जब से पुत्र समझा ।
कर्ण - तो महाराज ! आशीर्वाद दीजिए ताकि यहाँ से मैं विदा लूँ ।
परशुराम - शाप समझ या आशीर्वाद समझ । इस समय तो मेरे दिल से एक ही आवाज़ निकलती है कि मेरी दी हुई विद्या अपने अंत समय मे तू भूल जायगा ।
कर्ण - महाराज, क्षमा कीजिए। आपके लिए यह उचित नहीं है ।
परशुराम - कर्ण, सुन। जब तेरा अंत समय आवेगा तो रणभूमि में तेरे रथ का पहिया पृथ्वी में धंसने लगेगा। और उसी समय तू अपनी विद्या भी भूल जायेगा ।
कर्ण - भगवन बस कीजिए | यह तो हद हो गई ।
परशुराम - जा, अब तू सुख से घर जा । मेरा दिल आज हलका हो गया। जिस वैर को मैं ने आज तक सगे बेटे के समान पाल रखा था उसी वैर ने मेरे सारे जीवन को खट्टा बना दिया। मैं ने सोचा था कि विरासत में यह वैर मैं तुझे दे जाऊँगा और फिर शांति से रहूंगा। लेकिन ऐसी शांति प्रभु किसे देते हैं ? आज जिस प्रकार तुझे यहाँ से विदा दे रहा हूँ उसी प्रकार इस वैर को भी छुट्टी दे रहा हूं । कर्ण, मारकाट और खून खच्चर से हृदय की और विश्व की शांति खोजनेवाले सब लोगों को बताना कि परशुराम ने इसी तरह की शांति प्राप्त करने के लिए क्या-क्या नहीं किया लेकिन परिणाम में तो उसे अशांति ही मिली। पर तुझे भी तो अर्जुन को मारना है। इसलिए अभी यह बात तेरी समझ में नहीं आयगी । लेकिन याद रखना कि तेरे दुर्योधन, दुःशासन, अर्जुन, भीम और खुद युधिष्ठिर को यह बात समझनी पड़ेगी । इसके बिना कोई चारा नहीं है। फिर भले आज समझो या खून में हाथ रंग लेने के बाद, मेरे समान, अंत समय में समझो।
कर्ण - महाराज अव विदा लेता हूं। मुझ पर कृपा दृष्टि बनाये रखिएगा ।
परशुराम - कृपा दृष्टि तो तुझ पर और मेरे पर उस ईश्वर की ही है । तुझे यहाँ लाकर मेरे हृदय का अंधकार दूर करने का ही शायद उसका आशय रहा हो । जाओ बेटा, राधा तुम्हारी राह देख रही होगी ।
महल के पास के एक लता मण्डप में कर्ण खड़ा खड़ा इष्ट मंत्र का जप कर रहा था।
हर रोज मध्याह्न तक इस प्रकार जप करना उसका नियम था ।
वह आंखें मूंदकर माला फेर रहा था।
उसी बीच एक स्त्री आई और उसके पीछे छिपकर खड़ी हो गई।
उम्र से स्त्री वृद्धा थी।
उसके सिर पर के बाल सफ़ेद हो गये थे ।
शरीर पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं फिर भी उसकी आँखों का तेज किसी वीरांगना को भी शरमाने जैसा था।
मध्याह ढला, कर्ण का जप यज्ञ पूरा हुआ और पीछे फिर कर देखता है तो एक स्त्री खड़ी है।
कर्ण - तुम कौन हो ?
और उसकी ओर ध्यान से देखकर फिर बोला - ओहो आप तो कुंती । आप यहाँ कैसे ?
कुंती - बेटा,एक चीज़ मांगने आई हूँ ।
कर्ण - श्रीकृष्ण की बुआ और वीर अर्जुन की माता मुझ जैसे सूत- पुत्र से किस चीज की आशा रखती है ?
कुंती - बेटा जैसे मैं वीर अर्जुन की माँ वैसे ही सूतपुत्र कहे जाने वाले कर्ण की भी माँ हूँ। तू राधा का पुत्र नहीं मेरा पुत्र है ।
कर्ण - नहीं, नहीं, मेरा मल-मूत्र उठानेवाली और मुझ अकेले पर अपने जीवन का आधार रखनेवाली राधा मेरी मां नहीं है, जिस दिन मैं यह मानूँगा उस दिन आकाश टूट पड़ेगा । बेटा, मेरी कुंती - बात भी तो जरा सुन । मैं कुंतिभोज राजा की पुत्री । मेरे पिता के यहाँ बहुत से महापुरुष अतिथि आया करते थे । उनकी सेवा करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ था ।
कर्ण - ये सारी बातें मैं जान चुका हूँ। अभी कल ही श्रीकृष्ण मुझे रथ में बिठाकर ले गये थे और उन्होंने सारी बातें विस्तार से बताई थीं। यह बात जब में सुनता हूँ तो मेरे रोए खड़े हो जाते हैं । कुंती - कर्ण, जरा शांत हो। तुझे अगर क्रोध आवे तो मुझे जितना कहना हो कहना । मैं सब चुपचाप सह लूंगी। परंतु मेरी बात तो पहले सुन ले । मुझे एक भी लड़की नहीं है जो उसके सामने अपना दिल खोलकर रख सकूँ। इतने वर्षों बाद जब तुझसे मिलती हूं तो मेरे इन सूखे हुए स्तनों में भी दूध की धारा उतर आती है। मुझे अपनी बात कह तो लेने दे जिससे मेरे दिल का भार हलका हो ।
कर्ण - अच्छा, कहो ।
कुंती - कुंतिभोज के यहाँ एक बार दुर्वासा ऋषि पधारे। मेरी सेवा - चाकरी से वह प्रसन्न हुए और मुझे पाँच मंत्र दिये और कहा कि इन मंत्रों से तू जिस किसी देवता का आवाहन करेगी वह आकर उपस्थित होगा। स्त्री मात्र का हृदय जिस एक वस्तु के लिए तरसता रहता है वही वस्तु तुझे इन मंत्रों से प्राप्त होगी ।
कर्ण - फिर ?
कुंती - मैं तो थी कुंआरी । स्त्री का हृदय किस एक वस्तु की लालसा करता है यह तो मुझे मालूम नहीं था। कुतूहल बढ़ा। इस मंत्र का प्रयोग करके मैंने सूर्यनारायण का आवाहन किया ।
कर्ण - फिर ?
कुंती - तेजस्वी सूर्यनारायण प्रकट हुए। मैं तो कुछ भी नहीं समझी। लेकिन मेरे हृदय में एक बड़ा भारी तूफान चलने लगा था । सूर्य ने पूछा - मुझे क्यों बुलाया है ? मैंने कहा - आप वापस जाइए। मैं कन्या थी। मेरे शरीर में खून उछल रहा था। मेरे अंग-प्रत्यंग फटे पड़ते थे। मैंने सूर्य के सामने आड़े हाथ कर लिये । मैं ने कहा- मैं कुंआरी हूँ। समाज मुझे क्या कहेगा ? लेकिन सब व्यर्थ । मेरी आत्मा परवश थी। मना करते-करते भी मैं सूर्य की तरफ खिंची जाती थी ।
कर्ण - फिर ?
कुंती - फिर तो नौ महीने नौ युग के समान लंबे हो गये । न कहीं बाहर निकल सकती थी न किसी को मुंह दिखा सकती थी । शरम का ठिकाना नहीं । इस प्रकार करते-करते बेटा तू आया । तेरे ये कवच और कुंडल उस समय कैसे शोभा देते थे। मैं तो उन्हें देखकर अधाती न थी ।
कर्ण - फिर ?
