भगवान अपने अवतारोद्देश्य को पूर्ण करके स्वधाम चले गये। अब धर्म किस पर आश्रित है?
नैमिषारण्य में ऋषि जन सूत जी से छः में से पांच सवाल पूछ चुके हैं । सबसे महान लक्ष्य क्या है ? इसे पाने साधन क्या है ? भगवान ने कृष्णावतार क्यों लिया ? चौथा और पांचवां सवाल एक विषय से संबन्धित है - भगवान की लीलाएं - विश्व की सृष....
नैमिषारण्य में ऋषि जन सूत जी से छः में से पांच सवाल पूछ चुके हैं ।
सबसे महान लक्ष्य क्या है ?
इसे पाने साधन क्या है ?
भगवान ने कृष्णावतार क्यों लिया ?
चौथा और पांचवां सवाल एक विषय से संबन्धित है - भगवान की लीलाएं - विश्व की सृष्ट्यादि लीलाओं का वर्णन कीजिए जिसका वर्णन पहले भी हो चुका है और अवतार लीलाओं का वर्णन कीजिए ।
ये हो गये पांच प्रश्न
अब आखिरी प्रश्न पर जाने से पहले अगले दो श्लोकों द्वारा ऋषि जन बता रहे हैं कि उन्हें लीलाओं की कथा सुनने में इतनी उत्सुकता क्यों है ।
कलिमागतमज्ञाय क्षेत्रेऽस्मिन् वैष्णवे वयम् ।
आसीना दीर्घसत्रेण कथायां सक्षणा हरेः ।
दो प्रकार के कर्म हैं - विहित और अविहित ।
जो कर्म जरूर करना चाहिए वह है विहित कर्म ।
जिसे कभी नही करना चाहिए वह है अविहित कर्म ।
जैसे कलियुग आगे बढता जाता है - करने लायक विहित कर्म भी कम होता जाता है ।
वह इसलिए है कि कई साधना पद्धतियां व्यर्थ बन जाती हैं ।
कोई लाभ नहीं मिलता उनका आचरण करने से ।
यह कलियुग का स्वभाव है ।
इसीलिए ऋषियों ने जानबूझकर सहस्र सालोंवाला यज्ञ चुना है ।
क्योंकि वैदिक यज्ञों का प्रभाव हर युग में होता है ।
वैदिक यज्ञ कभी भी निष्प्रयोजक नहीं होते ।
क्यॊं कि जब तक आकाश में सूरज और चन्द्रमा हैं, जब तक कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा का ह्रास और शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की वृद्धि है तब तक यज्ञ फल देंगे ।
क्यों कि यह जो आकाश में हो रहा है वह भी एक यज्ञ है जिसे आधिदैविक यज्ञ कहते हैं - जिसमें चन्द्रमा की आहुतियां सूर्य रूपी हवन कुण्ड में दी जाती हैं ।
जिससे विश्व का संचालन होता है ।
इसी का प्रतिरूप है धरती का यज्ञ जो हम करते हैं - जिसे आधिभौतिक यज्ञ कहते हैं जो द्रव्यों द्वारा मंत्रों द्वारा किये जाते हैं ।
तो वैदिक यज्ञ सर्वदा फलदायक हैं ।
अब ऋषि जन कहते हैं कि हमारे पास कथा सुनने समय है ।
वह इसलिए कि जो यज्ञ के लिए दीक्षा लेते हैं उनको कोई दूसरा काम करना वर्जित है ।
ऐसा भी नहीं है कि यज्ञ में सूर्योदय से सूर्यास्त तक हवन होता रहता है ।
बीच बीच में होता है - जैसे प्रातः सवन माध्यंदिन सवन ।
तो कथा के लिए उनके पास समय रहता है ।
त्वं न सन्दर्शितो धात्रा दुस्तरं निस्तितीर्षताम् ।
कलिं सत्वहरं पुंसां कर्णधार इवार्णवम् ।
सत्वरजस्तमोगुणों में से कलियुग में सत्वगुण खत्म ही हो जाता है ।
मानव का बुद्धि विवेक और मानसिक संतुलन सत्व गुण पर आश्रित हैं ।
जब रजोगुण और तमोगुण ही रह जाते हैं उस समय मन विचलिए और विक्षिप्त होता रहेगा ।
लीलाओं की कथाएं इस परिस्थिति में कलियुग रूपी क्षुब्ध सागर को पार कराने वाला नाव होती हैं ।
ऋषि जन कहते हैं कि सूत जी को स्वयं विधाता ईश्वर ने भेजा है , इन कथाओं के साथ ।
नैमिषारण्य में ऋषि जन सुरक्षित हैं, पर ये कहानियों के बिना बाहर का आम मानव कलि का सामना नहीं कर पाएगा ।
अब छः प्रश्नों मे से अंतिम प्रश्न -
ब्रूहि योगेश्वरे कृष्णे ब्रह्मण्ये धर्मवर्मणि ।
स्वां काष्ठामधुनोपेते धर्मः कं शरणं गतः ।
श्रीकृष्ण ब्रह्मण्य भी हैं और योगेश्वर भी हैं ।
ब्रह्मण्य के रूप में भगवान समाज में वर्ण धर्म और आश्रम धर्म का व्यवस्थापन करते हैं ।
जब बाहर धर्म कम या समाप्त हो जाता है तो भगवान योग द्वारा अंदर ही अंदर धर्म का साक्षात्कार करने का मार्ग दिखाते हैं, योगेश्वर बनकर ।
पर अब तो भगवान अपने अवतारोद्देश्य को निभाकर वैकुण्ठ वापसे चले गये हैं ।
ऐसा भी नहीं लगता है कि उनके अभाव में धर्म बिलकुल ही खत्म हो गया हो - क्यों कि हम तो अभी भी यज्ञ कर पा रहे हैं , आप आए हैं, उत्तमोत्तम कथाओं को लेकर ।
तो अब धर्म किसपर आश्रित है?
यह हम जानना चाहते हैं ।
इसके साथ श्रीमद भागव्त का प्रथम स्कन्ध प्रथम अध्याय समाप्त होता है ।
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