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महर्षि व्यास का असली नाम है कृष्ण द्वैपायन। इनका रंग भगवान कृष्ण के जैसा था और इनका जन्म यमुना के बीच एक द्वीप में हुआ था। इसलिए उनका नाम बना कृष्ण द्वैपायन। पराशर महर्षि इनके पिता थे और माता थी सत्यवती। वेद के अर्थ को पुराणों और महाभारत द्वारा विस्तृत करने से इनको व्यास कहते हैं। व्यास एक स्थान है। हर महायुग में एक नया व्यास होता है। वर्तमान महायुग के व्यास हैं कृष्ण द्वैपायन।
महाभारत के युद्ध में कुल मिलाकर १८ अक्षौहिणी सेना समाप्त हुई। एक अक्षौहिणी में २१,८७० रथ, २१,८७० हाथी, ६५, ६१० घुड़सवार एवं १,०९,३५० पैदल सैनिक होते हैं।
जीवन में कुछ विषय जानने के हैं। कुछ विषय करने के हैं। ज्ञातव्य और कर्तव्य। वैदिक साहित्य भी इसीके आधार पर विभक्त है। मंत्र भाग और ब्राह्मण भाग। मंत्र भाग में आते हैं वेद संहिताएं। संहिताओं में विज्ञान भी है, स्तुत....
जीवन में कुछ विषय जानने के हैं।
कुछ विषय करने के हैं।
ज्ञातव्य और कर्तव्य।
वैदिक साहित्य भी इसीके आधार पर विभक्त है।
मंत्र भाग और ब्राह्मण भाग।
मंत्र भाग में आते हैं वेद संहिताएं।
संहिताओं में विज्ञान भी है, स्तुति भी है और इतिहास भी है।
विज्ञान जैसे - सूर्य मंडल के ऊपर क्या है नीचे क्या है?
कृष्ण पक्ष में चन्द्रबिंब क्यों कम होता जाता है?
बारिश कैसे होती है?
पेड पौधों के जड क्यों नीचे की ओर और स्कंध क्यों ऊपर की ओर बढते हैं?
इन सब सवालों का जवाब वेद संहिताओं में है।
स्तुतियों द्वारा देवताओं के वास्तविक स्वरूप के बारे में पता चलता है।
स्तुतियों द्वारा देवताओं की असीम ऊर्जाओं को सक्रिय भी कर सकते हैं।
वेद मे इतिहास भी है जैसे त्रिपुर दहन कैसे हुआ?
देवों और असुरों के बीच के युद्ध।
ब्राह्मण भाग में तीन प्रकार के ग्रन्थ हैं।
विधि उपासना और ज्ञान।
विधि कर्म काण्ड है।
यज्ञ की प्रक्रिया मुख्यतया।
ज्ञान में उपनिषद हैं - आत्मविद्या।
इन दोनों के बीच जो उपासना है यहां गीता का स्थान है।
कर्म और ज्ञान का समन्वय।
कर्म क्यों करते हैं ?
हर कर्म के पीछे कामना होती है।
लौकिक विषय जैसे धन, संपत्ति, अच्छा परिवार, स्वास्थ्य।
इन सब के लिए लौकिक कर्म करते हैं।
पारलौकिक कामनाएं जैस स्वर्ग में सुख भोग, वैकुण्ठ प्राप्ति, कैलास प्राप्ति।
इसके लिए यज्ञ, दान, धर्म इत्यादि करते हैं।
पर यह सुख शाश्वत नहीं है।
कभी न कभी इसकी अवधि समाप्त हो ही जाती है।
चाहे लाख मन्वन्तर के बाद क्यों न हो।
जो ज्ञान के मार्ग में हैं वे कर्म को त्याग देते हैं।
और यह मार्ग मोक्ष की ओर ले जाता है।
कर्म काण्ड द्वारा भोग की प्राप्ति, यहां और परलोक में।
ज्ञान काण्ड द्वारा कर्म से विरत होकर मोक्ष की प्राप्ति।
इनके बीच जो उपासना मार्ग है उसमें ईश्वर में आसक्ति द्वारा शाश्वत सुख की प्राप्ति यहां और परलोक में भी, आनन्द की प्राप्ति।
उपासना मार्ग वाले कर्म को त्यागते नहीं है।
कर्म करते रहते हैं।
पर निष्काम, कामनारहित कर्म।
गीता में इसका समर्थन है।
जो कर्म बुद्धि के आधार पर हो, कामना से प्रेरित न होकर, बुद्धि के आधार पर हो, बुद्धि जो ज्ञान के अर्जन से ही विकसित होती है, इस प्रकार के कर्म से आत्मा बाधित नहीं होती है।
ऐसा कर्म वासना बनकर आत्मा पर लेप नहीं होता।
गीता कर्म और ज्ञान का समन्वय बुद्धियोग द्वारा करती है।
गीता मे प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का समन्वय है।
गीता मे कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड दोनों का समावेश है।
ज्ञान मार्ग वाले कर्म से क्यों भागते हैं?
क्यों कि कर्म वासना बनकर बांध सकता है।
पर कामना रखकर केवल कर्म को त्यागने से कोई फायदा नहीं है।
कामनाओं को दबाकर रखने से कोई फायदा नहीं है।
भगवान के मत में कामना को रखकर कर्म को त्यागना नहीं है।
विहित कर्म को करना है, करना ही करना है।
त्यागना है कामना को फलेच्छा को।
यही बुद्धियोग है।
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः
भगवान कहते हैं - बुद्धौ शरणमन्विच्छ, बुद्धि का प्रयोग करके जीओ।
उपनिषद शाश्वत सत्य का, परमार्थ का साक्षात्कार कराता है।
जो परमार्थ रहस्य है।
यह कैसे होगा?
उप - उसके समीप जाने से।
नि - उसमें निष्ठा रखने से, श्रद्धा रखने से।
विद्या के अभाव में श्रद्धा नही होगी।
होगी तो भी वह अन्धश्रद्धा होगी।
इससे कोई फायदा नहीं है।
भगवान की महिमा को जाने बिना जो भक्ति करते हैं, वह भक्ति कभी भी टूट सकती है।
इसी प्रकार किसी भी विषय में श्रद्धा आने के लिए उसके बारे में गहराई में जानकारी होना जरूरी है।
तभी श्रद्धा आएगी।
श्रद्धा को लेकर, श्रद्धा के साथ उस रहस्य के पास जाने से उस पर समय बिताने से वह रहस्य उपासक में षत हो जाएगा, बैठ जाएगा - प्रतिष्ठितत हो जाएगा।
उपासक उसे साक्षात्कार कर लेगा।
यही उपनिषद शब्द का अर्थ है, आशय है।
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