कुंती - फिर ? फिर … तुझे छोड़ा। रेशमी कपड़े में लपेटकर तुझे पेटी में रखा और अपने हाथों से अपनी आँखें मूंद ली। दासी ने पेटी बंद कर दी ।
कर्ण - फिर ?
कुंती - फिर मेरा तुझ पर से अधिकार उठ गया और तेरी राधा का अधिकार शुरू हो गया ।
कर्ण - फिर ?
कुंती - बेटा, अब भी फिर-फिर कहकर मुझे चिढ़ाता क्यों है ?
कर्ण - तो अब आज क्या मांगने आई हो ?
कुंती - मैं एक ही चीज मांगने आई हूं कि तू मेरी छाती में वापस आजा और मुझे माँ कहकर बुला ।
कर्ण - आपको यह मांगते शरम नहीं आती ? जो स्त्री अपने पेट के बालक को नदी में बहाते हुए झिझकी नहीं वह आज मां होना चाहती है, क्या यह उचित है ?
कुंती - बेटा कर्ण, ऐसा मत बोल । तुझे अभी स्त्री-जीवन की ख़बर नहीं है। तूने कुंआरी अवस्था नही बिताई है। इस अवस्था में होने- वाली दिल की उथल-पुथल को तू ने अनुभव नहीं किया है । यह अवस्था ही मनुष्य को कितना विह्वल कर डालती है इसका तुझे खयाल नहीं है ।
कर्ण - यह तो भले ही चाहे जो हुआ । परन्तु तुम्हें मेरा त्याग करने का क्या अधिकार था ? जो माता अपने बालक का सर्वांग सुन्दर विकास न करे उसको माता होने का क्या अधिकार है ?
कुंती - बेटा, तेरी बात बिलकुल सच है। लेकिन बेटा स्त्री माता होती है तो अपनी बुद्धि से अंकगणित की गिनती करके होती है। क्या ? इसमें तो प्राणिमात्र अन्तर की एक धड़कन के वशीभूत होकर बरतते हैं और माता-पिता का धर्म, अधिकार, विकास वग़ैरा तो सब बाद में पैदा होते हैं ।
कर्ण - परन्तु तुमने मेरा त्याग किया यह बात नहीं भूल सकता ।
कुंती - बेटा, यह तो भूलने जैसी है भी नहीं। लेकिन इसका दोष तुझे समाज को देना चाहिए। हमारा समाज ऐसी भूलों को क्षमा नहीं करता, उल्टे घाव पर नमक छिड़कता है। इसी से मेरी जैसी माताओं को गलत रास्ता लेना पड़ता है। ऐसी भूलें न होने पावे इसके लिए समाज उचित उपाय करे यह जरूरी है। लेकिन भूल हो जाने पर उदार दृष्टि से उस पर विचार करे और उसको हल करे तो मेरे खयाल से समाज के कितने ही खानगी पाप अपने आप कम हो जायेंगे ।
कर्ण - परन्तु, तुमने मेरा तो बुरा ही किया न ? जन्म से क्षत्रिय होते हुए भी मैं सूतपुत्र कहाया । और वह तुम्हारे पाप के कारण।
कुंती - ज़रूर। यह बात तो आज भी मुझे जला रही है। पांडव और कौरवों की परीक्षा के समय जब तू ने अर्जुन को द्वन्द्वयुद्ध में ललकारा तो उस समय कृपाचार्य ने और भीम ने जो तेरा कुल और गोत्र पूछा और तुझे हीन बताया उस समय मैं बेहोश हुई थी यह तुझे मालूम थोड़े ही है । द्रौपदी के स्वयंवर में जब धनुष चढ़ाने को तू खड़ा हुआ तब द्रौपदी ने कहा कि मैं सूतपुत्र को नहीं वरूँगी यह समाचार सहदेव ने जब मुझे सुनाया तो मेरे हृदय में कैसा मंथन होने लगा था उसका तुझे खयाल ही कहाँ से हो सकता है। बेटा, तुझे मेरे कर्मों के कारण सूतपुत्र होना पड़ा इसमे जरा भी शङ्का नहीं है । लेकिन आज तो सब भूल जा और मेरी गोदी में वापस आजा ।
कर्ण - तुम्हारी बात मेरी समझ में थोड़ी-थोड़ी आती है । आज न जाने क्यों मेरे जीवन का रोष उतर जाता है । लेकिन मैं फिर से तुम्हारा हो जाऊँ यह सम्भव नहीं मालूम होता । राधा ने सगी मां के प्रेम से मेरा पालन-पोषण किया है। सूत जाति में मैं ने शादी की है और मुझे लड़के बच्चे हुए है । उस सारे स्नेह सम्बन्ध को छोड़कर कुन्तीपुत्र होना मेरे लिए असम्भव है ।
कुंती - बेटा, इस तरह मत बोल | तेरी राधा के मैं पैरों पडूगी । जैसे द्रौपदी मेरी बहू वैसे ही तेरी स्त्रियाँ भी मेरी बहू । तू युधिष्ठिर का बड़ा भाई। पांचों पाण्डव तेरी सेवा करेंगे । और युद्ध के अंत में जब तू इस भारतवर्ष का राजा होगा तभी यह कुंती तृप्त होनेवाली है । तू तो राजा होने के लिए ही पैदा हुआ है ।
कर्ण - तुम जो कुछ कहती हो वह चाहे जितना अच्छा दिखाई दे फिर भी मेरे लिए तो वह असंभव है । भारतवर्ष के राजा या तो युधिष्ठिर होंगे या दुर्योधन होगा ।
कुंती - नहीं, नहीं। मैं तो चाहती हूँ कि युधिष्ठिर तेरे पास खड़ा रहकर तेरी सेवा करे । और जहाँ तुम जैसे और अर्जुन जैसे वीर मेरे पुत्र हों वहाँ दुर्योधन के लिए राज्य की आशा ही कहाँ है?
कर्ण - मुझे क्षमा करो। स्वार्थ के वश होकर तुम मुझे अधर्म की तरफ़ ले जा रही हो। जिस समय सारे हस्तिनापुर में सब लोग मुझे सूतपुत्र, सूतपुत्र कहकर दुत्कारते थे तब दुर्योधन ने मुझे अंगदेश का राजा बनाया। जब भीष्म, द्रोण, और विदुर जैसे महात्मा भी कौआ कहकर मेरा तेजोवध कर रहे थे उस समय दुर्योधन ने मुझे अपने पास रखकर मित्रता को कायम रक्खा। जब युद्ध करना या न करना इस पर चर्चा और निर्णय हो रहा था तब मेरी मित्रता के आधार पर ही दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को वापस लौटा दिया और युद्ध स्वीकार किया । आज उस दुर्योधन की मित्रता के पाए को तोड़कर मैं फिर तुम्हारा हो जाऊँ इसमें तुम्हारी क्या शोभा है ? तुम स्वार्थ से अंधी हो गई हो इसलिए यह चाहती हो। तुमको यह पता नहीं कि अभी भी अर्जुन श्रीकृष्ण की मित्रता को छोड सकता है लेकिन कर्ण दुर्योधन की मित्रता नहीं छोड़ सकता ।
कुंती - तो मुझे इस प्रकार एकाएक निराश करेगा ?
कर्ण - दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है ।
कुंती - रास्ते अगर निकालने ही हों तो बहुत है । लेकिन तुझे निकालना जो नहीं है । लड़ाई में तू अपने हाथों अपने ही सगे भाइयों को मारेगा तब तेरा हृदय फटेगा नहीं ? युधिष्ठिर को मारते हुए तेरा हाथ उठेगा ? नकुल और सहदेव जैसे मेरे कोमल कुमारों को तू मारेगा ? कर्ण, जरा विचार तो कर । तू तो सब यह कर सकेगा। लेकिन तुम सबको एक ही पेट में से जन्म देने वाली इस कुंती का उस दिन क्या होगा इसका भी कुछ विचार किया है?
