स्वयंभू और परमेष्ठी - सूर्यमण्डल - चंद्रमण्डल और पृथ्वी। ऐसे तीन तीन संस्थाएं हैं। हमारे शरीर को देखिए। इसमें शरीर भी है और आत्मा भी है। शरीर को हम देख सकते हैं, आत्मा को देख नहीं सकते। शरीर कुछ सालों बाद गिर जाएग....
स्वयंभू और परमेष्ठी - सूर्यमण्डल - चंद्रमण्डल और पृथ्वी।
ऐसे तीन तीन संस्थाएं हैं।
हमारे शरीर को देखिए।
इसमें शरीर भी है और आत्मा भी है।
शरीर को हम देख सकते हैं, आत्मा को देख नहीं सकते।
शरीर कुछ सालों बाद गिर जाएगा, इसलिए शरीत क्षर है, शरीर का नाश होता है।
जीवात्मा का नाश नहीं होता।
वह मरण के बाद दूसरे शरीर को अपनाता है।
इसलिए जीवात्मा है अक्षर, अविनाशी।
अपने कर्म के अनुसार यह बार बार जन्म लेता रहेगा।
कल्पांत तक, अगले कल्प में भी।
जब तक उसे अपरा मुक्ति न मिल जाएं।
अपरा मुक्ति मिलने पर वापस धरती पर जन्म नहीं लेना पडेगा।
बार बार धरती पर जन्म नहीं लेना पडेगा।
वैकुण्ठ, कैलास, सत्यलोक जैसे दिव्य लोकों में नित्य निवास मिलना है अपरा मुक्ति।
अपरा मुक्ति का आपको मालूम होगा, पांच भेद हैं।
सालोक्य - भगवान के साथ उनके लोक में रहना।
सामीप्य - भगवान के समीप में ही सर्वदा रहना।
सारूप्य - भगवान के जैसा रूप की प्राप्ति।
सार्ष्टि - भगवान की जैसी शक्ति को पाना।
और सायुज्य - भगवान में विलीन हो जाना।
ये सारे अपरा मुक्ति हैं।
इनमें आप पृथ्वी और चंद्रमण्डल से उठकर सूर्यमण्डल तक आ जाते हैं।
सूर्यमण्डल से भी ऊपर है दो लोक- परमेष्ठी और स्वयंभू।
विश्व आपको सूर्यमण्डल के नीचे ही दिखाई देगा।
सूर्यमण्डल के ऊपर सब कुछ अव्यक्त है।
अभिव्यक्ति नहीं है।
एक सा है।
जैसे पूरा समंदर एक सा दिखाई देता है, वैसा ही कुछ है।
पेड पौधे, पहाड, प्राणी कुछ भी नहीं हैं।
अपरा मुक्ति में सिर्फ आपका पर्यावरण बदलता है।
यहां धरती पर आपके साथ दूसरे मानव हैं तो वैकुण्ठ में आपके साथ विष्णु पार्षद रहेंगे।
वहां भी शरीरी रहेंगे।
पर सूर्यमण्डल का भेद करके उसके भी ऊपर जाने पर आपका जो पृथक अस्तित्व है वह ही खत्म हो जाएगा।
अपरा मुक्ति में जब उसकी चरमावस्था सायुज्य होता है, जो भगवान में लय होना है, उसमें भी उसके बाद भी आपका भागवान के रूप में एक अस्तित्व रहेगा।
पर परामुक्ति में वह भी नहीं।
गीता का लक्ष्य परामुक्ति है।
गीता आपको परामुक्ति की ओर ले जाती है।
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