हर विषय में प्रमाण देखकर ही आगे बढना चाहिए।
चाहे लौकिक हो या आध्यात्मिक।
कोई कहता है कि मधुमेह के लिए इस पौधे के पत्ते लाभदायक हैं।
यह मधुमेह को ठीक करता है।
तो तुरंत उसे खाना शुरू कर दिया।
यह बुद्धिमत्ता नहीं है।
किस ग्रंथ में लिखा है यह?
किसने खाया और उसे क्या परिणाम मिला?
हमारे संत महात्मा ऋषि जन मुनि जन जिसका प्रमाण है उसी को मानते हैं।
इस प्रसंग में कुछ गहराई में जाते हैं।
दो प्रकार के प्रमाण हैं।
जिसको आपने खुद देखा।
जिसको आपने दूसरे से सुना।
जानकारी या तो आंखों द्वारा या कानों द्वारा मस्तिष्क मे जाती है।
वेद कहता है -
सत्यं वै चक्षुः सत्यं हि वै चक्षुस्तस्मात् यदिदानीं द्वौ विवदमानावेयाताम् - अहमदर्शम् अहमश्रौषम् इति । य एवं ब्रूयात् अहमदर्शमिति तस्मा एव श्रद्दध्याम्। तत् सत्येनैवैतत् समर्थयति।
दो जन आपस में बहस कर रहे हैं।
एक कहता है मैं ने देखा है।
एक कहता है मैं ने सुना है।
इनमें से आप किसकी बात मानेंगे?
जो कहता है मैं ने खुद अपनी आंखों से देखा है उसकी।
क्यों कि सत्यं वै चक्षुः सत्यं हि वै चक्षु।
आंखों देखी बात ही सच है।
एतद्वै मनुष्यषु सत्यं निहितं यच्चक्षुः।
मनुष्यों में सच आंखों के रूप में ही स्थित है।
तस्माद्विचक्षणवतीमेव वाचं वदेत्।
जिसको आपने देखा है मात्र उसी को कहना सत्य का आचरण है।
इस व्रत को यज्ञ करते समय यजमान करता है।
आजकल हम इस वैदिक सिद्धांत को छोडकर केवल सुनी सुनाई बातों के पीछे ही भागते हैं। उनके आधार पर निर्णय भी ले लेते हैं।
आध्यात्म में प्रमाण मुख्यतया दो प्रकार के हैं - श्रुति और स्मृति।
जो देखा गया है वह श्रुति प्रमाण है।
जो सुना गया है वह स्मृति प्रमाण है।
द्रष्टुर्वाक्यं श्रुतिः।
श्रोतुर्वाक्यं स्मृतिः।
अगर कोई कहता है कि मैं ने देखा है तो वह प्रत्यक्ष रूप से प्रमाण बन जाता है।
अदालत में देखिए चश्मदीद गवाही प्रमाण माना जाता है।
अगर गवाह कहता है कि मैं ने अपनी आंखों से नही देखा, किसी ने मुझे बताया -
इसकी इतनी मान्यता नही होती है।
वेद श्रुति है।
पर वेद शब्द के रूप में है।
यह तो कानों से सुनाई देता है, तब यह आंखों देखा कैसे हो सकता है?