कर्ण - यह तो लड़ाई का मामला है । क्षत्रिय ऐसी बातों से डरते नहीं हैं ।
कुंती आगे आई और घुटनों के बल पड़ गई ।
उसका हाथ कर्ण के घुटनों पर था ।
कुंती - बेटा, मेरी तरफ़ देख तो तेरे पास कौन आया है यह तेरे ध्यान में है ?
कर्ण - हाँ, तुम कुंती ।
कुंती - अब इस तटस्थ नाम का उपयोग मत कर । मैं कुंती तेरी माँ हूँ । संग्राम में कूदकर तुझे अपने ही भाइयों को मारना हो तो उसके पहले तू यहीं मेरा वध कर डाल ताकि उसे देखने का मौका ही मुझे न मिले। तेरा धर्म-अधर्म, तेरी मैत्री, तेरा क्षत्रियत्व ये सब तेरी इस माँ के सामने टिक रहे हैं इसीका मुझे आश्चर्य होता है । नहीं तो माता की आँख का एक आँसू इन सबको मिटा डालने को समर्थ है । कर्ण मेरी तरफ़ देख । ऊपर तेरे पिता बैठे हैं । उस पिता की साक्षी में मैं तुझसे माँगती हूँ कि, संग्राम में पाण्डवों को न मारने का वचन मुझे दे ।
कर्ण चुप रहा।
कुंती - कर्ण, बोल, जवाब दे ।
कर्ण - मुझे जाने दो।
कुंती - यों नहीं जा सकता । अपनी माता को इतनी सी भीख दिये बिना तू नहीं जा सकता ।
कर्ण - ठीक तो मैं नकुल और सहदेव को नहीं मारूँगा।
कुंती - यह तो ठीक ही है । नकुल और सहदेव के ऊपर तेरे जैसा धनुर्धारी हाथ उठावे तो यह हलकापन हुआ। वे क्या तेरी बराबरी के हैं ? इसमें मुझे तूने क्या दिया ?
कर्ण - नकुल सहदेव को तो नहीं ही मारूँगा, पर भीम को भी नहीं मारूंगा ।
कुंती - भीम को । कहाँ तू और कहाँ भीम । मोटा शरीर होने से भीम क्या बड़ा हो गया ? भीम का तो पागल जैसा काम होता है । भीम तेरी विद्या भी तो नहीं जानता इसलिए उसे मारने में तो खुद तुझे भी मजा न आयेगा ।
कर्ण - अब बस करो। मेरे दिल में न जाने क्या हो रहा है । यह आखिरी बार कहे देता हूँ कि मैं युधिष्ठिर को भी लड़ाई में नहीं मारूंगा । जाओ, अब इसके आगे मांगोगी तो तुम्हे अपने कर्ण की सौगंध है ।
कुंती - बेटा, अंत में मेरा हुआ न ? पर मेरी मांग तो अधूरी ही रह गई न ? मैं तो माँगनेवाली थी कि तू अर्जुन को मत मारना ।
कर्ण - अगर तुम्हें यही माँगना है तो अपने ही हाथों मुझे मार डालो यही अच्छा है। अर्जुन को न मारने का वचन देना यह मेरे लिए आत्महत्या कर लेना है। दो दिन के बाद जो युद्ध होनेवाला है वह पांडव और कौरवों के बीच नहीं बल्कि मेरे और अर्जुन के बीच होगा । दुर्योधन ने यह सारी लड़ाई मेरे वल पर मोल ली है । और मैं तुमको यह वचन दे दूँ इसकी अपेक्षा प्राण त्याग करना बेहतर है। अब जाओ ।
कुंती - तो बेटा, यह चली। मैं आई थी तुम्हें लेकर पाँच के छः पांडव करने की आशा से । लेकिन अब जाती हूँ पाँच के चार पांडव करने के समाचार लेकर। बेटा कर्ण, पुत्र माताओं को इसी प्रकार जगत में संतोष देंगे क्या ? क्यों बोलता क्यों नहीं ?
कर्ण - खड़ी रहो । सुनो, एक बात कहता हूँ । लड़ाई में अगर अर्जुन मारा जायेगा तो कर्ण पाण्डवों के साथ मिल जायेगा । परंतु यह विचार करना ही व्यर्थ है । आज थोड़ी देर के लिए अगर काल की चादर को फाड़कर उस पार देखता हूँ तो दीखता है कि श्रीकृष्ण जिसके सारथि है ऐसे अर्जुन का ही विजय है । और उसके हाथों ही मेरी मृत्यु है । अस्तु । जो होना होगा वह होगा। अगर अर्जुन रणभूमि में काम आयेगा तो मैं तुम्हारा हो जाऊँगा । और मैं काम आऊँगा तो कुछ कहता नहीं । पाण्डव पाँच के छः नहीं हो सकते उसी प्रकार पाँच के चार भी नहीं होंगे। यह निश्चित है। वस, अब तुम जाओ ।
कुंती - कर्ण, एक बात पूछने की इच्छा होती है । पूछूं ?
कर्ण - खुशी से पूछो।
कुंती - कल श्रीकृष्ण को तूने क्या वचन दिया था ?
कर्ण - श्रीकृष्ण को ? कुछ भी नहीं । श्रीकृष्ण मेरे पास एक राजनैतिक पुरुष की हैसियत से आये थे । उनकी बातों में मेरी महत्वाकांक्षाओं को पोषण मिलनेवाली चीजें थीं। श्रीकृष्ण ने मेरे सामने राजपाट रखा, मुकुट रखे, प्रतिज्ञा रखी, ऐश्वर्य रखा, स्वर्ग रखा; परंतु उनको मालूम नहीं है कि मेरे मन में तो दुर्योधन की मैत्री के सामने इन सब का कोई मूल्य नहीं है। एक बात कहे देता हूँ । तुम आज यह वचन लेकर जा रही हो उसका कारण समझी ?
