अब अथर्वशीर्ष की साधना करते समय गणेशजी का किस स्वरूप में ध्यान करना चाहिए, यह बताया गया है।
उनका ध्यान स्वरूप, ध्यान श्लोक –
एकदन्तं
चतुर्हस्तं – चार हाथ।
उन हाथों में क्या है?
पाशमंकुशधारिणं, रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजं।
पाश और अंकुश।
गणेशजी अपने भक्तों के विघ्नों को अंकुश से पकड़कर खींचते हैं और पाश से बाँध देते हैं। इसीलिए उन्होंने अंकुश और पाश धारण किए हैं – ऊपर के दाहिने हाथ में अंकुश और बाएँ हाथ में पाश।
नीचे बाएँ हाथ में रद – अपना ही दंत, और दाहिने हाथ में वर मुद्रा।
वर मुद्रा में उँगलियाँ नीचे की ओर होती हैं, जैसे हाथ से पानी नीचे छोड़ते समय।
हाथ ऊपर उठा हुआ जो मुद्रा होती है, उसे अधिकांश लोग वर मुद्रा समझते हैं, जबकि वह वास्तव में अभय मुद्रा है।
वर मुद्रा दिखाकर गणेशजी हमें कहते हैं कि हमारी अभिलाषा पूर्ति के लिए वे सदैव वरदायक बनकर स्थित हैं।
मूषकध्वजम् – उनके ध्वज में मूषक का चिह्न है, जो उनका वाहन है।
संस्कृत में 'मूषक' का असली अर्थ है 'चोर'।
चूहा धान्य आदि चुराता है, इसलिए उसे मूषक कहते हैं।
गणेशजी ने मूषक को अपना चिह्न बनाकर अपने ध्वज में क्यों रखा?
श्री गणेश सर्वव्यापी हैं, सबके अंदर आत्मा के रूप में विद्यमान हैं।
आत्मा के रूप में सबके अंदर रहते हुए, सभी प्राणियों के सुख-दुख का अनुभव गणेशजी स्वयं करते हैं।
उन अनुभवों को वे चुरा लेते हैं – इसलिए मूषक को अपना चिह्न बनाया है।
एक गंधर्व था क्रौंच। एक बार इन्द्र की सभा में उसने गलती से वामदेव नामक ऋषि के पैर पर ठोकर मार दी।
वामदेव ने उसे चूहे का श्राप दे दिया।
क्रौंच ने क्षमा याचना की और शापमोक्ष मांगा। ऋषि ने कहा कि भविष्य में तुम श्री गणेश का वाहन बनोगे और वे तुम्हें श्राप से मुक्ति देंगे।
तब मूषक स्वर्ग से गिरकर पराशर महर्षि के आश्रम में पहुँचा।
पहाड़ जैसा बड़ा शरीर, लंबी-लंबी दंतियाँ – और उसने आश्रम में दंगा मचा दिया।
पूरे धान्यागार को खत्म कर दिया, बर्तन तोड़ दिए, अपनी पूँछ से बड़े-बड़े वृक्षों को उखाड़ डाला।
महर्षि डर गए और सोचा, निकल जाता हूँ यहाँ से, नहीं तो जान का भी भरोसा नहीं।
कोई बचाने वाला भी तो नहीं है, किसके पास जाऊँ?
उसी समय गणेशजी एक बालक के रूप में पराशर महर्षि के आश्रम में अवतरित थे।
उन्होंने महर्षि से कहा – 'चिंता मत कीजिए, मैं देख लेता हूँ।'
गणेशजी ने तुरंत मूषक को अपनी रस्सी से बाँधा और उसके ऊपर चढ़ बैठे।
मूषक ने उन्हें नीचे फेंकने का बहुत प्रयास किया – जोर से डगमगाया, लड़खड़ाया, आकाश तक चढ़कर झटके से जमीन की ओर कूदा – लेकिन कुछ नहीं हुआ।
मूषक को समझ में आया कि यह कोई साधारण बालक नहीं है।
तब तक गणेशजी ने मूषक के मन को अपने काबू में कर लिया था।
मूषक में गणेशजी के प्रति श्रद्धा जागृत हो गई।
गणेशजी ने मूषक से कहा – 'कोई भी वर माँगो मुझसे।'
मूषक का घमंड तब भी नहीं गया था।
मूषक ने कहा – 'वर मुझसे ले लो।'
गणेशजी ने कहा – 'मेरा वाहन बन जाओ।'
और मूषक मान गया, गणेशजी का वाहन बन गया।
मूषक गणेशजी का भार नहीं सह पा रहा था, तो गणेशजी ने अपने आकार को हल्का बना दिया।
रक्तं लंबोदरं
रक्तं – गणेश अथर्वशीर्ष के अनुष्ठान में उनका रंग है लाल – रक्तवर्ण।
लंबोदरं –
तस्योदरात्समुत्पन्नं नानाविश्वं न संशयः
गणेशजी के उदर से ही समस्त विश्व की उत्पत्ति हुई है। इसलिए उन्हें लंबोदर कहते हैं।
सृष्टि के समय जब ब्रह्माजी ने समस्त विश्व को गणेशजी के उदर में देखा, तो वे कहते हैं –
दृष्टं च नानार्थयुतं सुरेश ब्रह्माण्डकूटं जठरे त्वदीये।
स्थातुं बहिर्गन्तुमपीह नेशस्त्वदन्य देवं शरणं न चैमि।
'यह सब देखकर मुझसे न बैठा जा रहा है और न उठकर जा सकता हूँ।
