आरती करने के तीन उद्देश्य हैं। १. नीरांजन - देवता के अङ्ग-प्रत्यङ्ग चमक उठें ताकि भक्त उनके स्वरूप को अच्छी तरह समझकर अपने हृदय में बैठा सकें। २. कष्ट निवारण - पूजा के समय देवता का भव्य स्वरूप को देखकर उनके ऊपर भक्तों की ही नज़र पड सकती है। छोटे बच्चों की माताएँ जैसे नज़र उतारती हैं, ठीक वैसे ही आरती द्वारा देवता के लिए नज़र उतारी जाती है। ३, त्रुटि निवारण - पूजा में अगर कोई त्रुटि रह गई हो तो आरती से उसका निवारण हो जाता है।
श्रीकृष्ण और बलराम जी के चारों तरफ घंटी और घुंघरू की आवाज निकालती हुई गाय ही गाय हैं। गले में सोने की मालाएं, सींगों पर सोने का आवरण और मणि, पूंछों में नवरत्न का हार। वे सब बार बार उन दोनों के सुन्दर चेहरों को देखती हैं।
यो ब्रह्मा ब्रह्मण उज्जहार प्राणैः शिरः कृत्तिवासाः पिनाकी । ईशानो देवः स न आयुर्दधातु तस्मै जुहोमि हविषा घृतेन ॥ १ ॥ विभ्राजमानः सरिरस्य मध्या-द्रोचमानो घर्मरुचिर्य आगात् । स मृत्युपाशानपनुद्य घोरानिहायुषेणो घृतम....
यो ब्रह्मा ब्रह्मण उज्जहार प्राणैः शिरः कृत्तिवासाः पिनाकी ।
ईशानो देवः स न आयुर्दधातु तस्मै जुहोमि हविषा घृतेन ॥ १ ॥
विभ्राजमानः सरिरस्य मध्या-द्रोचमानो घर्मरुचिर्य आगात् ।
स मृत्युपाशानपनुद्य घोरानिहायुषेणो घृतमत्तु देवः ॥ २ ॥
ब्रह्मज्योति-र्ब्रह्म-पत्नीषु गर्भं यमादधात् पुरुरूपं जयन्तम् ।
सुवर्णरम्भग्रह-मर्कमर्च्यं तमायुषे वर्धयामो घृतेन ॥ ३ ॥
श्रियं लक्ष्मी-मौबला-मम्बिकां गां षष्ठीं च यामिन्द्रसेनेत्युदाहुः ।
तां विद्यां ब्रह्मयोनिग्ं सरूपामिहायुषे तर्पयामो घृतेन ॥ ४ ॥
दाक्षायण्यः सर्वयोन्यः स योन्यः सहस्रशो विश्वरूपा विरूपाः ।
ससूनवः सपतयः सयूथ्या आयुषेणो घृतमिदं जुषन्ताम् ॥ ५ ॥
दिव्या गणा बहुरूपाः पुराणा आयुश्छिदो नः प्रमथ्नन्तु वीरान् ।
तेभ्यो जुहोमि बहुधा घृतेन मा नः प्रजाग्ं रीरिषो मोत वीरान् ॥ ६ ॥
एकः पुरस्तात् य इदं बभूव यतो बभूव भुवनस्य गोपाः ।
यमप्येति भुवनग्ं साम्पराये स नो हविर्घृत-मिहायुषेत्तु देवः ॥ ७ ॥
वसून् रुद्रा-नादित्यान् मरुतोऽथ साध्यान् ऋभून् यक्षान् गन्धर्वाग्श्च
पितॄग्श्च विश्वान् ।
भृगून् सर्पाग्श्चाङ्गिरसोऽथ सर्वान् घृतग्ं हुत्वा स्वायुष्या महयाम
शश्वत् ॥ ८ ॥
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