कुंती - क्या, बतातो ।
कर्ण - तुम्हारी माता के रूप मे जीत हुई है। तुमको शुरू में जब देखा था उस समय तो मैं क्रोध से काँप रहा था पर तुम्हारे सामने मेरा क्रोध टिक नहीं सका । पैदा करनेवाली माता के अन्तर मे कितना स्नेह होता है यह मुझे आज मालूम हुआ। मुझे आज ऐसा लगता है कि पाण्डव और कौरवों के बीच सन्धि कराने के लिए श्रीकृष्ण के बदले तुम और गांधारी आई होतीं तो यह लड़ाई रुक सकती थी । राजनैतिक पुरुष चाहे जितनी संधि-चर्चायें करें परन्तु उनके हृदय में युद्ध खेल रहा होता है। इस कारण उनके हाथों जगत को शांति मिल ही नहीं सकती। उनके मुंह मे चाहे जितने मीठे शब्द हों तो भी उनके शब्दों के गर्भ में जहर होता है। कुंती, जगत की अशांति और तूफान अगर किसी दिन शांत होने वाले होंगे तो वे हमारे जैसे योद्धाओं से नहीं शांत होंगे या श्रीकृष्ण जैसे राजनैतिक पुरुषों से भी शांत नहीं होंगे । यह तूफान, यह सर्वनाश, यह अराजकता और यह वैर भाव शांत होगा जगत की माताओं से । इसका आज मुझे विश्वास हो गया है। जगत को इस प्रकार के महाभारतों में से बचा लेने के लिए न तो वीरों की जरूरत है और न चालाक राजनैतिक पुरुषों की, न जरूरत है बड़े-बड़े व्यापारियों की और बड़े-बड़े कारीगरों की । जरूरत है केवल एक माता की। लेकिन आज तो यह सब व्यर्थ है। युद्ध के डंके बज चुके हैं और काल सबको बुला रहा है । अब जाओ। बहुत देर हो गई है।
कुंती घुटनों के बल पड़ी थी सो खड़ी हुई।
उसने कर्ण का सिर सूंघा ।
कर्ण ने झुककर कुंती के पैर छुये और मां-बेटे एक दूसरे को देखते-देखते अलग हुए।
कर्ण अपने लता मण्डप में खड़ा खड़ा जप कर रहा था ।
ऊपर आकाश में सूर्यनारायण खूब तप रहे थे।
नौकर ने आकर कहा - महाराज दरवाजे पर एक ब्राह्मण आकर खड़ा है, वह अंदर आना चाहता है ।
कर्ण के मुंह पर आनंद की रेखा झलक उठी।
उसके शरीर में नया ज़ोर आ गया ।
जाओ उन महात्मा को अंदर ले आओ ।
थोड़ी ही देर में कर्ण के आसन के पास एक ब्राह्मण आकर खड़ा हो गया ।
उसका कद छोटा था, आँखों में चपलता थी, कंधे पर जनेऊ था, गले में रुद्राक्ष की माला थी और हाथ में कमंडल था ।
कर्ण - पधारिए महाराज ।
ब्राह्मण - कर्ण !
कर्ण - महाराज, क्या आज्ञा है ? आप जरा सामने आइए ताकि मैं आपका दर्शन तो कर सकूँ ।
ब्राह्मण - राजन, सन्मुख तो फिर आऊँगा, पहले तू यह वचन दे कि जो मैं मांगूंगा वह तू मुझे देगा ।
कर्ण - महाराज, आप नहीं जानते कि मैं मध्यान्ह तक जप करता हॅूं। इस बीच कोई भी ब्राह्मण आकर मुझसे जिस किसी चीज़ की माँग करता है वह मैं अवश्य पूर्ण करता हूँ ।
ब्राह्मण - मैं ने तेरे विषय में ऐसा बहुत कुछ सुना है इसीलिए तो मैं बहुत दूर से आ रहा हूँ ।
कर्ण - बोलिए महाराज, क्या इच्छा है ?
ब्राह्मण - इच्छा ? यों देखो तो कुछ नहीं, बिलकुल जरा सी है । फिर भी मुझे भय है कि शायद मेरी इच्छा पूरी न हो ।
कर्ण - अच्छा! आपको ऐसा मालूम होता है कि कर्ण अपनी प्रतिज्ञा का भंग करेगा । हाँ, मुझे इसका भय है ।
कर्ण - तो फिर आप कर्ण को पहचानते नहीं हैं। सुनिए जिस दिन कर्ण का वचन मिथ्या होगा उस दिन सूर्य पश्चिम में उगेगा | आप मांगिए ।
ब्राह्मण - माँगूं ? पर अब मेरे मन में ऐसा आता है कि मैं वापस चला जाऊँ। तुम सुख से रहो ।
कर्ण - नहीं, नहीं, खुशी से माँगिए । संकोच बिलकुल न करें ।
ब्राह्मण - कर्ण, अच्छा तो फिर माँगता हूँ । तुम अपना यह कवच और कुंडल उतार कर मुझे दे दो ।
इतना कहते-कहते ब्राह्मण का मुंह काला पड़ गया। उ
सके सारे शरीर पर पसीना आ गया ।
कर्ण के मुंह पर हास्य की रेखा छा गई।
उसके रोमांच खड़े हो गये ।
और अपने शरीर पर से वह कवच और कुण्डल उखाड़ने लगा ।
सर्प को केचुल उतारते कितनी देर लगती है ?
सारा शरीर छिल गया खून की धारा बहने लगी ।
आकाश में सूर्यनारायण एक काले से बादल की आड़ में छिप गये ।
मण्डप के पक्षीगण कलरव करने लगे।
लताओं ने पुष्पों की वृष्टि की और देखते-देखते कवच और कुण्डल ब्राह्मण के हाथ में आ गये ।
कर्ण - लीजिए महाराज, यह कवच और कुण्डल । अब तो आप सामने आइए । बगल में क्यों खड़े हैं ?
ब्राह्मण - मेरी तबीयत इस समय ठीक नहीं है, इसलिए अब इन्हे लेकर मुझे जाने दे | अब मुझे तुम्हारे सामने नहीं आना ।
ब्राह्मण ने बिदा ली।
कर्ण उसको जाते हुए देखता रहा ।
वह ब्राह्मण थोड़ी ही दूर गया था कि फिर रुक गया।
और नीची गर्दन किये चुपचाप कर्ण के सामने देखने लगा ।
कर्ण - महाराज, खड़े क्यों रह गये ? और कोई दूसरी इच्छा है ?
कर्ण ने प्रश्न किया ।
ब्राह्मण - यह दरवाजा बन्द है ।
कर्ण - मैं यहाँसे देख रहा हूं । वह तो खुला है। आपको कोई नहीं रोकेगा | आप निःशंक होकर जाइए।
ब्राह्मण दो कदम आगे जाकर फिर रुक गया ।
कर्ण - क्यों महाराज, रुक क्यों गये । आप सुख पूर्वक पधारिए।
ब्राह्मण - राजन, मेरे पैरों में अब आगे जाने की ताक़त नहीं रही ।
कर्ण - महाराज, आपको जहां जाना होगा वहाँ मेरा रथ आपको छोड़ आवेगा ।
कर्ण ने नौकर को रथ लाने का आदेश दिया। रथ हाज़िर हुआ। लेकिन ब्राह्मण तो खड़ा ही रहा।
महाराज, अब पधारिए । रथ तैयार है ।
ब्राह्मण के पैर रथ की तरफ़ जाने के बदले कर्ण की तरफ़ उठे ।
फिर वह कर्ण के पास आकर खड़ा हो गया ।
कर्ण - क्यों महाराज, और कोई आज्ञा है ?
ब्राह्मण - हाँ, एक आज्ञा है । तुम मुझ से कुछ माँगो ।
कर्ण - मेरे लिए आपका आशीर्वाद ही काफ़ी है। आप मेरे सामने नहीं आते हैं यही मैं अपना दुर्भाग्य समझता हूँ ।
ब्राह्मण - दुर्भाग्य तो मेरा है बेटा तूने मुझे पहचाना नहीं ।
कर्ण - मैंने आपको पहचान लिया है। आप अर्जुन के पिता इन्द्र हैं ।
ब्राह्मण - कर्ण, कर्ण, तूने तो गजब कर दिया । मैं इन्द्र हूं यह तुझे कैसे मालूम हुआ ?
कर्ण - यह आप जानते ही हैं कि जिस प्रकार आप अर्जुन के पिता है उसी प्रकार सूर्यनारायण मेरे पिता हैं । जैसे आप दिन रात अर्जुन की चिंता किया करते हैं वैसे ही सूर्यनारायण मेरी चिंता किया करते हैं। आप ब्राह्मणवेश में मेरे कवच - कुडल लेने के लिए आनेवाले हैं इसकी सूचना उन्होंने कल ही मुझे स्वप्न में दे दी थी।
ब्राह्मण - बेटा कर्ण, तू यह क्या कहता है ? मैं इन्द्र हॅू यह भी तू जानता था ? यह मैं अर्जुन के लिए ले जाता हूँ यह भी तू जानता था ?