आपके सिवा अन्य कोई देवता ही नहीं है,' कहते हैं ब्रह्माजी।
तो उन्हें लंबोदर के रूप में ध्यान करना चाहिए।
शूर्पकर्णकं
'शूर्प' यानी सूप – उनके कान सूप जैसे हैं।
सूप का काम है धान से भूसे को अलग करना – जैसे शुद्ध ज्ञान से अज्ञान को अलग करना।
अपने कान के एक-एक दोलन से, जैसे पंखा झलते समय, गणेशजी अपने भक्तों के लिए वही करते हैं।
रक्तवाससं – उनका रंग लाल है, उनके वस्त्र भी लाल हैं।
रक्तगन्धानुलिप्तांगं – उनके शरीर पर लेप है रक्त चंदन का।
रक्त पुष्पैः सुपूजितम् – उनका पूजन होता है लाल फूलों से।
लाल शरीर, लाल वस्त्र, लाल गंध, लाल पुष्प – गणेशजी का सबसे प्रिय रंग है लाल।
भक्तानुकंपिनं देवं – वे सदैव अपने भक्तों के प्रति अनुकंपा और करुणा रखते हैं।
जगत्तकरण – इस जगत का कारण श्री गणेश हैं।
अच्युतं – उनकी च्युतिअथवा क्षय कभी भी नहीं होता।
आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात् परं।
सांख्य शास्त्र के अनुसार विश्व की सृष्टि प्रकृति और पुरुष से होती है – प्रकृति अचेतन वस्तु है और पुरुष चेतना है।
गणेशजी प्रकृति और पुरुष से भी पहले प्रकट हुए थे, क्योंकि वे परब्रह्मस्वरूपी हैं, अनादि हैं, अनन्त हैं।
एवं ध्यायति यो नित्यं – इस प्रकार जो भी गणेशजी का प्रतिदिन ध्यान करेगा –
स योगी योगिनां वरः – वह योगियों में सबसे श्रेष्ठ बन जाएगा।
नमो व्रातपतये – व्रातपति यानी अष्टवसु, एकादश रुद्र और द्वादश आदित्य के स्वामी।
नमो गणपतये
नमः प्रमथपतये
उच्चारण का एक नियम है – विसर्ग के बाद यदि पकार या फकार आता है तो
'नमः'... 'प्र' –
नम के मकार के बाद 'फ' – 'नमफ' बन जाता है।
नमः प्रमथपतये का उच्चारण सही रूप में 'नमफ प्रमथपतये' होता है।
प्रमथ मतलब शिवगण, भूतगण – उनके स्वामी।
नमस्ते अस्तु – आपको नमस्कार।
लम्बोदराय
एकदन्ताय
विघ्नविनाशिने – विघ्नों का विनाश करने वाले।
एक राजा था अभिनंदन।
उसने एक यज्ञ किया जिसमें इन्द्र को आमंत्रित नहीं किया।
इन्द्र ने यमराज को भेजा कि उस यज्ञ को भंग कर दें।
यमराज ने एक असुर का रूप धारण किया, जिसका नाम था विघ्नासुर।
विघ्नासुर ने अभिनंदन के यज्ञ को नष्ट कर दिया।
लेकिन वह वहाँ नहीं रुका – सभी लोकों में जहाँ-जहाँ सत्कार्य हो रहे थे, उनमें विघ्न डालने लगा।
देवता व्याकुल हो गए।
ब्रह्माजी ने उनसे कहा – श्री गणेश से प्रार्थना करो।
गणेशजी ने विघ्नासुर को पराजित किया और उसे अपना सेवक बनाया।
विघ्नासुर को यह अधिकार दिया कि जो भी कार्य गणेश पूजन के बिना होगा, उसमें वह विघ्न डाल सकता है।
शिवसुताय – भोलेनाथ के पुत्र।
कल्पारंभ में जब गणेशजी ने त्रिदेव का सृजन किया, तो तीनों तपस्या करने बैठ गए।
सबसे पहले भगवान शंकर को ज्ञानोदय और साक्षात्कार हुआ और उन्होंने अपने मन मंडल में श्री गणेश को देखा।
उन्होंने गणेशजी से कहा –
'त्वं मे पुत्रो भव तदहं माया-मोह-भयहीनश्चरामि।'
'आप मेरे पुत्र बन जाइए ताकि मैं मोह और माया से निर्भय होकर चल सकूँ।'
'ध्याने मनसि मे जातः पुत्र त्वं पालय प्रभो। मम पुत्र इति ख्यातो लोकेऽस्मिन भगवन्भव।'
'मेरे ध्यान के समय आपने मेरे मन में जन्म लिया। इसीलिए आप मेरे पुत्र हैं। आप मेरे पुत्र के नाम से भी प्रसिद्ध हो जाएँगे।'
वरदमूर्तये नमः – गणेशजी देवों को भी वर देते हैं, लेकिन उन्हें वर देने योग्य कोई नहीं है।
सभी गणेशजी की वंदना करते हैं, लेकिन स्वयं वंदित होने की योग्यता किसी में नहीं है।
सर्वैश्च वन्द्यः न च तस्य वन्द्यः – यह है गणेशजी का स्थान देवताओं के बीच – सबसे प्रथम, सबसे वंदनीय और सबसे श्रेष्ठ।
नमो व्रातपतये से लेकर
व्रातपतये नमः
गणपतये नमः
प्रमथपतये नमः
लंबोदराय नमः
एकदन्ताय नमः
विघ्नविनाशिने नमः
शिवसुताय नमः
वरदमूर्तये नमः
ये आठ वंदनाएँ अष्टविनायक के प्रति हैं।