क्यों कि वेद उन ऋषियों के वाक्य हैं जिन्होंने इन सिद्धान्तों को अपनी आंखों से देखा है।
किसी से सुना नहीं।
अपनी आंखों से देखा है।
जैसे अगर किसी वेद मंत्र में है कि सूर्य मंडल के ऊपर और नीचे पानी है।
अग्ने दिवो अर्णमच्छा जिगास्यच्छा देवाँ ऊचिषे धिष्ण्या ये ।
या रोचने परस्तात्सूर्यस्य याश्चावस्तादुपतिष्ठन्त आपः ॥
तो इसे गाथी कौशिक ऋषि ने स्वयं देखा है।
अगर इसी बात को कहनेवाला मैं हूं तो वह आखों देखी बात नहीं है।
स्वतंत्र रूप से वह प्रमाण नही बनता।
पर अगर मैं उसे इस वेद वाक्य के आधार पर कहता हूं, इस वाक्य का उद्धार करके
तो वह प्रमाण बनता है।
क्यों कि गाथी कौशिक ऋषि ने इस तथ्य को स्वयं अपनी अंखों से देखा है।
तो जैसे अदालत में चश्मदीद गवाही प्रमाण बन जाता है यहां द्रष्टा ऋषि का वाक्य प्रमाण बनता है।
वेद के ऋषियों ने जितने भी मंत्र हमें दिये हैं उनका आधार उनकी दृष्टि है।
वेद वाक्य को अपनी प्रामाणिकता के लिए अन्य किसी शब्द प्रमाण की अपेक्षा नहीं है।
निरपेक्षो रवः श्रुतिः।
क्यों कि वेद द्रष्टा का शब्द है श्रोता का नहीं।
वेद ऋषि के लिए दृष्टि है और हमारे लिए श्रुति है।
जैसे दृष्टि प्रत्यक्ष है सत्य है श्रुति वाक्य भी प्रत्यक्ष और सत्य है।
एक वस्तु आपके सामने है।
आपको दिखाई दे रही है।
उसके अस्तित्व के लिए आपको और कोई प्रमाण नही लगेगा।
अगर आप कहेंहे कि यह वस्तु मेरे सामने है, मैं उसे देख रहा हूं तो आप पर कोई अविश्वास नही करेगा।
क्यों कि यह आंखों देखनेवाले का वाक्य है।
यही वेद वाक्यों की प्रामाणिकता है।
क्यों कि वेद वाक्य द्रष्टा ऋषियों के वाक्य हैं।
जब वह घटना घटी तो आप वहां थे क्या?
नहीं मैं ने किसी से सुना।
इसमें वह प्रामाणिकता नहीं है जो चश्मदीद गवाही में है।
वेद में जितने आशय हैं, सिद्धांत हैं, उन्हें साक्षात्कार करने के बाद ही ऋषियों ने हमें उन्हें सौंपा है।
हम में इन सिद्धांतों को साक्षात्कार करने की क्षमता नही है।
हम सूर्यमंडल में जाकर देख नहीं सकते कि उसके ऊपर क्या है।
इसलिए ऋषियों ने हमें इन मंत्रों को उपदेशों के रूप में दिया है।
अगर कोई श्रोता इन उपदेशों को सुनता है तो ये वाक्य उसके मन में स्मरण के रूप में अंकित हो जाता है।
बाद मे अन्य किसी को इन वाक्यों का स्मरण करके वह अगर कुछ उपदेश अपने वाक्यों से देगा तो वह है स्मृति।
क्यों कि यह दृष्टि पर नही स्मृति पर आधारित है।
स्मृति के रचयिता स्मर्ता है, द्रष्टा नहीं।
यहां पर भी स्मृतिकार जो भी कहता है वह उसका स्वतंत्र आशय नहीं है।
वह श्रुति पर ही आधारित है।
तो श्रुति प्रत्यक्ष प्रमाण है।
स्मृति अनुमान प्रमाण है।
इसके अलावा निर्णय सिन्धु, धर्म सिन्धु आदि निबन्ध प्रमाण भी हैं।
हमारी अल्पज्ञता की वजह से कभी कभी हमें श्रुति और स्मृति वाक्यों में विरोध भी प्रतीत हो सकता है।
इसके निवारण के लिए ऐसे निबंध हमें इन्हें विधि के रूप में दे देते हैं कि ऐसा अचरण करोगे तो वह धर्म का अनुकूल रहेगा।
गीता की प्रामाणिकता की ओर जाने के लिए हम ये सब देख रहे हैं।
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