कर्ण - यह सब सूर्य भगवान ने मुझे बता दिया था।
ब्राह्मण - फिर भी तूने यह सब मुझे क्यों दे दिया ? युद्ध में तुझे भी तो विजय की आशा होगी ही ।
कर्ण - होगी ही नहीं है ही। उस विचार से तो मुझे आपको इनकार करना चाहिए था। लेकिन मैं तो कर्ण हॅू न ? एक बार मैंने प्रतिज्ञा की कि जप करते समय मांगनेवाला खाली हाथ न जायगा तो नहीं ही जायगा ।
ब्राह्मण - सूर्यनारायण ने तो तुझे ऐसा करने से मना तो किया ही होगा ।
कर्ण - वह तो मना ही करेंगे । आप अर्जुन के लिए जितना परिश्रम उठाते हो, कपट वेश धारण करते हो, झूठ बोलते हो तो पिता के हृदय को तो मेरे बजाय आप अच्छी तरह जानते हैं।
कर्ण, देवराज कर्ण के पैर छूते हुए बोले - कर्ण, तू नमस्कार के योग्य है। सच कह दूँ ? मैं पहले पहले जब तेरे पास आया था तो तेरे बगल में खड़ा रहा था। सामने खड़ा रहकर तेरा तेज बर्दाश्त करने की ताक़त मुझ में नहीं थी ।
कर्ण - अब आप सुखपूर्वक पधारिए । रथ तैयार है ।
ब्राह्मण - कर्ण, पर क्या तू यह मानता है कि मेरे पैर दर्द करते थे इसलिए मैं नहीं जाता था, या दरवाजा बंद था ? अरे बेटा, दरवाज़ा तो आज अंतर का खुल गया ।
कर्ण - तब आप क्यों नहीं जाते थे ?
ब्राह्मण - कैसे जाया जाय ? ये कवच और कुंडल उतरवाने के बाद मेरे दिल पर कितना भारी बोझा हो गया है कि इसकी तुझे क्या ख़बर हो । दूसरे का सारा जीवन माँग लेकर चल निकलना कितना कठिन होजाता है यह अगर अनुभव करना हो तो मेरे दिल के अंदर प्रवेश करके देख कि दैत्यों को मारनेवाला इन्द्र आज एक भी क़दम आगे नहीं बढ़ा सकता ।
कर्ण - देवराज, मुझे शरमाइए मत ।
ब्राह्मण - कर्ण, एक बात पूछूं ?
कर्ण - ज़रूर पूछिए ।
ब्राह्मण - कवच और कुंडल उतारते समय तेरे मन में ज़रा भी संकोच हुआ था या नहीं ?
कर्ण - संकोच कैसा ? और संकोच हो भी तो आपको होना चाहिए। मुझे क्यों? मैंने तो सूर्यनारायण को तभी कह दिया था कि इन्द्र जैसे देवता ब्राह्मण का रूप धारण कर मेरे घर मांगने आवें यह तो मेरा अहोभाग्य होगा ।
ब्राह्मण - कर्ण, तेरे ये वचन सुनता हूँ तो मेरे सारे शरीर में एक जलन सी होती है । तुझे ऐसा नहीं लगा कि इन कवच और कुडलों के चले जाने से फिर तू अर्जुन के सामने टिक नहीं सकेगा ? इस विचार से भी तूने इनकार नहीं किया ?
कर्ण - यह समझ लीजिए कि अर्जुन से तो मैंने आज ही लड़ाई लड़ ली और अर्जुन की उसमें हार हुई है। जहाँ देवराज इन्द्र को अर्जुन को विजय दिलाने के लिए मेरे जैसा से कवच और कुंडलों की भीख मांगनी पड़े यह अर्जुन का पराजय नहीं तो और क्या है ? भले ही फिर दृश्य संग्राम में अर्जुन का शरीर मेरे बजाय ज्यादा टिके | आप सुख पूर्वक पधारिए । अर्जुन से कहिएगा कि यह तेरे लिए विजय ले आया हूँ। अब कर्ण का देह अभेद्य नहीं रहा इसलिए तेरे बाण उसपर अपना काम करेगे ।
ब्राह्मण - कर्ण, मेरी एक बात सुनेगा ?
कर्ण - आज्ञा कीजिए ।
ब्राह्मण - आज्ञा - वाज्ञा तो जाने दे । मुझ से तू कुछ माँग ।
कर्ण - बस मैं तो आपके आशीर्वाद चाहता हूँ ।
ब्राह्मण - नहीं, इसके अलावा और कुछ माँग ।
कर्ण - आपके पास से और कुछ मांगने की इच्छा नहीं होती ।
ब्राह्मण - लेकिन जबतक तू मांगेगा नहीं मुझसे यहाँ से जाया नहीं जायगा । न जाने कौन मुझे यहाँ रोक रहा है। मुझसे एक क़दम आगे नहीं बढ़ा जाता। मेरे दिल में न जाने क्या हो रहा है। तू कुछ मांग।
कर्ण - अगर ऐसा हो तो आप जो देना चाहे वह दे दीजिए।
ब्राह्मण - नहीं यों नहीं। तू खुद माँग, तो ही मुझे शान्ति मिलेगी।
कर्ण - तो सूर्यनारायण ने जो सुझाया वही माँगें ? आपके पास जो अमोघ शक्ति है वह मुझे दीजिए ।
ब्राह्मण - कर्ण, ठीक याद दिलाया । ले यह मेरी अमोघ शक्ति । तू ने उचित वस्तु मांगी है। इस अमोघ शक्ति का ऐसा नियम है कि जिसपर इसका प्रयोग करेगा वह मनुष्य तो मरेगा ही। फिर वह चाहे जो हो । लेकिन इसका प्रयोग तू एक बार ही कर सकेगा ।
यह कहकर इन्द्र ने कर्ण को अमोघ शक्ति दी । बेटा, अब इन कवच और कुण्डलों का भार कुछ का हलका हुआ। अब मैं जा सकूंगा। मैंने तेरे कवच और कुंडल उतारे यह विचार ही अभी तक मुझे चुभ रहा है। लेकिन मैं उसके बदले कुछ दे सका हूँ इससे मुझे कुछ शांति मिली है । इस अमोघ शक्ति का प्रयोग तू अर्जुन पर भी कर सकता है। किसी भी एक व्यक्ति पर और केवल एक बार इसका प्रयोग करना । तो अब जाता हूँ । परमात्मा तेरा कल्याण करें ।
इन्द्र कर्ण के कवच कुंडल लेकर अपने लोक मे गये और कर्ण अमोघ शक्ति लेकर अपने महल में गया।
दुर्योधन के खीमे में एक पलंग पर मद्रराज शल्य बैठे हुए थे ।
उनके सामने दुर्योधन बैठा हुआ था ।
शल्य - महाराज दुर्योधन, मुझे क्यों याद किया ? क्या आज्ञा है ?
दुर्योधन - महाराज आप जानते है कि हमारी शक्ति दिन पर दिन कम होती जाती है। भीष्म बाणशैया पर पड़े और कल द्रोणाचार्य भी रणभूमि में काम आ गये । ये दोनों जब तक थे तब तक मुझे कुछ देखना नहीं था। लेकिन आज तो अब सेनापति किसे बनाया जाय यही एक बड़ा प्रश्न सामने है ।
शल्य - महाराज, अपनी सेना में वीर योद्धाओं की कहाँ कमी है ?
दुर्योधन - तो मैं संक्षेप में आपको सब बता देता हूँ। इस समय रात के दो बजे हैं। और सुबह पांच बजे युद्ध शुरू करना है । कर्ण को सेनापति बनने का मैंने निश्चय किया है ।
शल्य - उस सूतपुत्र को । आपको और कोई दूसरा क्षत्रिय नहीं मिला ?
दुर्योधन - मेरे सामने सूतपुत्र और क्षत्रियपुत्र का सवाल नहीं है । मुझे पाण्डवों को हराना है। इसलिए जो पाण्डवों के सामने टिक सके वही मेरा सेनापति । यह निश्चय तो हो चुका है ।
शल्य - जब निश्चय हो चुका है तो मुझसे फिर पूछना क्या ?
दुर्योधन - आप से तो दूसरी बात पूछनी है ।
शल्य - क्या ?
दुर्योधन - कर्ण अर्जुन का प्रतिपक्षी है। कर्ण का विचार है कि वह कल अर्जुन को मारे । और पाण्डवों का सारा आधार अर्जुन पर है।
शल्य - कर्ण तो कौआ है । उसे बस काँव-काँव करना ही आता है।
दुर्योधन - ज़रा सुनो तो । यों तो कर्ण और अर्जुन दोनों बराबर जैसे ही है ।
शल्य - तो फिर कल ही अर्जुन को मारकर अपना अभिषेक करा लीजिए न ! फिर तो यह सारी झंझट मिट जायगी । भीष्म के बदले पहले कर्ण को ही सेनापति क्यों न बनाया ?
दुर्योधन - शल्य, ऐसे उतावले न बनो । हम दोनों का समय जाता है।
शल्य - तो मुझे जो कहना हो जल्दी कह दीजिए ।
दुर्योधन - कर्ण और अर्जुन दोनों बराबरी के योद्धा हैं पर अर्जुन के पास तो कृष्ण हैं ।
शल्य - तो कर्ण को भी एक कृष्ण लाकर देदो । कर्ण की जाति में तो कृष्ण ही कृष्ण तो भरे पड़े हैं।
दुर्योधन - शल्य, ऐसा न बोलें । कर्ण का कहना है कि जिस प्रकार श्रीकृष्ण अर्जुन का रथ हाँकते हैं उसी प्रकार अगर मद्रराज शल्य मेरा रथ हार्के तो कुंतीपुत्र कल जिन्दा नहीं बच सकता ।
शल्य - महाराज दुर्योधन, आपके सिवा किसी और ने अपने मुंह से ये शब्द निकाले होते तो उसका सिर धड़ से जुदा कर देता । मैं मद्रदेश का राजा हूँ । मुझे लड़ना तो चाहिए था अपने भान्जे नकुल और सहदेव की तरफ़ से परंतु आपके साथ के संबंध की बजह से मैं इस तरफ़ आया हूँ । कर्ण जैसे सूतपुत्र का रथ मद्रराज शल्य हाँके, यह कहते हुए आपको शरम नहीं आई ?
दुर्योधन - शल्य, रोष न करें । इस समय ज्यादा वक्त नहीं है । कर्ण को आज सेनापति नहीं बनाते हैं तो कल ही हम लोग हारने वाले है। आप अगर सारथि न होंगे तो कर्ण सेनापति नहीं होगा । इसलिए आप मेरी यह बात स्वीकार करने की कृपा करें ।
कर्ण - दुर्योधन, उस मिथ्याभिमानी, डरपोक दासीपुत्र का सारथि होना मेरे लिए मृत्यु के समान है ।
दुर्योधन - परंतु यह कौरव राज दुर्योधन आपके पैरों पड़कर तुमसे यह माँगता है । आप इसे स्वीकार करो ।
शल्य - दुर्योधन, दुर्योधन, जिसके बदले सेनापति होने लायक मैं हूँ उसे आज आप सारथि बनने के लिए कहकर केवल अधर्म कर रहे हैं ।
दुर्योधन - यह अधर्म तो मैं कर रहा हॅू न ? पर दुर्योधन तो आपके पैरों पड़ रहा है । मेरे खातिर आप इसे स्वीकार कर लीजिए ।
कर्ण - उस कौए के साथ मेरी नहीं पटेगी ।
दुर्योधन - यह मैं देख लूंगा। आप स्वीकार कर लो । फिर सब मैं ठीक कर लूँगा ।
शल्य - लेकिन दुर्योधन, मैं एक ही शर्त से यह बात स्वीकर कर सकता हूँ और वह यह कि मैं जो कुछ कहूँ, कर्ण उसका जबाब न दे ।
दुर्योधन - आपकी शर्त मंजूर है। मैं कर्ण को कह दूँगा । कहो अब तो सारथि होना स्वीकार है ।
शल्य - स्वीकार है ।
दुर्योधन - मद्रराज, आपने मुझे आज अपना बड़ा आभारी बना लिया है। अब कल कुंती का बेटा जरूर रणभूमि में सोवेगा इसमें मुझे जरा भी शंका नहीं है। मैं कर्ण को अभी इत्तिला देता हूँ । आप भी सज्ज होकर आजायें ।
दुर्योधन और शल्य एक दूसरे से विदा हुए।
महाभारत के युद्ध का सोलहवाँ दिन था।
एक सुन्दर रथ में बैठकर कर्ण पाण्डवों की सेना का संहार कर रहा था ।
कृपाचार्य, अश्वत्थामा आदि कर्ण की रक्षा कर रहे थे ।
कर्ण - शल्य, रथ को ठीक अर्जुन के सामने लो। आज शाम तक तो अर्जुन का नाश करना ही चाहिए ।
शल्य - दासी पुत्र, बकवास क्यों करता है ? कौए ने कभी हंस को मारा है ? कहाँ तू सूतपुत्र और कहाँ पृथापुत्र अर्जुन ? आज तक तू ने अपने मुंह बहुत बड़ाई की है। आज यहाँ बड़ाई हाँक काम नहीं चलेगा । शल्य ने रथ हाँकते हांकते कहा ।
कर्ण ढीला पड़ गया ।
कर्ण - शल्य, रथ को इस तरफ़ लाओ तो ?
शल्य - उस तरफ़ तो आगे भीम खड़ा है।
कर्ण - कौन है भीम ? लाओ तो इसीको झपाटे में ले लूँ ।
शल्य - राधा के लड़के, अरे अभी कल ही तो अकेले घटोत्कच ने सारी कौरव सेना में हाहाकार मचा दिया था, यह भूल गया है ? तुझे भी उस समय मुश्किल पड़ गई थी और अंत में अमोघ शक्ति का उपयोग करके उसका संहार करना पड़ा था। यह भूल गया क्या ? उसी घटोत्कच का बाप यह भीम है । भीम के साथ लड़ने का इतना शौक था तो जब उसने दुःशासन की छाती का खून पिया तब उसके सामने आना था न ?
कर्ण फिर ढीला पड़ा ।
अर्जुन, कहाँ है अर्जुन ? महाराज युधिष्ठिर हांफते - हांफते आ पहुँचे।
अर्जुन आ रहा है महाराज युधिष्ठिर - श्रीकृष्ण ने कहा ।
क्यों महाराज, मुझे क्यों याद किया ? - अर्जुन ने पूछा ।
युधिष्ठिर - मुझे यह लड़ाई नहीं लड़नी । मैं पहले ही कहता था कि मत लड़ो। परंतु तुम और भीम नहीं माने ।
अर्जुन - पर महाराज, हुआ क्या? यह तो कहिए। जरा शांत होइए। बात क्या है ?
यह मैं मरते-मरते बचा हूँ । कर्ण के झपट्टे से बचना कितना मुश्किल होता है, यह आज मुझे मालूम पड़ता है। तेरा रथ तो श्रीकृष्ण हाँकते हैं । अपने बैठे-बैठे मौज से लड़ता रहता है । भीम की मर्जी जिधर होती है उधर वह कूदता रहता है । सहना तो सब मुझे पड़ता है न ? मुझे यह लड़ाई अब नहीं लड़ना । ऐसा राजपाट मेरे लिए नहीं चाहिए ।
महाराज युधिष्ठिर आप ज़रा शात होइए। आप ज्यादा बोलोगे तो अर्जुन को जोश चढ़ेगा । और व्यर्थ ही आपस में क्लेश होगा । आप सुखपूर्वक अंदर तंबू में पधारिए । फिर कर्ण क्या करता है यह अर्जुन देख लेगा - धीर गंभीर स्वर में श्रीकृष्ण बोले ।
युधिष्ठिर - यह भी तो आप बोलते हो । अर्जुन तो बोलता ही नहीं है । मैं ने शुरू में मना किया था कि मुझे लड़ाई नहीं करनी है । पर दो में से कोई भी नहीं माना । और बीच में द्रौपदी और पानी चढ़ाती रहती थीं ।
महाराज, आप शांत होइए और तम्बू में जाइए - श्री कृष्ण ने सारथि को रथ तम्बू में लेजाने की सूचना की ।
अग्रसेन नामका एक सर्प था।
बरसों पहले जब अर्जुन ने खाण्डव वन जलाया था तब उस वन में से अग्रसेन बड़ी मुसीबत से अपने बाल बच्चों को लेकर भाग गया था।
और पाताल में जाकर रहा था।
महाभारत युद्ध शुरू होने की बात जब अग्रसेन ने सुनी तो उसका पुराना वैर जगा और उस वैर का बदला लेने के लिए वह कुरुक्षेत्र में भटकने लगा ।
कर्ण और अर्जुन दोनों आमने-सामने होकर लड़ रहे थे ।
दोनों कुशल लड़वैये थे ।
सारथि भी दोनों के कुशल थे ।
और फिर सारथि के काम में तो शल्य श्रीकृष्ण से दो कदम आगे ही रहते थे ।
रथ के घोड़ों को इधर उधर फिराकर, अनेक शस्त्रास्त्रों को आजमा कर और एक दूसरे का वध करने की आशा मन में रखकर कुन्ती के दोनों पुत्र संग्राम में शोभित हो रहे थे ।
कर्ण ने धनुष पर सर्पाकार का एक बाण चढ़ाया ।
अग्रसेन कर्ण के रथ के पास ही फुंकार मारता हुआ भटक रहा था ।
सर्पाकार वाण देखकर वह तुरन्त ही उल्लास में आ गया।
और कर्ण की निगाह जाय न जाय इतने में तो उसने अपने शरीर को बाण के ऊपर बराबर जमा लिया ।
केवल शल्य यह जानते थे ।
कर्ण अपनी छाती तानकर सीधा हो गया ।
बाण धनुष पर चढ़ा हुआ था।
प्रत्यंचा खींचने की ही देरी थी ।
कर्ण के मन में यह था कि अगर अर्जुन के ठीक कपाल में यह तीर लगा तो यह एक ही बाण अर्जुन का अन्त कर देगा ।
करं - शल्य, सावधान हो जाओ देखना यह एक ही बाण अर्जुन का प्राण ले लेगा ।
शल्य - कुत्ते ही ऐसी बात बोला करते है। लेकिन कर्ण, देख अगर तुझे अर्जुन के प्राण लेना ही हो तो उसके कपाल का निशाना साधने के बदले गले का निशाना साध ।
मद्रराज, कर्ण ने एक बार निशाना साधा सो साधा; फिर ध्रुव भले भले ही फिर जाय लेकिन कर्ण का निशाना नहीं बदल सकता ।
बराबर सीधे होकर कर्ण ने बाण छोडा ।
सामने अर्जुन का रथ था ।
और अग्रसेन अपने सारे जीवन का वैर अपनी डाढ़ों में इकट्ठा करके कर्ण के वाण के साथ चिपटा हुआ था।
उसके मन में एक ही बात थी कि कब वाण छूटे और कब अर्जुन को डसूं ।
लेकिन अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण ने उस सर्प को देख लिया ।
खाण्डव वन के समय के उसके वैर को उन्होंने परख लिया और एक ही क्षण में रथ के घोड़ों को घुटनों के बल इस तरह बिठा दिया कि सारा रथ नीचे झुक गया और कर्ण का बाण और उस बाण पर बैठा सर्प अर्जुन के कपाल के बदले उसके मुकुट को लेकर दूर जा गिरा।
कर्ण का निशाना खाली गया।
उग्रसेन - कर्ण, कर्ण !
रथ पर से कर्ण ने पीछे देखा - कौन है तू ?
उग्रसेन - यह मैं अग्रसेन सर्प ।
कर्ण - क्यों मुझसे क्या काम है ?
उग्रसेन - तुम अर्जुन को मारना चाहते हो न ?
कर्ण - यह तो सब कोई जानता है । लेकिन उससे तुम्हें क्या ?
उग्रसेन - मैं भी अर्जुन का कट्टर दुश्मन हूँ। इसीलिए यहाँ आया हूँ । मुझे तुम अपने बाण पर एक बार फिर चढ़ने दो। फिर तो इस बाण से अर्जुन मरा हुआ ही समझना । पहली बार तुमसे भूल हुई इससे निशाना चूक गया अब मैं दूसरी बार चढ़ने आया हूँ।
कर्ण - पहली बार तुम थे ? तुम बाण पर कैसे चढ़ गये थे ? मुझे तो ख़बर ही नहीं पड़ी । शल्य, तुमको खबर थी ?
शल्य - मुझे ख़बर थी इसीसे तो मैं ने कहा था कि कपाल का निशाना साधने के बदले कण्ठ का निशाना साधो । लेकिन कर्ण का अभिमान कम थोड़े ही है ।
कर्ण - शल्य, लेकिन इसके लिए मुझे जरा भी अफ़सोस नही है । भाई अग्रसेन, तुझे बाण पर चढ़ाकर मैं अर्जुन को जीतना नहीं चाहता । ऐसे अधर्म से अर्जुन को जीतने की कर्ण की ज़रा भी इच्छा नहीं है ।
उग्रसेन - कर्ण, विचार लो। मेरे जैसा सर्प आकर तुम से विनती करता । उसका अनादर करोगे तो बाद में पछताना पड़ेगा ।
कर्ण - इसकी चिंता नहीं | यह सब मैं देख लूँगा ।
कर्ण का रथ आगे बढ़ गया और अग्रसेन अपना वैर-भाव लेकर वापस पाताल लोक में चला गया ।
कर्ण - शल्य, यह रथ का पहिया जमीन में धंसा जा रहा है। इसे ज़रा बाहर निकालो तो ।
शल्य - यह काम मेरा नहीं है ।
कर्ण - ठीक है, जब पृथ्वी खुद ही पहिये को पकड़ने लगे तो उसे मेरे बिना निकाले भी कौन ?
कर्ण रथ से नीचे उतरा और पहिया ज़मीन में से निकालकर और ठीक करके फिर रथ में बैठ गया ।
इतने में पहिया फिर धंस गया।
कर्ण - शल्य, मैं नीचे उतरता हूं।
कर्ण फिर नीचे उतरा और पहिया हाथ में लिया ।
सामने से अर्जुन के बाण तो बरस ही रहे थे ।
श्रीकृष्ण ने कहा - अर्जुन, तू अपना हमला जारी रख । एक क्षण भी मत गंवाना ।
पहिये को हाथ से उठाकर ठीक करते-करते कर्ण बोला - पृथा के पुत्र अर्जुन, मेरे रथ का पहिया पृथ्वी में धंस रहा है। मैं उसको जबतक निकालकर ठीक न कर लूं तब तक जरा ठहर जा। मैं रथ के नीचे खड़ा खड़ा पहिया ज़मीन में से निकाल रहा और तू रथ में बैठा बैठा बाण बरसा रहा है; यह धर्म युद्ध नहीं है ।
यह सुनकर श्रीकृष्ण गरज उठे।
श्रीकृष्ण - कर्ण, धर्म-युद्ध की तेरी यह वकालत सुनकर मुझे हंसी आती है। अपने सारे जीवन में तू ने धर्म का आचरण किया भी है ? पाण्डवों को लाक्षागृह में जला डालने की सलाह देते समय तुम्हारा धर्म विचार कहाँ चला गया था ? कौरवों की सभा में जब द्रौपदी खींचकर लाई गई तब पाण्डवों को छोड़कर अब तू दूसरा पति खोज ले ऐसी सलाह देनेवाले कर्ण का धर्म कहाँ गया था ? पाण्डवों के वनवास के दिनों में उनको हैरान करने की युक्तियाँ खोजते समय कर्ण का धर्म कहाँ चला गया था ? और अभी कल ही खिले हुए फूल के समान कोमल बालक अभिमन्यु को अकेले पाकर छः छः बड़े अतिरथियों ने हमला करके मारा था उस समय कर्ण का धर्म कहाँ गया था ? अर्जुन, झूठा धर्मभीरू न बन । इस कर्ण का वध कर ।
और इधर कर्ण पहिया ठीक करके रथ में बैठा कि पहिया फिर जैसे का वैसा हो गया।
और उधर से अर्जुन के बाण तो आ ही रहे थे ।
वह थोड़ी देर रथ में बैठा रहा।
रोज़ चन्दन और धूपादि से जिसकी पूजा किया करता था वह ब्रह्मास्त्र कर्ण ने निकाला ।
लेकिन उसको चढ़ाने की क्रिया आज भूल गया था।
हाथ में अस्त्र लेकर वह नीचे उतरा और फिर पहिये को ठीक किया ।
कर्ण - अर्जुन, जरा तो ठहर | क्षत्रिय धर्म का विचार तो कर ।
कर्ण पहिये के पास जाकर दिङ्मूढ़ सा खड़ा रहा।
एक हाथ में रथ का पहिया और दूसरे हाथ में खाली अस्त्र ।
सारा शरीर बिंध गया था ।
उसकी आँखों में अंधेरा छाने लगा ।
उसकी आँखों के सामने परशुराम और उनका आश्रम आया ।
मृत्यु पास आती दिखाई दी।
सारा मैदान शून्य जैसा दिखाई देने लगा ।
कर्ण - शल्य, शल्य ।
शल्य - क्यों कर्ण, क्या है ?
कर्ण - महाराज दुर्योधन कहीं दिखाई देते हैं ?
शल्य - दिखाई तो नहीं देते । क्यों कुछ काम है ?
कर्ण - मैं तो यह चला। जिस पर इतना विश्वास रखकर उन्होंने यह महाभारत शुरू किया वह कर्ण अब चला। महाराज को मेरे अन्तिम नमस्कार कहना । दुर्योधन की मैत्री का मैं कुछ भी बदला न चुका सका इसके लिए मुझे वह क्षमा करें ।
शल्य - और कुछ कहना है ?
कर्ण - हाँ, एक बात कहनी है । आज इस समय जब मृत्यु मेरे सम्मुख आकर खड़ी है तब मुझे यह स्पष्ट दिखाई देता है कि इस युद्ध से शान्ति की आशा रखना व्यर्थ है । मैं अपने सामने इन योगेश्वर श्रीकृष्ण को देखता हूं। उन्हीं के हाथ में यह सारी बाज़ी है। भीष्म जब कहते थे तब मैं उनका मज़ाक उड़ाता था । दुर्योधन से कहना कि यह पृथ्वी किसीकी नहीं है । न उनकी और न युधिष्ठिर की। मैं आज मर रहा हूँ; दुर्योधन कल मरेगा, परसों युधिष्ठिर की बारी है । यह सारी अठारह अक्षौहिणी सेना खिलौनों के पुतलों के समान ज़मीन पर सो जायगी । काल को तो यही अच्छा लगता है । इसे कोई नहीं रोक सका और न रोक सकता है। श्रीकृष्ण, मैं तुम्हें साष्टांग नमन करता हूँ । अर्जुन, अपने बाण छोड़ेगा। वीरों के भाग्य में ही तेरे हाथों मरना होता है।
उसके एक हाथ में रथ का पहिया और एक हाथ मे परशुराम की विद्या का खाली अस्त्र था; सूर्य का पुत्र, राधा का पुत्र, दुर्योधन का परम मित्र, कर्ण पृथ्वी पर सोया और तुरन्त ही सूर्यनारायण ने पृथ्वी पर अन्धकार फैला दिया ।
महाभारत ख़तम हो गया ।
अठारह अक्षौहिणी सेना का खातमा हो गया ।
लाखों स्त्रियाँ विधवा हो गई ।
लाखों बालक पितृ हीन हो गये।
खून की नदियों की गिनती ही नहीं थी ।
सारे कौरव पृथ्वी पर सो गये।
पीछे रहे सिर्फ पाँच पाण्डव, श्रीकृष्ण, धृतराष्ट्र, गांधारी और कुन्ती ।
युद्ध के अन्त में मरे हुए तमाम बन्धुओं को अर्घ्य प्रदान करने के लिए युधिष्ठिर जमना के किनारे गये । कुन्ती साथ में थी ।
युधिष्ठिर अपने सारे कुल के वीरों के नाम याद कर-करके जल की अञ्जलि देते जाते थे ।
कुंती - युधिष्ठिर, सबको अञ्जलि दे दी ?
युधिष्ठिर - हाँ माँ, सबको दे दी ।
कुंती - फिर भी एक अञ्जलि रह गई ।
युधिष्ठिर - नाम याद दिलाओ तो याद आवे ।
कुंती - कर्ण को ।
युधिष्ठिर - कर्ण को ? कर्ण तो सूतपुत्र । वह तो राधा का लड़का है ।
कुंती - नहीं बेटा, कर्ण तो कुंती का पुत्र ।
युधिष्ठिर - मां, तुम यह क्या कहती हो ?
कुंती - मैं ठीक कहती हूँ । जैसे अर्जुन मेरा वैसे कर्ण भी मेरा ।
युधिष्ठिर - मां, मां, तुमने सर्वनाश कर दिया । कर्ण मेरा बड़ा भाई है यह पहले से ही तुमने बता दिया होता तो आज यह दिन न आया होता । उसे मैं अपना बड़ा भाई मानता। हम सब उसकी आज्ञा मानते । मां, मां, तुमने बहुत बुरा किया ।
कुंती - युधिष्ठिर, शोक मत कर। जो होना था सो हो गया। विधाता को यही पसंद था । कर्ण को अञ्जलि दे दे और चल | ये सब कौरव स्त्रियाँ विलाप करती हुई आरही हैं।
युधिष्ठिर ने कर्ण को अञ्जलि दी।
कर्ण का असली पिता थे सूर्यदेव। माता थी कुंती। अधिरथ - राधा दंपती ने कर्ण को पाल पोसकर बडा किया।
कर्ण ने कुंती को वचन दिया था कि युद्ध में अर्जुन के सिवा अन्य कुंतीपुत्रों को नहीं मारेगा।
Ganapathy
Shiva
Hanuman
Devi
Vishnu Sahasranama
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